हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 6 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 6

कलकत्ते की अलीपुर जेल में

गुप्त-समिति में सक्रिय भाग लेने तथा क्रान्तिकारियों के मुकदमों की पैरवी में सहयोग देनेसे भाईजी का नाम भी पुलिस की डायरी में आ गया। इनकी गतिविधि का निरीक्षण होने लगा। ये बिना किसी भय के अपने कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। बन्दी होने के एक मास पूर्व इनको सूचना मिल गयी कि सरकार कोई-न-कोई उपयुक्त अवसर पाकर इन्हें बन्दी बनाने की चेष्टा में है। इसे जानकर भी ये, न तो कहीं भागकर छिपे, न अपने कार्यक्रमों से विरत हुए। अचानक एक दिन सदल-बल पुलिस इनकी
क्लाइव स्ट्रीट स्थित दूकान पर पहुँच गयी एवं श्रावण कृष्ण 5 सं० 1973 (20 जुलाई, 1916) को राजद्रोह के अपराध में इन्हें बन्दी बनाकर ले गयी। इनके मित्र श्रीज्वालाप्रसाद जी कानोड़िया एवं श्रीफूलचन्द चौधरी को भी
बन्दी बना दिया गया। आरम्भ में पन्द्रह दिन तो इन लोगों को डुराण्डा हाउस में रखा गया, उसके पश्चात् अलीपुर जेल में स्थानांनतरित कर दिया।
अभी इनका विवाह हुए तीन महीने भी नहीं हुए थे तथा घर में
अकेली स्त्रियाँ थी। यह पता नहीं था कि कारावास में कितने दिन रहना पडेगा।, इन सब बातों को सोचकर एक बार तो ये घबरा गये। उस समय मन की क्या दशा थी उसका विवरण उन्हीं के शब्दों में पढें—
“ज्वालाप्रसादजी आदि हम लोग कई साथी थे। पर पकड़े जाने के दिन ही जेल जाने पर मुझे बड़ा दुःख हुआ। मेरा हृदय तड़पड़ाने लगा। मेरे हृदयमें व्याकुलता छा गयी, चारों ओर अन्धकार दिखाई पड़ता था। जब कोई सहारा न मिला तो अन्त में मुझे उस परमपिता परमेश्वर का नाम स्मरण हो आया। 'अशरणके शरण' को स्मरण करना ही मुझे एक अवलम्ब मालूम हुआ। मैंने नाम की रट लगा दी। भजन करने की देर थी कि शान्ति का आविर्भाव होने लगा। धीरे-धीरे व्याकुलता दूर हो गयी, हृदय में शान्तिका साम्राज्य छा गया।
इसी समय मुझे नाम का माहात्म्य मालूम हुआ। मुझे माला की आवश्यकता मालूम पड़ी। मेरी उन्नति का प्रथम सूत्रपात यहीं से हुआ।”
इन्होंने पहरेदार से माला माँगी। उसने माला देने में तो अपनी
लाचारी प्रकट की, किन्तु एक और उपाय बताया कि गिनती करके माला पूरी होने पर इस कील से दीवाल पर एक लकीर खींच दो। इन्हें एक कील दे दी। इनका जप चलने लगा।
राजद्रोह का मुकदमा चलाने की सरकार ने पूरी चेष्टा की, परन्तु
ठोस आधार न मिलने से सम्भव नहीं हो सका। सन्देह के आधार पर लम्बे समय के लिये जेल में रखना सम्भव नहीं था। अतः भारत-रक्षा-विधान के अनुसार साथियों सहित इनको अनिश्चित काल के लिये नजरबन्द करनेका आदेश दे दिया। सभी साथियों को विभिन्न-विभिन्न स्थानों पर भेजा गया। इनको बाँकुड़ा से 24 मील दूर शिमलापाल नामक ग्राम में जाने का आदेश
मिला। जाने से पूर्व एक घंटे घरवालों से मिलने की अनुमति मिली। उस एक घंटे के मिलन में घरवालों की मनःस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।

शिमलापालमें नजरबन्दी एवं साधना
भगवान् कुछ छीनते हैं, तो उससे अनन्त गुना देते भी हैं। वे देने के लिए ही छीनते-से दिखाई देते हैं। भगवान्ने भाईजी के देश-प्रेम की सारी उमंगे छीन ली, मित्र-मण्डली तोड़ दी. प्रियजनों से अलग कर दिया, परिवार के किसी व्यक्ति को साथ नहीं रहने दिया, पर इनके बदले में ऐसी वस्तु दी जिसकी तुलना में विश्व की समस्त लोभनीय वस्तुएँ सर्वथा अत्यन्त नगण्य हैं। वह वस्तु थी— 'भगवान् का मंगलमय स्मरण।' कलकत्ते की दिनचर्या कुछ और थी, शिमलापाल की कुछ और ही। नजरबन्दी के जीवन में श्रीभाईजी में एक विलक्षण परिवर्तन हुआ। शिमलापाल का जीवन एक कठोर साधना का समय बन गया। सरकार के
नियम के अनुसार ये गाँव के बाहर जा नहीं सकते थे। शामके बाद गाँव के भी किसी व्यक्ति से नहीं मिल सकते थे। शिक्षा सम्बन्धी किसी व्यक्ति से न मिले। शामके छः बजेसे प्रातः छः बजे तक झोपड़ी से बाहर न जायँ, जो भी पत्र आवे वह पुलिस के मार्फत सरकार इन्हें खर्चे के लिये अस्सी रुपये मासिक देती थी जिसमें से ये तीस रुपये अपने खर्च के लिये रखकर बाकी पचास रुपये अपनी दादी के पास परिवार का खर्च चलाने भेज देते। उन दिनों भाईजी प्रायः तीन-चार बजे प्रातः उठ जाते एवं तीस माला 'हरे राम' षोडशमन्त्र का जपकर फिर शौच स्नान के लिये जाते। नहाकर सन्ध्या-वन्दन, गीता, विष्णुसस्रनाम का पाठ करके रविवर्मा के बनाये हुए ध्रुव-नारायण के चित्र के आधार पर ध्यान करते। थोड़े ही दिनों में वृत्ति ध्येयाकार बनकर
ध्यान का इतना सुन्दर अभ्यास हो गया कि प्रातः, दोपहर एवं रात्रि में
तीन-तीन घंटे ध्यान में बीतने लगे। शेष समय नाम-जप में एवं स्वाध्याय में लगाते। बहुत थोड़े समय में शरीर के आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर शेष सारा समय इसी तरह साधना-तपस्या में व्यतीत करते। आगे चलकर छः
महीने में ध्यान का इतना अभ्यास हो गया कि आँखें खुली रहते हुए जिस वस्तु के स्थान पर भगवान् की धारणा करते, वहीं श्रीविष्णु भगवान् की मूर्ति दिखलायी देने लगती। बादमें भाईजी ने कई बार यह बताया कि यह कोई सिद्धि या चमत्कार नहीं है, जो भी इस तरह अभ्यास करेगा, उसे ऐसा अनुभव हो सकता है।
नाम-जपमें इतना रस आने लगा कि नाम-जप छूटना सहन नहीं होता था। मन में भावना आती कि कोई मुझसे बात न करे एवं यदि आवश्यक बात करनी ही पड़े तो मुझे बोलना न पड़े। जीभ सतत् नाम-जप में लगी रहती। जब कभी आने वाला व्यक्ति बहुत देर बैठ जाता तो विनम्र शब्दों में बोल देते— देखिये मैं तो निकम्मा आदमी हूँ, बहुत देर हो गयी, आपको काम होगा, अतः आप पधारिये। इनकी चेष्टा यही रहती कि कम-से-कम लोगों के सम्पर्क में आना पड़े। नाम में धन-बुद्धि हो जाने से ऐसा होना स्वाभाविक ही था।
उस समय इनके द्वारा किसी के प्रति यदि रूखा व्यवहार हो जाता तो इन्हें बड़ा दुःख होता। एक दिन की बात है, ये स्वाध्यायमें तल्लीन थे। एक सज्जन चाकू माँगने आये। इन्होंने स्वाध्याय में विघ्न न पड़े इस दृष्टि से कह दिया— अभी नहीं, पीछे ले जाइयेगा। वे सज्जन तो चले गये पर इनको इतना दुःख हुआ कि ये दौड़कर उनके पास गये, चाकू देकर उनसे विनम्र शब्दोंमें क्षमा याचना करके उन्हें संतुष्ट किया। इसी समय इन्होंने नारद-भक्ति सूत्रों की हिन्दी टीका की। यह आगे चलकर कुछ परिवर्तन-परिवर्द्धन के साथ गीताप्रेस से प्रेम दर्शन नाम से प्रकाशित हुई। इन्होंने इतनी छोटी उम्र में प्रेमरूपा भक्ति की इतनी गम्भीर व्याख्या की, जो कि चिरकाल के लिये एक
मनन करने योग्य पुस्तक बन गयी।
इस प्रवास कालमें एक और सेवा-कार्य में ये समय लगाते— वह था दवा बाँटने का। जो सिविल सर्जन इन्हें देखने आते थे उन्हीं के सहयोगसे इन्होंने कुछ होमियोपैथिक दवाएँ एवं पुस्तकें मँगा ली एवं उसी के आधार पर रोग-ग्रस्तों की सेवा करने लगे। बादमें इनकी धर्म-पत्नी को भी सरकार ने रहने की अनुमति दे दी एवं वह भी इस सेवा-कार्य में हाथ बँटाने लगी। सच्ची सेवा-भावना होने से भगवान्ने कल्पनातीत सफलता दी। एक बार वहाँ हैजा फैला, उसमें इकसठ व्यक्तियों की इन्होंने चिकित्सा की, जिसमें से अट्ठावन को लाभ हुआ। एक मुसलमान बहुत वर्षो से गूँगा था, उसके घरवाले दवाई दिलाने लाये। पहले तो ये निर्णय नहीं कर सके कि कौन-सी दवा दें, फिर पुस्तक से कुछ लक्षण मिलाकर दवाई दे दी। इनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब तीन दिन बाद बहुत भीड़ के साथ वह व्यक्ति बोलता हुआ आया एवं लोग इन्हें बधाई देने लगे। वहाँ के लोगों से, पुलिसवालों से, सभी से बहुत ही प्रेम का, घर-सा सम्बन्ध हो गया था। एक और विलक्षण अनुभव इन्हें हुआ। एक बार इन्हें समाचार मिला कि इनकी दादी जी कलकत्ते में बीमार हैं एवं इनसे मिलना चाहती हैं। ये नियमानुसार बाहर जा नहीं सकते थे। दादीजी के विशेष स्नेहके कारण इनकी उनसे मिलनेकी तीव्र इच्छा हो गयी। सरकारको तार दिया पर अस्वीकृति गई। इनके मनमे बड़ी व्याकुलता हुई एवं इसी निमित्तसे भगवन्नाम जप आरम्भ कर दिया। उसी दिन एक मुसलमान डिप्टी कलक्टर मुआयना करने
आये. उनको भाईजी ने सारी बातें कही। वे बड़े सहृदय थे, उन्होंने कहा आपके लिये कल ही आर्डर आता है। इन्हें विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि आर्डर गर्वनर ही दे सकता था। ये अपने नाम-जपमें लग गये। दूसरे ही दिन सात दिनके लिये पेरोलपर जाने की आज्ञा मिल गई एवं ये आश्चर्यचकित हो भगवत्कृपा का अनुभव करते हुए उसीमें डूब गये।
इस नजरबन्दी के जीवनमें भाईजी साधना के सोपानों पर बढ़ते ही जा रहे थे। वृत्तियाँ अन्तर्मुखी हो गयी थी। इक्कीस मासकी अवधिके बाद इन्हें सरकार का विमुक्ति आदेश मिला कि चौबीस घंटेके अन्दर बंगाल छोड़ दो।
पौने दो वर्ष शिमलापालमें रहकर सचमुच ही भाईजीने एक नया परिवार बसा लिया था। ग्रामवासियोंके सुख-दुःखमें हाथ बँटाकर, उनकी सेवा करके इन्होंने उनके हृदयपर अधिकार कर लिया था। सरकार द्वारा नजरबन्दीकी समाप्तिके आदेशकी सूचना जब वहाँके लोगोंको मिली तो वे स्तब्ध रह गये एवं उनको कष्टकी प्रतीति होने लगी। आह, जो प्रतिदिन उनकी सार-सँभाल करता था, अपने हाथोंसे दवा देता था, जिसके पास अपना रोना सुनाकर हृदयको हल्का करते थे, जो सबको प्यार-सम्मान देता था, वह उनके बीचमेंसे हमेशाके लिये चला जायगा। ग्रामवासियोंके आँखोंसे आँसू रुक नहीं सके और सबने भाईजी को घेर लिया। उधर बाँकुड़ा जाने के लिये बैलगाड़ी तैयार खड़ी थी। ये हाथ फैलाकर आन्तरिक स्नेह से एक-एक को हृदय से लगाकर सान्त्वना दे रहे थे, उनके आँसू पोंछ रहे थे। इन्होंने सबसे अपनी त्रुटियों के लिये क्षमा माँगी और आशीर्वाद चाहा कि जीवन भगवान्की ओर तीव्र गति से बढ़े। सबने हृदय भर के आशीर्वाद दिया। दोनों बैलगाड़ीपर बैठे। गाड़ी चली, लगता था शिमलापालवासियों का हृदय चला जा रहा है— आगे-आगे गाड़ी जा रही थी और पीछे-पीछे चल रहा था— शिमलापाल का जनसमूह, आबाल-वृद्ध नर-नारियाँ। भाईजी हाथ के इशारे से सबको लौट जाने का संकेत कर रहे थे, पर भाव-प्रवाह का
बाँध टूटने पर उसकी गति में विराम आना कठिन होता है। शिमलापाल गाँव बहुत पीछे छूट गया था। भाईजी को ग्रामवासियों के लौटने की चिन्ता हुई। इन्होंने साहस बटोरा और अवरुद्ध कण्ठसे अस्पष्ट वाणीमें हाथ जोड़कर प्रार्थना की भाइयों ! बहुत दूर चले आये, अब लौट जाइये, अब आगे मत चलिये। आप लोग कितनी दूर चलेंगे ? आपलोगों का स्नेह-प्यार मैं जीवनभर स्मरण रखूँगा। वह मेरे जीवनकी परम निधि है। अन्तस्तलके निकले शब्दोंका ग्रामवासियोंपर प्रभाव पड़ा और वे वहीं रुक गये। भाईजी ग्रामवासियोंकी ओर मुँह किये उनको निहारते रहे। कई घंटोंकी यात्रा के पश्चात् वे बाँकुड़ा पहुँचे। वहाँ सम्बन्धियों और मित्रों से मिलकर रेल से आसनसोल आये। दादी तथा अन्य कुटुम्बी पहले से ही आसनसोल पहुँच गये थे। सभी को साथ लेकर वहाँ से सीधे रतनगढ़ के लिये रेल‌द्वारा प्रस्थान किया।