38.सावन और मेघ
पानी बरस रहा झमाझम,धरती पर मेघों की छाया,
सूरज भी अंतर्धान हो गए,देखो सावन है आया।
गिरती फुहारें जलकी रिमझिम,श्वेत धुआंसा छाया,
तप्त धरा को शीतल करने,देखो सावन है आया।
हुए गांव नगर लबालब,सड़कें पानी में डूब रहीं,
गली में छपछप दौड़ते बच्चे,देखो सावन है आया।
थम जाता है जनजीवन,नदी-नालों की मर्यादा टूटी
पड़ती मार गरीबों की छत पे,कैसा सावन ये आया
सावन का है रूप मनोहर,प्रिय की याद लिए आया
फिर प्रेम के बनते मेघदूत,देखो सावन है आया।
बारिश का तो ओर न छोर,सारी सृष्टि पानी-पानी,
विश्व प्रेम का लिए संदेसा,देखो सावन है आया।
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय©
39 होना साथ तेरा
जैसे छाया
तन से अलग नहीं,
जब धूप न हो,
तब भी अदृश्य रूप में विद्यमान
छाया स्वयं में,
वैसे ही एहसास
साथ तेरे होने का हर क्षण,
इस जन्म से लेकर कई जन्मों
और जन्म-जन्मांतर में ,
मोक्ष के मिलने तक,
और पार इस जन्म के भी
अगले जन्म से पूर्व के
आत्मा के संक्रमण काल में भी
वही एहसास
साथ तेरे होने का हर क्षण,
अपने अस्तित्व में;
कि तू है तो मैं हूं,
क्या तुझ चंद्र को भी
हुई है कभी
अनुभूति एक क्षण कभी
इस चकोर की भी?
ऐ कृष्ण!
योगेंद्र
40 प्रेम एक रूप अनेक
प्रेम तो प्रेम होता है
अखंड,अविभाज्य,अंतहीन
और हम प्रेम नहीं करते,
बल्कि हम प्रेम को
धारण करते हैं, जीते हैं
और इसके साथ ही,
हम पहुंच जाते हैं
उस दुनिया में,
जहां चारों तरफ पसरा है
केवल प्रेम का
जैसे छाया
तन से अलग नहीं,
जब धूप न हो,
तब भी अदृश्य रूप में विद्यमान
छाया स्वयं में,
वैसे ही एहसास
साथ तेरे होने का हर क्षण,
इस जन्म से लेकर कई जन्मों
और जन्म-जन्मांतर में ,
मोक्ष के मिलने तक,
और पार इस जन्म के भी
अगले जन्म से पूर्व के
आत्मा के संक्रमण काल में भी
वही एहसास
साथ तेरे होने का हर क्षण,
अपने अस्तित्व में;
कि तू है तो मैं हूं,
क्या तुझ चंद्र को भी
हुई है कभी
अनुभूति एक क्षण कभी
इस चकोर की भी?
ऐ कृष्ण!
41.प्रेम बिन पर्याय
बचपन में प्रेम की अनुभूति
होती है पालने में, मां की स्नेह छाया में,
फिर,पिता की उंगली पकड़कर चलना सीखना, और स्कूल में मित्रों के साथ
गलबहियां डाले घूमना,
गुरु की शागिर्दी में
सीखना संसार- सागर पार करने का हुनर,
और प्रथम दृष्टियों के
प्रेम-भ्रम के परिवर्तनशील बादलों के छंट जाने के बाद,
जीवन में गार्हस्थ्य या वैराग्य की चंद्र-यामिनी
और फिर विराट सत्ता के स्थायी प्रेम का अरुणोदय,
सचमुच,प्रेम समय की एक विराट धारा है,
और प्रेम केवल एक होता है,
पहला, दूसरा या तीसरा नहीं,
उस प्रेम धारा के परिवर्तित दृश्यमान रूपों में
हम एक उसी प्रेम को जीते हैं
उसी प्रेमधारा में स्नान करते हैं,
उसी प्रेमरस से सराबोर होते हैं।
डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय©®
42 आखिरी बार
अब कलम ने
लिखने बंद कर दिए हैं,
कागज पर कुछ गिने-चुने शब्द,
इन शब्दों की जोड़-तोड़
और
वाक्य में पदों के रूप में
इनके क्रम आगे-पीछे।
अब आंखें दुखने लगी हैं,
लिखते-लिखते,
रोज एक नई रचना।
अब मस्तिष्क में
नहीं आती हैं,कल्पनाएं अनूठी,
मन भी अब भूल चुका है,
मृग सा कुलांचे भरना
और जा पहुंचना
अलग-अलग किस्से-कहानियों के अरण्यों में।
अब देर रात छत पर
जब हृदय में
भाव उमड़ते हैं,
तो मौन शब्द बनकर
तैर जाते हैं आकाश की असीमता में
और
खो जाते हैं
टिमटिमाते अगणित तारों के मध्य कहीं।
क्या शब्दहीन होने पर भी
ये पहुंचेंगे पहले की तरह ही कहीं,
या
अनदेखे,अचीन्हे रूप में ही
विलीन हो जाएंगे सदा के लिए।
योगेंद्र ©®
विविध भाव भूमि पर आधारित कविताओं का संग्रह