यादों के कारवां में: अध्याय 4
(9) ध्रुव तारे से अटल
आषाढ़ की इस
ढलती अँधेरी शाम
और गहराती निशा के बीच
आसमान में छाए हैं हर कहीं
गहरे काले बादल
और बारिश की आंख-मिचौली के बीच
क्षितिज में जैसे
चांद भी है छिपा, दुबका हुआ सा
और
तभी फूट पड़ती है
उजाले की एक रेख
आसमान के किसी कोने से
और
दूर हो जाता है
मेरे अंतर्मन का समूचा तम
कि
घोर निराशा और घोर अंधियारे
के बीच भी है
आशा की यह एक किरण
और इसने भर दिया है
मेरे पूरी अस्तित्व को
एक दिव्य रोशनी से
और
मैं डूबता हूं
इस दिव्य प्रकाश में
और
उठ जाता हूँ ऊपर
सभी दुनियावी संबंधों से
और
पहुंच जाता हूं
उस लोक में
जहां बस प्रेम है,पवित्रता है,सुकून है
जहां गौण हो जाते हैं प्रश्न
इस जन्म के साथ के,
अगले जन्म के साथ के,
जन्म-जन्मांतर के साथ के,
कि
यह भावलोक है
इस जन्म और ऐसे कई जन्मों की यात्रा से परे
कि
इसे पाकर
सब कुछ पा लेना है
और
खत्म हो जाना है
सभी तरह के इंतज़ार का,
कि उजियारे की इस रेख के सहारे
अब मैं पार कर लूंगा
दुनिया के सातों सागर क्या
जीवन का यह कठिन भवसागर भी,
कि
इस आत्मिक सौंदर्य द्युति
को महसूस करने के बाद
इस जीवन में
अब और कुछ पाना शेष नहीं
और उजियारे के इसी एक रेख ने
पूरा कर दिया है
मेरे जीवन में,
इंतज़ार सदियों का
और
भर दिया है मेरे जीवन में
प्रेम और मस्ती का प्याला
कि
उस एक क्षण में ही
जी ली है मैंने
कई जन्मों की ज़िंदगी
और
उजियारे की इक रेख से
अब तुम बन गए हो
मेरे जीवन -आकाश में चमकते
ध्रुव तारे से अटल
मेरे जन्म-जन्मांतर के।
(10)
प्रेम की बिन लिखी पाती
प्रेम है हृदय की भाषा
इसलिए
अव्यक्त है वाणी से
अदृश्य है आंखों से
और है वर्णनातीत
इसीलिए
जब शब्द समाप्त हो जाते हैं
तब फूटता है हृदय से प्रेम;
और लिखे जाते हैं
प्रेम के आखर के
अंतहीन संदेसे
अंबर के तारों से अगणित……..
क्या ये कहीं पहुंचते हैं?
या गुम हो जाते हैं
(11)
प्रेम की बेल
प्रेम
है
एक क्षण के अंकुरण
से तैयार लहलहाती बेल,
और इससे बनता मन मस्तमौला,
पी कर प्रेम-प्याला नृत्यरत,
बहती नदी सा सतत और अविरल,
तब प्रेम हो जाता है,
पाने और खोने से मुक्त सदा लब्ध,
इसीलिए,
प्रेम है एक गहरा विश्वास।
अव्यक्त एक मौन ध्वनि।
बंधन एक अदृश्य, अटूट,
संबंध अविभाज्य,एकाकार।
इसीलिए सभी रिश्तो में ज़रूरी है प्रेम।
इसीलिए सभी रिश्तों से ऊपर है प्रेम ।
इसीलिए ईश्वर भी हैं स्वयं प्रेम
और है यह सकल ब्रह्मांड भी प्रेममय
इसीलिए इस सृष्टि के
कण-कण में बिखरा है प्रेम
जो इस सृष्टि में है हर कहीं,
महसूस करना सखे,
अपने आसपास भी
सदा,
प्रेम की इस बेल को।
(12) रात का तारा
रात्रि के गहन अंधकार में भी
दिखाई देता है
रात का तारा चमकते हुए
जैसे घोर निराशा के बीच
आशा की एक किरण
और अहसास अपनेपन का।
कृष्ण पक्ष की अंधियारी रातों में
जब चांदनी नहीं होती
तब भी
आकाशगंगा की
दूधिया पट्टी के एक किनारे
मुझे अक्सर दिखाई देता है
रात का वह तारा
घर की छत पर खड़ा
जब मैं निहारता हूँ,
नीला अंबर
और उसमें बनने वाली
बादलों की अनेक आकृतियां
और असंख्य मिचमिचाते,
ऊँघते तारों के बीच
एक अलग ही आभा से चमकते
रात के उस तारे को।
जब होती है चंद्रमा की
पूर्ण कलाओं वाली रात,
अंबर में बिखरी रोशनी,
और धरती के प्रेमी जब तलाशते हैं
चंद्र के लिए उपमाएँ नयी-नयी
तब भी मैं देखता हूं
इनसे अलग,
रात के उस तारे को
लाखों प्रकाश वर्ष की दूरी पर भी
जैसे बहुत आसान हो जाता है पहुंचना
एक पल में ही,
श्वेत पथ से चलकर
आकाशगंगा के उस ओर,
और छू लेना उस रात के तारे को
या
आना उस तारे का चलकर
श्वेतपथ के इस पार,
पास मेरे
कि दूर धरती में,
उस छत पर जल रहा है
सिर्फ एक,
रात का दीपक,रातभर,
करता अस्तित्व सार्थक मेरा
बनकर मेरे लिए
रात का तारा,
और तब बन जाती है
आकाशगंगा की ये
दूधिया पट्टी, मिलन का सेतु
भोर होने के पहले तक,
और यूं ही बीत जाती है रात
कि तेरे बिन जीना है मुश्किल।
योगेंद्र @कॉपीराइट
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