मेरी बुआ ने,जो मेरे प्रसव के समय वहाँ उपस्थित थी,कन्या को जन्म देने के पश्चात मैं अचेत हो गई और जब सचेत हुई तो मुझे ये दुखभरी सूचना मिली...वसुन्धरा बोली....
तब भूकालेश्वर जी बोले...
यदि मैं कहूँ कि वो पुत्री जीवित है तो...
परन्तु!ये कैसें हो सकता है मेरी बुआ ने कहा था कि वो तो जन्म लेते ही स्वर्ग सिधार गई थी....
आपने कन्या की सूरत देखी थी,भूकालेश्वर जी ने पूछा...
जी!नहीं!वसुन्धरा बोली...
तो किसी के मुँख से कही बात पर आपने कैसें विश्वास कर लिया,ऐसा भी तो हो सकता है कि आपके पिताश्री देवनारायण की भाँति उस कन्या को आपके जीवन से निकालकर बाहर करना चाहते हों,भूकालेश्वर जी बोलें....
ये तो सम्भव हो सकता है,देवनारायण बोला....
इसका तात्पर्य है कि मेरी पुत्री जीवित है,वसुन्धरा बोली....
तब भूकालेश्वर जी बोलें....
आपकी पुत्री जीवित है एवं इस समय आप सबके समक्ष खड़ी है....
आप कहना क्या चाहते हैं?कहीं वो मनोज्ञा तो नहीं,लाभशंकर बोला...
तुम एकदम सही समझे लाभशंकर!भूकालेश्वर जी बोलें...
ये सत्य है पिताश्री!मनोज्ञा बोलीं...
यही सत्य है पुत्री!भूकालेश्वर जी बोलें....
आपके पास कोई प्रमाण है इसका,लाभशंकर ने पूछा....
तब भूकालेश्वर जी बोले....
जिस रात्रि रानी वसुन्धरा ने मनोज्ञा को जन्म दिया था तो उस रात्रि वसुन्धरा की बुआ चन्द्रावली कन्या को मुझे देकर चली गई,उसने अपना नाम भी बताया था,ये भी बताकर गई कि वो कन्या किसकी है,कन्या पर लिपटा राजसी वस्त्र स्वयं ही उस कन्या की कहानी कह रहा था,कन्या रो रही थी वो भूखी थी,तब मैनें उसी समय मंदिर के वाटिका के माली को जगाया,तब मालिन शबरी ने कन्या को सम्भाला,चूँकि शबरी के कोई सन्तान नहीं थी इसलिए वो ही कन्या का पालन पोषण करने लगी,माली तो नहीं रहा परन्तु मालिन शबरी अभी भी जीवित है,वो अब भी मनोज्ञा से उतना ही प्रेम करती है जितना पहले करती थी....
मैनें कन्या के दो महीने के हो जाने के बाद चन्द्रावली के विषय में ज्ञात करना चाहा तो ज्ञात हुआ कि राजा वीरबहूटी ने स्वयं ही अपनी बहन चन्द्रावली की हत्या करवा दी क्योंकि वें नहीं चाहते थे कि कन्या का रहस्य किसी को भी ज्ञात हो किन्तु चन्द्रावली एक भलाई का कार्य करके गई,उसने राजा वीरबहूटी को नहीं बताया कि वो कन्या राज्य के मंदिर के पुजारी के पास है,एक दिन राजा मंदिर की ओर आएं तो तब मैं कन्या को गोद में लिए था उन्होंने पूछा भी कि आप तो ब्रह्मचारी हैं तो कन्या किसकी है,तब मैनें कहा कि ये कन्या मालिन की है,इस तरह से मैनें कभी भी शबरी तक को ये नहीं बताया कि मनोज्ञा कोई राजकन्या है,मैं तब से मनोज्ञा की रक्षा करता आया हूँ....
ओह....तो क्या मैं राजमाता की पुत्री हूँ,मनोज्ञा बोली...
हाँ!पुत्री!मुझे तुम्हें खोने का भय था इसलिए मैनें इस रहस्य को स्वयं तक सीमित रखा,मुझे क्षमा करना मेरी पुत्री!भूकालेश्वर जी बोले....
ना...पिताश्री!कृपया आप मुझसे क्षमा ना माँगें,मनोज्ञा बोली....
ये बात मुझे तुम्हें पहले ही बता देनी चाहिए थी कि तुम मेरी पुत्री नहीं हो,भूकालेश्वर जी बोलें....
कदाचित!आज वो सही समय आया है कि एक परिवार के सदस्य जो वर्षों से विलग थे वें मिल गए,लाभशंकर बोला....
तब वसुन्धरा बोली....
ओह...तो यही मेरी पुत्री है,जब मैनें इसे पहली देखा था तभी मेरे मन में इसके प्रति कुछ चाहे-अनचाहे से भाव उठे थे,पुत्री.... आओ ..मेरे हृदय से लग जाओं,मेरे व्याकुल मन को शांत करो...
मनोज्ञा अपनी माँ वसुन्धरा की पुकार पर उनके समीप गई ,मनोज्ञा ने वसुन्धरा के चरण स्पर्श किए और वसुन्धरा ने उसे अपने हृदय से लगा लिया,तब देवनारायण बोला....
प्रिय पुत्री !अपने पिता से नहीं मिलोगी....
इतना सुनकर मनोज्ञा वसुन्धरा से विलग हुई एवं देवनारायण के चरण स्पर्श करके उनके हृदय से लग गई,आज सभी प्रसन्न थे ,सभी प्रसन्नतापूर्वक घर पहुँचे,घर पहुँचकर उन्होंने सारी बात लाभशंकर के पिता शम्भू एवं माता माया से कही,ये बात सुनकर वें दोनों भी प्रसन्न हुए,तब माया देवनारायण से बोली.....
तो भ्राता देवनारायण!अब आपको वसुन्धरा भाभी से विवाह कर लेना चाहिए एवं अपने परिवार के संग सुखपूर्वक दिन बिताने चाहिए....
तब मनोज्ञा बोली....
ये सब तो ठीक है माताजी,परन्तु जन्म देने वाले जनक से पालने पोसने वाला जनक अधिक महान होता है,इसलिए मैं तो इनके साथ ही रहूँगीँ.....
तब वसुन्धरा बोली....
हम सभी एक साथ रहेगें ताकि तुम्हें किसी की भी कमी का अनुभव ना हो.....
उन सभी के मध्य यूँ ही वार्तालाप चल रहा था तभी सभी को अश्वों की टापें सुनाईं दीं,किसी को कुछ समझ नहीं आया कि वहाँ क्या हो रहा है?सभी घर से बाहर निकले और उन्होंने देखा कि बसन्तवीर अपने कुछ सैनिकों के संग उन सबको खोजता हुआ वहाँ आ पहुँचा है,सभी भयभीत हो उठे कि अब क्या होगा?
तब बसन्तवीर उनके घर के द्वार पर पहुँचा एवं अपने अश्व से उतरकर वसुन्धरा के समीप पहुँचा एवं उनके चरणस्पर्श किए,तत्पश्चात उनसे बोला....
माताश्री!आप से ऐसी आशा नहीं थी कि आप मेरे शत्रुओं से मिल जाएंगीं,मेरे गुप्तचरों ने मुझे बताया कि लाभशंकर ही चंचला है और आप सभी भागकर यहाँ आएं हैं...
पुत्र!मुझे भी तुमसे ऐसी आशा नहीं थी कि तुम मुझसे अभद्रतापूर्ण व्यवहार करोगे,वसुन्धरा बोली....
मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा,मुझे केवल मनोज्ञा को ले जाने दीजिए,बसन्तवीर बोला....
वो तेरी बहन है मूर्ख!वसुन्धरा बोली....
किस सम्बन्ध से वो मेरी बहन हुई?बसन्तवीर ने पूछा....
तब वसुन्धरा ने बसन्तवीर को देवनारायण एवं स्वयं की सच्चाई बता दी,इस पर बसन्तवीर बोला....
तो सगी बहन तो नहीं है ना!
तुम दोनों के पिता भिन्न है किन्तु दोनों की माता तो मैं ही हूँ,वसुन्धरा बोली....
तो ठीक है मुझसे युद्ध कीजिए,यदि आप जीतीं तो मनोज्ञा आपकी,बसन्तवीर बोला....
ये क्या कह रहे हो बसन्तवीर!वो तुम्हारी माँ हैं एवं वें वृद्ध भी हैं,भूकालेश्वर जी बोलें....
तो मेरे संग सैनिक भी तो कम हैं,देखिए ना पाँच सैनिक ही तो हैं,इनसे तो माता यूँ जीत जाएंगीं,ये भी तो युद्धकला में निपुण थीं,अभी भी अभ्यास करतीं हैं,ये तो इनके लिए बड़ी ही सरलता का कार्य है,बसन्तवीर बोला...
ऐसा प्रतीत होता है तुम्हारे मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ गया है,लाभशंकर बोला.....
तुम हम माँ एवं पुत्र के मध्य ना ही पड़ो तो अच्छा!बसन्तवीर बोला....
क्यों ना पड़ू मध्य में,वो भी तो मेरी माता जैसीं हैं,लाभशंकर बोला...
तुम शांत बैठों लाभशंकर,माता!ये लीजिए तलवार और आइए,प्रारम्भ कीजिए युद्ध,बसन्तवीर वसुन्धरा को तलवार देते हुए बोला....
अब वसुन्धरा अपना क्रोध रोक ना सकी और अपने परिधान को सम्भालकर उसने तलवार हाथों में पकड़ ली एवं बसन्तवीर को ललकारते हुए बोलीं...
आ जाओ बसन्तवीर!मैं भी देखती हूँ कि तुझ में कितनी क्षमता है..
अब माँ बेटे के मध्य युद्ध प्रारम्भ हुआ,वसुन्धरा भी एक अच्छी योद्धा थी और उसने कुछ ही समय में बसन्तवीर को धूल चटा दी,किन्तु बसन्तवीर भी कहाँ हार मारने वाला था वो भी भी मैदान में डटा रहा,अन्ततः बसन्तवीर धरती पर गिरा एवं बसन्तवीर के सीने पर वसुन्धरा ने तलवार रख दी एवं उससे पूछा....
अब क्या करूँ ?तुम्हें छोड़ दूँ या तुम्हारा वध कर दूँ॥
तब बसन्तवीर बोला...
माता!मैं आपका पुत्र हूँ,मेरे इस दुस्साहस को क्षमा कर दीजिए,मैं वचन देता हूँ कि आज के बाद राज्य के किसी भी सदस्य एवं युवतियों के संग कोई भी अभद्र व्यवहार नहीं करूँगा....
जाओ!क्षमा किया,वसुन्धरा बोली....
वसुन्धरा के क्षमा करते ही बसन्तवीर धरती से उठा,उसने अपनी तलवार सम्भाली एवं धीरे धीरे अश्व पर बैठने के लिए बढ़ा,अब सब निश्चिन्त हो गए थे कि बसन्तवीर जा रहा है इसलिए सब वार्तालाप करने लगें,इतने में ना जाने बसन्तवीर को क्या सूझी वो तीव्र गति से तलवार लेकर वसुन्धरा की ओर बढ़ा तभी भूकालेश्वर जी ने उसे वसुन्धरा की ओर आते हुए देख लिया और वें वसुन्धरा के सामने आ गए एवं तलवार वसुन्धरा को ना लगकर भूकालेश्वर जी को लग गई एवं वें रक्तरंजित होकर धरती पर गिर पड़े,अब तो वसुन्धरा के क्रोध का पार ना था,उसने बिना विचारे ही अपने हाथों में ली हुई तलवार को बसन्तवीर के हृदय में घोंप दिया....एक नहीं... दो नहीं....पूरे पाँच बार,अब बसन्तवीर रक्तरंजित होकर धरती पर पड़ा था एवं उसकी चिन्ता किसी को नहीं थीं....
सभी भूकालेश्वर जी की ओर भागें एवं मनोज्ञा ने रोते हुए भूकालेश्वर जी के सिर को अपनी गोद में रखा और बोलीं....
ये क्या हो गया पिताश्री?
तब भूकालेश्वर जी मद्धम स्वर में धीरे धीरे बोलें.....
पुत्री!....मनोज्ञा....मेरे पास ...अधिक समय ....नहीं है,मुझे ये ज्ञात है कि तुम लाभशंकर ......से प्रेम करती हो एवं मेरे संकोच के कारण .........कभी स्वीकार नहीं कर पाई....,मैनें उस रात तुम दोनों के मध्य हो रहे वार्तालाप को वातायन से सुन लिया था......एवं उसी समय मैं वहाँ से चला गया......तब से मेरे हृदय में ये बात किसी काँटे की भाँति चुभ रही थी कि मैनें अपनी पुत्री को देवदासी बनाकर कोई अपराध कर दिया है..
किन्तु आज मैं तुम्हें......तुम्हारी सौगन्ध से मुक्त करता हूँ,तुम अब से देवदासी नहीं रहोगी एवं.....लाभशंकर से विवाह करके सुखपूर्वक जीवन बिताओं......लाभशंकर आओ पुत्र.....भूकालेश्वर जी ने लाभशंकर को बुलाया.....
लाभशंकर भूकालेश्वर जी के समीप बैठा तो भूकालेश्वर जी ने मनोज्ञा का हाथ लाभशंकर के हाथ में थमाते हुए कहा.....
सदैव प्रसन्न रहो...
और इतना कहकर भूकालेश्वर जी ने प्राण त्याग दिए और उस ओर बसन्तवीर भी अपने प्राण त्याग चुका था....मनोज्ञा भूकालेश्वर जी के प्राण त्यागते ही फूट फूटकर रो पड़ी,उसे माया और वसुन्धरा ने सान्त्वना दी,बसन्तवीर और भूकालेश्वर जी का अन्तिम संस्कार लाभशंकर ने किया....
अब मनोज्ञा अपनी सौगन्ध से मुक्त थी एवं कुछ समय पश्चात लाभशंकर और मनोज्ञा का विवाह हो गया,किन्तु उन दोनों के विवाह के पहले वसुन्धरा एवं देवनारायण का विवाह हुआ,शम्भू और माया मनोज्ञा को अपनी पुत्रवधु के रूप में पाकर अति प्रसन्न हुए एवं कुछ समय पश्चात वसुन्धरा ने लाभशंकर को राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया एवं देवनारायण के संग अपने ससुराल वाले राज्य लौट गई,लाभशंकर ने राज्य का कार्यभार बहुत अच्छी तरह सम्भाला,नगरवासी अपने राजा से प्रसन्न थे और इसी प्रकार सभी प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे....🙏🙏😊😊
समाप्त......
सरोज वर्मा......