सौगन्ध--भाग(९) Saroj Verma द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सौगन्ध--भाग(९)

राज्य की शोभा देखते ही बनती थी,मंदिर को सुन्दर सुन्दर पुष्पों की लड़ियों से सजाया गया था,जिस स्थान पर मनोज्ञा का नृत्य होना निश्चित था उस स्थान के चारों कोनों को भानुफल(केले) के पत्रों एवं अनेकों कलशों से सजाया गया था,राज्य के सभी जन धरती पर बिछे बिछौने पर पंक्तियों में बैठ गए,स्त्रियों की पंक्तियाँ अलग थी और पुरुषों की पंक्तियांँ अलग थीं,सभी राज्यवासियों की आँखें इस प्रतीक्षा में थीं कि कब राजमाता वसुन्धरा मंदिर में पधारें और मनोज्ञा उनके समक्ष अपना नृत्य प्रस्तुत करें,
राजमाता ने विशेष रूप से देवदासी के लिए वस्त्र भिजवाएं थे एवं उन्होंने अनुदेश दिया था कि देवदासी रंगहीन श्वेत वस्त्र धारण नहीं करेगी,वें उनके भिजवाएं हुए आभूषण एवं वस्त्र ही धारण करें,वो एक देवदासी है तो इसका ये तात्पर्य नहीं कि उसे साज सज्जा का अधिकार नहीं,वो प्रभु की सेवा कर रही थी तो उनके लिए तो वो श्रृंगार कर ही सकती है,उसके मनोभाव तो पहले ही वैरागी हो चुकें है इसलिए श्रृगांर करने से उसके मन मस्तिष्क पर कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला और राजमाता वसुन्धरा का ये अनुदेश भूकालेश्वर जी भी टाल ना सके एवं उन्होंने मनोज्ञा को पूर्ण श्रृंगार करने की अनुमति दे दी....
कुछ समय पश्चात राजमाता वसुन्धरा और उनके पुत्र बसन्तवीर अपने अपने रथ में सवार होकर मंदिर के भव्य प्राँगण में उपस्थित हुए,उनके वहाँ उपस्थित होते ही जय...जयकार का उच्च स्वर गूँजने लगा,राज्यवासियों ने उनके स्वागत में जय...जयकार कहना प्रारम्भ कर दिया,तब राजमाता वसुन्धरा ने अपने हाथ से सांकेतिक भाषा में सभी को शांत रहने को कहा एवं धन्यवाद भी प्रकट किया.....
राज्यवासी अपने यथास्थान पर शांत होकर बैठ गए,भूकालेश्वर जी आएं और उन्होंने राजमाता वसुन्धरा एवं राजकुमार बसन्तवीर से अपना अपना स्थान गृहण करने को कहा,दोनों ने अपना अपना स्थान गृहण तत्पश्चात मनोज्ञा मंदिर में उपस्थित हुई,संगीतकारों ने संगीत प्रारम्भ किया,मृदंगवादक बड़ी ही तन्मयता से मृदंग बजाने लगा और मनोज्ञा ने ईश्वर के समक्ष कुछ पुष्प समर्पित करने के उपरान्त अपना नृत्य प्रारम्भ किया....
मनोज्ञा की पहली झलक देखकर ही राजमाता वसुन्धरा किसी सोच में डूब गईं,उन्होंने सोचा यदि उनकी पुत्री आज जीवित होती तो इतनी ही बड़ी होती,कितनी सुन्दर कन्या है,कितना तेज है इसके मुँख पर,आत्मविश्वास से भरी आँखें एवं लावण्य से परिपूर्ण यौवन,नृत्य करती है तो दामिनी सी कौंध जाती है,धन्य है वो माँ जिसने इसे जन्म दिया....
एवं बसन्तवीर तो मनोज्ञा की सुन्दरता पर ही मोहित हो बैठा,उसने आज के पहले कभी भी इतनी सुन्दर युवती नहीं देखी थी,वो उसे देखकर अपनी सुध बुध खो बैठा था,उसके हृदय में मनोज्ञा ने एक विशेष स्थान बना लिया था....
लाभशंकर और देवव्रत दोनों ही अधिक दूर खड़े थे,क्योकिं साधारण लोगों को मंदिर के अधिक समीप आने की अनुमति नहीं थी,वे उस राज्य के भी नहीं थे,केवल उस राज्य में कुछ दिनों के लिए ही ठहरे थे इसलिए अपना अधिक अधिकार भी नहीं जता सकते थे,किन्तु देवव्रत ने पुनः राजमाता वसुन्धरा को देखा तो उसका मन पुनः विचलित हो उठा और उसने राजमाता वसुन्धरा से मिलने का मन बना लिया,इधर लाभशंकर ने जैसे ही मनोज्ञा को पूर्ण श्रृंगार एवं रेशमी वस्त्रों में देखा तो देखता ही रह गया क्योंकि इससे पहले उसने मनोज्ञा को सदैव साधारण वस्त्रों में ही देखा था,अन्ततः उसने मन में सोचा कि सब व्यर्थ था वो कितना भी प्रेम क्यों ना कर ले मनोज्ञा से किन्तु वो तो उससे दूर ही भागती है,उसे और उसके प्रेम को वो सदैव अनदेखा करती आई है,मैं उसे किस प्रकार समझाऊँ कि मैं उससे कितना प्रेम करता हूँ.....
उधर भूकालेश्वर जी ने जब देखा कि राजमाता वसुन्धरा मनोज्ञा को एकाग्रचित होकर देख रहीं हैं तो उन्हें कुछ भय सा प्रतीत हुआ कि कहीं कोई उनसे उनकी पुत्री को छीन ना ले,किन्तु सच्चाई भी तो यही थी कि मनोज्ञा राजमाता वसुन्धरा की ही पुत्री थी.....
ये सभी विचार सबके मन में आवागमन कर रहे थे,इन्हीं विचारों के आवागमन के मध्य नृत्य समाप्त हुआ और मनोज्ञा अपने निवासस्थान की ओर बढ़ गई.....
तब राजमाता वसुन्धरा ने भूकालेश्वर जी से कहा.....
बहुत ही अच्छी शिक्षा दी है आपने अपनी पुत्री को,मेरा तो मन प्रसन्न हो गया उसका नृत्य देखकर....
जी!सब ईश्वर की कृपा है,भूकालेश्वर जी बोले...
जी!ईश्वर की कृपा तो है ही,परन्तु इसमें आपका भी तो योगदान है,राजमाता बोलीं।।
जी!मेरी पुत्री की योग्यता के समक्ष मेरा योगदान तो कुछ भी नहीं,भूकालेश्वर जी बोले...
जी!ये तो है कि आपकी पुत्री में योग्यताएं तो कूट कूट कर भरीं हैं,मैनें ऐसा रूप-सौन्दर्य,ऐसा लावण्य,ऐसी कला कभी नहीं देखी,राजमाता वसुन्धरा बोलीं।।
ये तो आपकी सुन्दर दृष्टि है जो आपने उसमें गुण ही गुण देखें,भूकालेश्वर जी बोलें।।
जी!उसमें गुण ही गुण समाएं हैं इसलिए तो दिखते हैं,राजमाता बोली।।
तब तक बसन्तवीर भी अपनी राजमाता के समीप आ पहुँचा और बोला....
माताश्री!मैं नृत्यांगना को भेंट देना चाहता था,उनके सुन्दर नृत्य के लिए....
इसकी कोई आवश्यकता नहीं है राजकुमार!भूकालेश्वर जी बोले...
आवश्यकता क्यों नहीं है पुजारी जी?उन्होंने इतना सुन्दर नृत्य किया भेंट पाना तो उनका अधिकार है,बसन्तवीर बोला।।
वो अभी व्यस्त होगी,दिनभर की थकी भी है उसे विश्राम करने दीजिए,भेंट और कभी दे दीजिएगा,भूकालेश्वर जी बोलें...
ठीक है जैसा आप ठीक समझें और इतना कहकर बसन्तवीर वहाँ से चला गया...
राजमाता से भूकालेश्वर जी अभी भी वार्तालाप कर रहे थें,तभी लाभशंकर एवं देवव्रत वसुन्धरा के समक्ष उपस्थित हुए,अब वसुन्धरा एवं देवव्रत एक दूसरे के आमने सामने थे,अब वसुन्धरा ने जैसे ही देवव्रत को स्वयं के समक्ष देखा तो मूर्छित होकर गिर पड़ी,देवव्रत ना तो वसुन्धरा से कुछ कह पाया और ना ही कुछ पूछ पाया एवं उस समय राजमाता ये भी घोषणा नहीं कर पाईं कि इस राज्य के उत्तराधिकारी बसन्तवीर होगें,राजमाता का स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण उन्हें शीघ्रतापूर्वक राजमहल ले जाया गया....
राजमहल पहुँचकर जब राजमाता की चेतना जागी तो वें अत्यन्त विदीर्ण हो उठीं,उनकी आँखों में केवल अश्रु थे एवं वें सोच रही थी कि इसका तात्पर्य है कि उसका देवनारायण जीवित है,यदि वो जीवित था तो अभी तक कहाँ था,मैनें कितनी प्रतीक्षा की उसकी....हाय....अब मैं क्या करूँ?उससे कैसें कहूँ कि मैं उसे भूली नहीं हूँ,मैं तो उसे कभी भुला ही नहीं सकीं,मैं उससे अभी भी उतना ही प्रेम करती हूँ,इन सभी विचारों के संग राजमाता रोती रहीं....
इधर देवव्रत भी चिन्तित था,उसे आशा थी कि आज वो राजमाता वसुन्धरा से मिलकर अपने सभी प्रश्नों के उत्तर पा लेगा किन्तु ऐसा हो ना सका,वो भी बिना भोजन किए ही धर्मशाला के कक्ष में जाकर विश्राम करने लगा,वो किसी भी स्थिति में अब वसुन्धरा से मिलना चाहता था,उसे निंद्रा भी नहीं आ रही थी,उसके मस्तिष्क को विचारों ने आकर घेर लिया था....
इधर लाभशंकर मनोज्ञा के पीछे पीछे उसके निवासस्थान जा पहुँचा,निवासस्थान पर मनोज्ञा के अलावा घर पर कोई और नहीं था क्योंकि पुजारी भूकालेश्वर जी तो मंदिर में भोज की ब्यवस्था देख रहे थें,मनोज्ञा ने अभी अपना श्रृंगार नहीं उतारा था और वो दर्पण में स्वयं को निहार रही थीं,तभी वातायन से ही लाभशंकर बोला....
दर्पण!क्या देख रही हो सुन्दरी?मुझसे पूछो ना कि आज तुम कितनी सुन्दर लग रही हो....
तुम!यहाँ क्या कर रहे हो?मनोज्ञा ने पूछा।।
अपनी प्रिऐ से अपने हृदय की बात कहने आया था,लाभशंकर बोला।।
त़ो शीघ्रता से कहो,मेरे पास अधिक समय नहीं है,मनोज्ञा बोली।।
तनिक गृह के भीतर आने दो तभी तो कह पाऊँगा,लाभशंकर बोला।।
तनिक रूको मैं किवाड़ खोलती हूँ और इतना कहकर मनोज्ञा गृह के किवाड़ खोलने जा पहुँची,उसने किवाड़ खोले तो लाभशंकर उसके समक्ष ही खड़ा था,जब मनोज्ञा कुछ ना बोली तो उसने स्वयं कहा....
भीतर आने को नहीं कहोगी,
अब आ भी आओ,आरती उतारकर भीतर बुलाना पड़ेगा क्या?मनोज्ञा बोली।।
ना!उसकी आवश्यकता नहीं है प्रिऐ!लाभशंकर बोला....
ये प्रिऐ...प्रिऐ...क्या लगा रखा है?मेरा नाम मनोज्ञा है,मनोज्ञा बोली।।
मुझे ज्ञात है प्रिऐ!लाभशंकर बोला।।
पुनः प्रिऐ!मनोज्ञा बोली।।
तो क्या कहूँ तुम्हें,तुम ही बताओ,लाभशंकर ने पूछा।।
कुछ भी नहीं,मैं तुम्हारी कोई नहीं,मनोज्ञा बोली।।
अपने हृदय से पूछो कि वो क्या कहता है?लाभशंकर ने कहा।।
वो वही कहता है जो मेरा मस्तिष्क कहता है,मनोज्ञा बोली।।
ये तुम्हारी भूल ही प्रिऐ!उसे दिशा भ्रम है,लाभशंकर बोला।।
मुझे कोई भ्रम नहीं है,मनोज्ञा बोली।।
अच्छा!एक बात कहूँ,लाभशंकर बोला।।
हाँ!कहो!मनोज्ञा बोली...
आज तुम अत्यधिक सुन्दर लग रही हो,किन्तु....ये कहते कहते लाभशंकर रुक गया...
किन्तु क्या?आगें भी बोलो,मनोज्ञा बोली.....
मैं कुछ कहूँगा तो तुम क्रोधित हो जाओगी,लाभशंकर बोला।।
नहीं हूँगी क्रोधित बोलों....मनोज्ञा बोली।
नहीं होगी ना क्रोधित,लाभशंकर बोला....
नहीं...हूँगी...बोलो भी,मनोज्ञा बोली....
ठीक है तुम कहती हो तो कह देता हूँ और अन्ततः लाभशंकर ने मनोज्ञा के समीप जाकर उसके माथे पर चुम्बन लिया और बोला....
मैं तुमसे अत्यधिक प्रेम करता हूँ,तुम मुझे प्रेम करो या ना करो किन्तु मैं तुम्हें यूँ ही सदैव प्रेम करता रहूँगा, इतना कहते कहते लाभशंकर की आँखों से दो अश्रु टपक गए और वो गृह से बाहर चला गया और मनोज्ञा पाषाण की भाँति उसे देखती रही...
किन्तु वो वो भी स्त्री थी पाषाणी कैसे बन सकती थी,उसकी आँखों से भी दो अश्रु टपक गए और फिर वो चिल्लाई.....शंकर...शंकर...ठहरो....
शंकर ने पीछे मुड़कर देखा तो गृह के द्वार पर खड़ी मनोज्ञा उसे पुकार रही थी,वो मनोज्ञा के पुकारने पर उसके समीप जाकर बोला....
क्या हुआ?कुछ कहना चाहती हो,मुझे ज्ञात है कि क्या कहोगी?यही ना कि तुम एक देवदासी और तुमने सौगन्ध ली है ईश्वर की सेवा करने की।।
नहीं!मैं ये नहीं कहना चाहती,मनोज्ञा बोली....
तो क्या कहना चाहती हो?शंकर ने पूछा..
तुम्हें कुछ दिखाना चाहती हूँ,मनोज्ञा बोली....
क्या दिखाना चाहती हो?शंकर ने पूछा....
भीतर चलो,मनोज्ञा बोली....
दोनों पुनः मनोज्ञा के कक्ष में पहुँचें,मनोज्ञा ने लकड़ी का एक सन्दूक खोलकर उसने में से एक रेशमी वस्त्र पर लिखा हुआ पत्र निकाला और शंकर को देते हुए बोली....
ये मैनें तुम्हारे लिए लिखा था....
शंकर ने उसे खोलकर पढ़ा,जो कि एक प्रेमपत्र था,उसे पढ़कर लाभशंकर की आँखों में पुनः अश्रु आ गए और वो बोला....
मुझसे इतना प्रेम करती हो तो कहा क्यों नहीं?
नहीं कह सकती और ना ही कह पाऊँगी,मुझे क्षमा कर दो,मनोज्ञा बोली....
मुझे अब कोई आपत्ति नहीं,मैं कभी भी हठ नहीं करूँगा मेरा प्रेम स्वीकार करने की....शंकर बोला।।
मुझे तुमसे यही आशा थी,मनोज्ञा बोली.....
इसी बीच शंकर को खोजते हुए देवव्रत भी वहाँ आ पहुँचा,उसने पुकारा....
शंकर...शंकर कहाँ हो पुत्र?

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....