सौगन्ध--भाग(६) Saroj Verma द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सौगन्ध--भाग(६)

मनोज्ञा ने कलश लेकर गृह में प्रवेश किया एवं कलश को आँगन में रखकर वो शीघ्रता के संग अपने कक्ष में चली गई,वो अपने बिछौनें पर जाकर बैठ गई,उसकी आँखों से निरन्तर अश्रुधारा बह रही थी,उसने धीरे से मन में कहा....
क्षमा करना शंकर!मैं तुमसे प्रेम नहीं कर सकती,मैं विवश हूँ।।
तभी एकाएक बाहर से मनोज्ञा को भूकालेश्वर जी ने पुकारा.....
मनोज्ञा....मनोज्ञा पुत्री!कहाँ हो तुम?
जी!अभी आई पिताश्री!इतना कहकर वो अपने कक्ष से निकलकर बाहर आई और भूकालेश्वर जी से पूछा।।
जी!पिताश्री!कहिए क्या बात है?मनोज्ञा ने पूछा।।
मैं ये कह रहा था पुत्री कि सम्पूर्ण राज्य में ये चर्चा हो रही है कि राजमाता वसुन्धरा वापस यहाँ आने वालीं हैं,भूकालेश्वर जी बोलें...
तो क्या वें इस राज्य में नहीं रहतीं?मनोज्ञा ने पूछा।।
नहीं!पुत्री!वें चन्दनगढ़ में रहतीं हैं क्योंकि वहाँ उनकी ससुराल है?भूकालेश्वर जी बोलें।।
तो इस राज्य को कौन चलाता है?मनोज्ञा ने पूछा।।
उनके सेनापति कुशालबलि इस राज्य का कार्यभार सम्भालते हैं,भूकालेश्वर जी बोलें।।
तब तो राजमाता वसुन्धरा के लिए दो राज्यों को सम्भालना कठिन होता होगा,मनोज्ञा बोलीं।।
अब तो उनके पुत्र बसन्तवीर अपनी शिक्षा पूर्ण करके आ रहें हैं और वों ही इस राज्य को सम्भालेगें,इसलिए तो राजमाता यहाँ आ रहीं हैं,कदाचित वें यही घोषणा करने वालीं हैं कि अब से इस राज्य के उत्तराधिकारी बसन्तवीर ही होगें,भूकालेश्वर जी बोलें।।
ओह...तो ये बात है किन्तु आप किस कार्य हेतु यहाँ आएं थे?मनोज्ञा ने पूछा।।
ये बताना तो मैं भूल ही गया,राजमाता सर्वप्रथम राजकुमार को लेकर मंदिर के दर्शन करने आएंगीं,उनके स्वागत हेतु तुम्हें मंदिर में नृत्य प्रस्तुत करना होगा,मैं यही बताने आया था,भूकालेश्वर जी बोलें।।
तो क्या मुझे उनके स्वागत हेतु कुछ विशेष प्रकार का नृत्य प्रस्तुत करना होगा?मनोज्ञा ने पूछा।।
ना!पुत्री!तुम्हें किसी विशेष प्रकार का नृत्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि तुम स्वयं में विशेष हो ,अद्भुत हो,मेरी पुत्री जैसी पुत्री इस संसार में किसी की भी नहीं,तुम इतनी सुशील एवं आज्ञाकारी हो,मैं तुम्हें पाकर धन्य हो गया,तुम्हारी जैसी पुत्री तो केवल सौभाग्यशालियों व्यक्तियों को ही प्राप्त होती है,भूकालेश्वर जी बोले।।
धन्य तो मैं हो गई पिताश्री!आप जैसे पिता को पाकर,आपके दिए हुए संस्कारों के पद्चिन्हों पर चलकर ही मैंनें इतनी ख्याति पाई है,ये सब आपका ही मार्गदर्शन है जो आपके आशीर्वाद स्वरूप मैनें गृहण किया और मुझे सभी के हृदयों में स्थान मिला,मनोज्ञा बोलीं।।
जीती रहो पुत्री!सदैव प्रसन्न रहों,भूकालेश्वर जी बोलें।।
जी!पिताश्री तो अब मेरे प्रति आपकी प्रशंसा पूर्ण हो गई हो तो ये बता दीजिए की भोजन में क्या बनाऊँ?मनोज्ञा ने पूछा।।
पुत्री!आज तो हलवा-पूरी खाने का मन हो रहा है और साथ में सीताफल की तरकारी हो तो आनन्द ही आ जाएं,भूकालेश्वर जी बोले...
और कुछ कि बस इतना पर्याप्त होगा,मनोज्ञा ने पूछा।।
बस...बस..इतना पर्याप्त होगा,अब इससे अधिक कुछ और खाने की कामना हुई तो उदर प्रश्न करने लगेगा कि वाह....बाबा जी बुढ़ौती आ गई परन्तु जिह्वा को अभी भी स्वादिष्ट व्यंजनों की आशा है और इतना कहकर भूकालेश्वर जी हँस पड़े....
और साथ में मनोज्ञा भी हँस पड़ी ,अन्ततः मनोज्ञा बोली.....
तो मैं पाकशाला में भोजन पकाने जा रही हूँ,आप तब तक प्रतीक्षा कीजिए,इतना कहकर मनोज्ञा पाकशाला की ओर जाने लगी तो भूकालेश्वर जी बोलें...
ठहरो पुत्री!अभी कुछ और कहना था....
मनोज्ञा रुकी और भूकालेश्वर जी से पूछा....
जी कहिए!पिताश्री।
वो पता नहीं किसी स्थान से एक नवयुवक आया है,रात्रिभर मंदिर के समीप वाले वृक्ष के तले विश्राम करता रहा,मैं जब प्रातः वहाँ से निकल रहा था तो उसने मेरे चरणस्पर्श किए तब मैनें उससे पूछा....
पुत्र!कौन हो तुम एवं यहाँ किसलिए आएं हो,तब वो बोला....
महात्मा!मुझे किसी के दर्शनों की अभिलाषा है,ये मुझे ज्ञात है कि वो इसी राज्य में है परन्तु मैं उसे अभी तक खोज नहीं पाया हूँ,जब उसे खोज लूँगा तो यहाँ से चला जाऊँगा,तो क्या तब तक मैं इस वृक्ष तले अपना डेरा डाल सकता हूँ?
मुझे उसकी बात सुनकर उस पर दया आ गई और मैनें उससे पूछा....
तुम्हारा नाम क्या है पुत्र?
तब वो बोला...
जी!मेरा नाम लाभशंकर है।।
तब मैनें उससे पूछा....
तुम क्या मुझे उसका पता बता सकते हो ताकि मैं भी उसे खोजने में तुम्हारी सहायता कर सकूँ।
तब वो बोला....
नहीं!महात्मा!ये कार्य मैं ही करूँगा,मैं आपको अन्यथा कष्ट नहीं देना चाहता,
इसमें कष्ट कैसा पुत्र? मैं इस मंदिर का पुजारी हूँ,लोगों की सहायता करना ही मेरा धर्म और कर्तव्य है,मैनें कहा।।
तब वो बोला...
नहीं महात्मा!आप तो केवल मुझे इस वृक्ष के तले शरण लेने की आज्ञा दे दीजिए,यही पर्याप्त होगा मेरे लिए,
तब मैनें उससे कहा...
तुम आज से इस वृक्ष के तले नहीं,मंदिर की धर्मशाला में रहोगें,
ये सुनकर वो अत्यधिक प्रसन्न हुआ एवं बोला....
महात्मा!आपका अत्यधिक धन्यवाद,आपने मेरी समस्या का समाधान कर दिया....
तब मैनें उससे कहा....
तुम अपने भोजन की चिन्ता भी मत करना,तुम इस राज्य के अतिथि हो इसलिए तुम्हारा भोजन मेरी पुत्री दे जाया करेगी....
ये सुनकर वो बोला.....
आपने मेरी प्रसन्नता को दोगुना कर दिया महात्मा!
और प्रसन्नता के कारण उसने मेरे चरणस्पर्श कर लिए,अन्ततः मैं वहाँ से चला आया...
भूकालेश्वर जी की बात सुनकर मनोज्ञा खींझ उठी और बोली...
पिताश्री!ये आपने क्या किया?किसी अपरिचित के लिए भला मैं क्यों भोजन पकाऊँ?
ऐसा मत बोल पुत्री!वो हमारा अतिथि है,पुण्य मिलेगा उसके लिए भोजन पकाकर॥
तब मनोज्ञा बोली...
मुझे कोई पुण्य नहीं कमाना पिताश्री!
ना !पुत्री!अतिथि का सत्कार करना हमारी परम्परा है,जाओ शीघ्र ही भोजन पकाओ एवं उस अतिथि को देकर आओं वो भूखा बैठा होगा,भूकालेश्वर जी बोलें...
जी! और मनोज्ञा उतरा हुआ मुँख लेकर पाकशाला की ओर चली गई....
कुछ ही समय पश्चात मनोज्ञा ने भोजन पका लिया एवं भोजन परोसकर भूकालेश्वर जी को पुकारा....
पिताश्री!आइएँ भोजन परोस दिया है...
भूकालेश्वर जी पाकशाला में आएं और मनोज्ञा से बोलें...
पहले तुम लाभशंकर को भोजन देकर आओं,इसके पश्चात ही मैं भोजन करूँगा....
अब मनोज्ञा को अपने पिता की आज्ञा का पालन करना ही पड़ा एवं उसने एक पीतल की थाली में भोजन परोसा,उसे एक पत्तल से ढ़का साथ में एक पीतल के छोटे से कलश में जल भरकर वो लाभशंकर को भोजन देने चल पड़ी,वो धर्मशाला में पहुँची तो लाभशंकर के अतिरिक्त वहाँ और भी अतिथि थे,वो लाभशंकर के निकट जाकर उससे बोलीं....
ये तुम्हारा भोजन,थाली और कलश अपने पास ही रखना ,मैं रात्रि का भोजन देने आऊँगी तो तब संग लेती जाऊँगी,
मनोज्ञा को अपने समक्ष देखकर,लाभशंकर के मुँख पर उस समय अत्यधिक प्रसन्नता के भाव आ गए एवं वो अभिनय करते हुए बोला...
देवी मनोज्ञा!आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया ?मुझे बुला लिया होता,
जी!मैं अपरिचितों को अपने गृह में आने का अवसर ही नहीं देती,मनोज्ञा बोली।।
किन्तु ह्रदय में आने का अवसर तो देतीं हैं ना! लाभशंकर बोला।।
अपनी मर्यादा में रहिए,आपको अनुचित सीमाएं लाँघने की कोई आवश्यकता नहीं है,मनोज्ञा बोली....
जी!मैं तो आपका कार्य सरल करने का प्रयास कर रहा था,लाभशंकर बोला।।
रहने दीजिए,इसकी कोई आवश्यकता नहीं है,मैं कठिन कार्य भी सरलतापूर्वक कर सकती हूँ,मनोज्ञा बोलीं..
जी!मुझे ये ज्ञात है,मैं भी आपसे वही सीखने का प्रयास कर रहा हूँ क्योंकि मुझे भी एक कठिन कार्य पूर्ण करना है,लाभशंकर बोला।।
जी!मुझे आपका वो कठिन कार्य ज्ञात करने की कोई जिज्ञासा नहीं,मनोज्ञा बोली।।
सम्भवतः कदाचित वो आपको ज्ञात है,मुझे आपको बताने की आवश्यकता नहीं है,लाभशंकर बोला।।
मेरे पास आपके संग वार्तालाप करने का व्यर्थ समय नही है,मैं जा रही हूँ और इतना कहकर मनोज्ञा वहाँ से चली आई...
और लाभशंकर उसे जाते देखकर मुस्कुराता रहा,मनोज्ञा के जाने के पश्चात लाभशंकर ने भोजन किया और राज्य भ्रमण हेतु निकल गया एवं उधर लाभशंकर की माता माया की दशा बिगड़ी जा रही थी,उसका पुत्र जो अभी तक ना लौटा था,तब वो देवव्रत के पास जाकर बोलीं...
भ्राता देवव्रत!शंकर तो अभी तक ना लौटा,ना जाने वन में उसके संग क्या हो रहा होगा?यदि वो बुढ़िया कोई पिशाचिनी हुई और उसने मेरे पुत्र का रक्त पी लिया तो,मुझे तो अत्यधिक भय हो रहा है आप उसके पास शीघ्रतापूर्वक जाइएं और ज्ञात कीजिए कि वो कैसा है?
आप व्यर्थ ही चिन्ता कर रहीं हैं माया बहन!देवव्रत बोला...
कुछ भी हो,आप उसके पास जाइएं और उसे संग लेकर ही लौटिएगा,माया बोली।।
जी!माया बहन!मैं शीघ्र ही जाता हूँ,देवव्रत बोला।
ठीक है तो मैं मार्ग के लिए कुछ भोजन बाँध देती हूँ शंकर भी खा लेगा,माया बोली...
जी!ये ठीक रहेगा,देवव्रत बोला।।
और देवव्रत माया के कहें अनुसार उस राज्य की ओर चल पड़ा,किन्तु ना तो उसे उस राज्य के विषय में कुछ ज्ञात था और ना ही वहाँ का मार्ग ज्ञात था,किन्तु तब भी वो लाभशंकर को खोजने निकल पड़ा,अत्यधिक लम्बा मार्ग तय करने के उपरान्त,उसे दूर ही एक भव्य सेना दिखी तथा उसके मध्य में दो हाथी थे जिस पर सोने के सिंहासन थे ,उन में से एक सिंहासन पर महिला थी एवं दूसरे सिंहासन पर कोई नवयुवक था,देवव्रत ने अनुमान लगाया कि कदाचित ये कोई राजकुमार है एवं संग में ये इनकी माता होगीं....
जब वो सेना देवव्रत के अत्यधिक समीप से निकली तो देवव्रत ने एक सैनिक से पूछा.....
ये सेना कहाँ जा रही है और ये कौन हैं?
तब वो सैंनिक बोला......
ये चन्दनगढ़ के राजकुमार हैं एवं अब अपने ननिहाल का राजपाठ सम्भालने जा रहें हैं,इनके संग इनकी माता जी हैं....
तो क्या मैं भी आप लोंगो के संग चल सकता हूँ?देवव्रत ने पूछा।।
जी!महोदय!अवश्य चलिए,हमारे राज्य आकर आपका मन प्रसन्न हो जाएगा,वो सैनिक बोला...
और फिर देवव्रत उन सबके संग चल पड़ा.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....