प्रेम गली अति साँकरी - 29 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 29

29

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“बैठो न ! कुछ काम है क्या? ” शीला दीदी ने सामने मेज़ पर रखे हुए ग्लास में से बची पानी की घूँट भरने का प्रयत्न करते हुए मुझसे कहा | 

“हाँ, है भी और नहीं भी----उत्पल आने वाला है। उसी के साथ स्टूडियो में बिज़ी होना है लेकिन अभी उसे आने में कुछ देर है ----” कहते हुए मैंने अपने आपको कुर्सी में से निकाला और मेज़ पर पानी से भरे जग को उठाकर उनके खाली ग्लास में पानी भर दिया| 

“थैंक--यू---” उन्होंने धीरे से कहा और ग्लास उठाकर दो/तीन लंबे घूँट पानी के मुँह में भर लिए| अब वे पहले से बेहतर दिखाई दे रही थीं | 

“हाँ, आएगी रतनी---शायद कुछ देर हो जाए | आज डॉली स्कूल नहीं गई, शायद उसे लेकर आए---”उन्होंने धीरे से कहा| 

“क्या हुआ ? आज सोकर नहीं उठ पाई डॉली ? ” मैं जानती थी, कुछ तो हुआ है | 

“सोई ही कहाँ, बेचारी बच्ची ! हमारे यहाँ किसी को चैन की नींद तभी आएगी जब दुनिया से जाएंगे ---”उन्होंने धीरे से कहा | 

मैं कुछ नहीं बोली, जानती हूँ उनका स्वभाव !अब अपने आप ही बताएंगी, मेरे पूछने की ज़रूरत नहीं थी | उनकी आँखें अब काफ़ी हद तक सूख चुकी थीं | 

“आज बाप-बेटे में बुरी तरह ठनक गई | ”

“सुबह-सुबह? ”मैंने पूछा | 

“हमारे यहाँ जो भी कांड होता है अधिकतर सुबह-सुबह, भगवान को याद करने के समय ही तो होता है| शाम को या रात के पहले पहर में हमारा लाटसाहब घर में होता कब है ? जब वह आएगा, उसके बाद ही तो उसका दरबार खुलेगा | ”उन्होंने भुनभुनाकर कहा, फिर बोलीं;

“अच्छा है----रात में देर से आता है , नहीं तो बच्चों को और हमें घर में रोटी भी न खाने दे---!”

हाँ, मैंने भी महसूस किया था, सड़क पार के इस घर में अधिकतर आधी रात के बाद या पौ फटने पर ही उपद्रव होता था | कई बार मेरे मन में भी यह विचार आया था जिसको मैंने अपने भीतर ही किसी कोने में समेट लिया था| फिर भी मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि उन पर डाली | 

“महाराज ने दिव्य का पासपोर्ट देख लिया----–फिर तो बस ---हमें तो पहले ही पता था, मना भी किया था दिव्य को, यहीं रख दे ---”

“हाँ—पहले तो यहीं था फिर अचानक ----” मुझे पता था, उसका पासपोर्ट अम्मा ने उसे यह कहते हुए दिया था कि वह संस्थान की अपनी अलमारी के लॉकर में ही रख दे तो सुरक्षित रहेगा | यहाँ एक कमरा अलग से छात्रों के सामान के लिए बना हुआ था जिसमें लॉकर जैसे खाने बनवाए गए थे | उसको भी एक लॉकर मिला हुआ था जिसमें वह उन चीज़ों को रख देता जो उसे घर ले जाने में पिता की नज़र पड़ने का डर रहता और उसकी चाबी भी यहीं संस्थान के चौकीदार के पास जमा करवा देता जिसके पास काफ़ी चाबियाँ ड्रॉअर में रहतीं जिसमें वह लॉक करके रखता था | ज़रूरत पड़ने पर उससे चाबी लेकर, काम करके फिर से चाबी वहीं रखवा देते सब लोग! दिव्य भी ऐसे ही करता---फिर? 

“नहीं, अचानक तो नहीं, कल उसे किसी काम के लिए पासपोर्ट की ज़रूरत पड़ी | अम्मा से भी उसने कहा कि वह काम करके बाद में इंस्टीट्यूट में ही लाकर रख देगा-----”

“थोड़ी देर हो गई थी, थक गया होगा, उसने सोचा होगा सुबह रख देगा | अपनी अलमारी में उसने कपड़ों के ऊपर ही रख दिया, शायद यही रहा था कि सुबह जल्दी उठकर रख जाएगा | पर नींद आ गई उसे और उसके बाप ने घर में घुसते ही न जाने क्यों आते ही उसकी अलमारी खोली और खोलते ही धड़ाका मचा दिया | उसके हाथ में जैसे साँप आ गया हो!”

शीला दीदी ने एक लंबी साँस ली जैसे ‘आह’ उनके दिल से निकली थी | आँसु के कतरे फिर से उनकी आँखों में झिलमिलाने लगे जैसे लेकिन वे नीचे नहीं गिरे, वहीं ठिठककर रह गए| आँसु भी सोचते होंगे आखिर कब तक बहेंगे? सब ही की कोई न कोई सीमा तो होती है, आँसुओं की भी तो होगी | 

“उस समय तो अजीब सी हालत हो गई होगी----” मैंने जगन की खुंखार तस्वीर की कल्पना कर डाली थी | 

“हाँ, वो तो था ही लेकिन उससे बड़ी बात ये हुई कि दिव्य गहरी नींद से उठकर आ गया और चिंघाड़ते हुए अपने बाप के हाथ से अपना पासपोर्ट छीन लिया| आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ हो कि जगन के सामने कोई बोला हो ---सिवा मेरे लेकिन आज तो ये गजब ही हो गया ---” शीला दीदी जैसे घबराई हुई किसी दूसरे ही लोक से बात कर रहीं थीं | 

सच में मुझे बहुत गुस्सा आने लगा था। कमाल के लोग हैं !आखिर क्यों उससे इतना डरकर रहते हैं? कमाते खुद हैं, सारे घर का खर्चा चला खुद रहे हैं, और उसकी सारी बदतमीज़ियाँ झेल रहे हैं और रतनी? उसकी क्या हालत हो रही है !बरसों से अपने बदन को तुड़वाती, नुचवाती रही है | उसका कुसूर हो या नहीं, लाल तो उसके गाल ही होने हैं | उसका बस यही कसूर था कि वह जगन जैसे आदमी को ब्याही गई थी| ये भी तो शीला दीदी का ही किया धरा था | बेशक उन्हें कितना ही अफसोस हो लेकिन अब भी कहाँ कोई सही कदम उठा पा रहे थे ये लोग !

मैं जानती हूँ कि उनके परिवार में मेरा ऐसा कोई रोल नहीं था या उनके परिवार के बीच में कूदने का मुझे कोई अधिकार नहीं था लेकिन जब इतना करीबी रिश्ता हो जाए तब सब एक-दूसरे के लिए अपने आप ही ज़रूरत बन जाते हैं| जैसे शीला दीदी का होना हमारे संस्थान या कहूँ परिवार की ज़रूरत ही तो बन ही गया था| 

“सबसे बड़ी बात जिसकी मुझे चिंता है कि दिव्य ने गुस्से में जगन के हाथ से पासपोर्ट छीन लिया, जगन ने गुस्से में जेब से पाउआ निकाला और गटक गया | दिव्य ने बाप के हाथ से उस छोटी सी बॉटल को छीनकर बाहर फेंक दिया| ऐसा कभी भी नहीं हुआ था | जगन ने पास खड़ी रतनी के बाल पकड़कर खींचे तो दिव्य का गुस्सा सातवें आसमान पर चल गया | अपनी माँ के सामने खड़े होकर वह बाप पर फिर से चिल्लाया और ज़ोर से बोला कि अगर उसे पता चला कि उसने घर पर किसी पर भी हाथ उठाया, खासकर माँ पर तो वह अपने बाप के हाथ तोड़ डालेगा | ” फिर वे चुप सी हो गईं | 

पता नहीं मुझे यह सब सुनकर चिंता की जगह सुकून सा मिला था | शीला दीदी की आँखों में और चेहरे पर मुझे चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं| 

“इतने हंगामे के बाद घर के बाहर तमाशा न होता, ये तो हो ही नहीं सकता था ---हर बार की तरह भीड़ जमा हो गई थी और अपनी नींद खराब होने पर लोग लानतें, मलामतें करने लगे थे| जगन बकबक करते हुए एक ओर को लुढ़क गया | मैं और रतनी उसे उठाकर पलंग पर लिटा रहे थे | 

इतना सुनते ही मेरे मन ने फिर विद्रोह किया कि पलंग पर क्यों, बाहर उठाकर नहीं फेंक दिया? मुझे तो जगन के नाम से ही बहुत खुँदक होती थी| मेरा बस चलता तो----देखा, शीला दीदी कुछ कह रही थीं | 

“कुछ ही मिनट हुए होंगे, देखा तो दिव्य घर पर नहीं था| हम दोनों बाहर आए, अभी तक तो उनींदे लोगों की भीड़ भी तितर-बितर नहीं हुई थी| लोगों ने ही बताया कि दिव्य घर से बाहर निकल गया था | अब बताओ, बच्चा कहाँ गया होगा ? ” उनके आँसू फिर से बहने लगे थे | 

ओह !असली बात यह है!हम कभी-कभी बिना बात को पूरी तरह समझे हुए निष्कर्ष पर पहुँचने लगते हैं | मेरे जिस चेहरे पर शीला दीदी की बात सुनकर सुकून पसर गया था, वहीं अब उनकी बात सुनकर मेरा चेहरा चिंता में तब्दील हो गया था | इस प्रकार दिव्य का घर छोड़कर जाना चिंता का विषय तो था ही |