प्रेम गली अति साँकरी - 30 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 30

30

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मन उद्विग्न हो उठा, मन में कहीं था कि शीला दीदी से प्रमेश के बारे में बात करूंगी | हम अधिकतर सभी बातें साझा कर लेते थे लेकिन इतनी बड़ी बात सुनकर मैं सकते में आ गई थी | उस पार के शोर-शराबे, लड़ाई-झगड़े तो एक नॉर्मल बात थी लेकिन एक तो अभी तक दिव्य पिता के सामने बोला नहीं था जो मुझे भीतर से परेशान करता रहता था | पिता था तो क्या उसने अपने बच्चों के लिए अपनी कोई ड्यूटी की थी? वह तो उसने जो भी किया, जिस प्रकार भी किया अपने खुद के शारीरिक सुख के लिए किया था | उसे न कभी कोई सरोकार अपनी बीबी से रहा, न बच्चों से और बहन से तो कभी था ही नहीं| जब तक मुझे पता चला कि दिव्य आज अपने पिता के हाथ से अपना पासपोर्ट छीन सका और उससे भी अधिक कि अपनी माँ के लिए उसने स्टैप लिया, मुझे एक तसल्ली सी हुई लेकिन जब असली बात का पता चला कि वह कहीं चल गया है मेरे दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं | हाय ! कहाँ होगा लड़का ? मन में झंझावात से उठने लगे | 

किसी एक सोच से मन के भाव कितने बदल जाते हैं और अचानक ही मन की जमीन कैसी तपने लगती है कि अभी फट जाएगी ! मेरे मन का यह हाल था तो उसकी माँ और बूआ के मन का क्या हाल हो रहा होगा ? मैंने शीला दीदी के कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना देने का प्रयास किया था लेकिन उस समय मेरे मुख से एक भी शब्द नहीं निकला था | मैं बस भीतर से काँप रही थी और सोच रही थी कि आखिर दिव्य गया कहाँ होगा ? 

मैं बाहर निकल आई थी और बरामदे में चलते हुए फिर से उसी स्थान पर पहुँच गई जहाँ आचार्य प्रमेश कक्षा ले रहे थे | वे अपने कार्य में इतने तल्लीन थे कि उन्होंने मुझे दोनों बार आँखें उठाकर नहीं देखा था| वहाँ तक आते-आते फिर से मेरे मन का मौसम बदलने लगा| यद्यपि मेरे मन में एक तरफ़ दिव्य कोने में चिंता का विषय था लेकिन अब प्रमेश को देखते ही उसके लिए सोचने लगा | कमाल था !कितनी जल्दी फिसल रहा था मन !मुझे लगा, ये प्रमेश आचार्य के रूप में ही ठीक है, मेरे साथ वह रोमांटिक हो सकेगा क्या? मैं शरीर से पहले दिल को जीतने में विश्वास करती थी | प्रमेश तो इनवॉल्व था अपने छात्रों के साथ | क्या कभी ऐसा हो जाए कि वास्तव में वह मेरे जीवन का अहम हिस्सा बने तो क्या वह मेरा मित्र भी बन सकेगा ? यह बहुत महत्वपूर्ण था मेरे लिए कम से कम !मैं उसको देखकर पहचानने की कोशिश कर रही थी और वह मेरी पहचान में ही नहीं आ रहा था| कितनी बार उसके सामने से निकली हूँ, उसकी दृष्टि ने कभी कोई जिज्ञासा नहीं दिखाई जबकि उसकी बहन ने उससे इस विषय में कुछ बात तो की ही होगी न मेरे बारे में !मेरा मन उचाट होने लगा, इतना कलाप्रिय लेकिन सूखा सा इंसान !

मैं उस स्थान को पार करके दूसरी ओर मुड़ चुकी थी, अभी तक उत्पल आ गया होगा, मन की सोच फिर बदल गई थी | सामने से मुझे रतनी आती हुई दिखाई दे गई| धीरे-धीरे कदमों से वह शायद शीला दीदी के पास जा रही थी| वह अकेली थी| मन में आया कि डॉली के बारे में पूछूँ लेकिन समझ में नहीं आ रहा था, सो उसके पास पहुँचकर भी मैंने उससे कुछ नहीं पूछा | 

“कैसी हैं रतनी ? ” मैंने खामाखां कुछ पूछने के लिए पूछा| कैसी हो सकती है? मन ने ही उत्तर दिया| उसकी आँखें और पलकें सूजी हुई थीं और वह मुझे दिखाने के लिए अब तक अपने चेहरे को मुस्कान से ढक चुकी थी| आखिर कितने खेल खेलेगा इंसान खुद से ही? 

“शीला दीदी, चैंबर में ही हैं –” मैंने उसके बिना पूछे ही कहा | 

उसने एक धीमी सी मुस्कान मुझ पर फेंकी और आगे बढ़ गई| शायद उसे यह भी अजीब लग रहा होगा कि आज मैंने उससे कुछ क्यों नहीं पूछा ? आएगी तो है ही फिर से मेरे पास, वह भी जानती थी और मैं भी| 

हम मन में प्रश्न समेटे अपने-अपने रास्तों पर निकल गए| हमारा संस्थान गोलाई में बना हुआ था जिसके तीन ओर कमरे बने हुए थे, बीच में वह बड़ा गोल कमरा था जिसमें लाल मखमल का कालीन था और गुरु जी के लिए विशेष स्थान बना हुआ था | बराबर वाले प्लॉट में रतनी की ड्रेस-डिज़ाइनिग की खासी बड़ी सी फैक्ट्री थी लेकिन जिसमें उत्पल बैठता था, वह स्टूडियो इसी गोल वाले स्थान पर था| वह काफ़ी बड़ा था लेकिन अंदर की ओर जाते हुए | उसमें आगे से पीछे तक अंदर ही अंदर कई कमरे बने हुए थे जबकि बाहर से वह देखने में एक आम कमरा लगता था| उसको इसी प्रकार डिज़ाइन किया गया था | 

मैं वहाँ तक पहुँच चुकी थी | अंदर से बोलने की आवाज़ आ रही थी यानि वह और उसका असिस्टेंट आ चुके थे | मैंने धीरे से दरवाज़ा नॉक किया | 

“प्लीज़ कम इन----” यह उत्सव की आवाज़ थी, बड़ी विनम्र, सरलता, सहजता से भरी !

वैसे भी वह जानता ही होगा कि मैं थी क्योंकि मुझसे मिलने का समय पहले से तय हो चुका था| नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था कि मेरे लिए उसने इतनी सॉफ़्ट वॉइस में ‘कम इन’ कहा होगा | वह था ही ‘सॉफ़्ट स्पोकन’ !वह मुझसे जो भी बात करता बहुत मीठे स्वर में करता | वैसे अधिकतर सब ही के साथ उसका स्वभाव बड़ा सरल, सहज था लेकिन जबसे मेरे साथ उसकी मित्रता शुरू हुई थी तबसे मुझे लगता, वह अधिक ही कोमल भाषी हो गया था | 

मुझे लगता, आदमी अपने सिर पर कितनी जल्दी सींग उगा लेता है जैसे मैंने उगा रखे थे| इतनी उम्र तक अपने लिए एक अच्छा यानि स्नेहिल मित्र का चयन तक तो कर नहीं सकी थी| सोचते हुए मैंने स्टूडियो का दरवाज़ा खोल दिया था| अंदर ए.सी की शीतलता पसरी हुई थी | वहाँ उत्पल के अतिरिक्त कोई नहीं था| वह प्रोजेक्टर पर अपनी एडिट की हुई फ़िल्म देख रहा था| मुझे उसकी ही आवाज़ आ रही थी | मुझे देखते ही उसने रिमोट से प्रोजेक्टर बंद कर दिया और मुझ पर एक प्यारी सी मुस्कान फेंकी| 

मैं अचानक फिर खुद को महत्वपूर्ण समझने लगी लेकिन फिर वही ---एक ओर सामने मुस्कान भरा उत्पल का युवा चेहरा था तो दूसरी ओर आचार्य प्रमेश का गंभीर आचार्यों वाला प्रौढ़ चेहरा| 

“आइए न --वहीं क्यों रुक गईं आप ?” उत्पल ने कहा तो मेरा भटकता मन फिर से उसके बारे में सोचने लगा| मेरे मन में उसे देखकर जो भाव जागते थे वे प्रमेश को देखकर तो क्षण भर भी नहीं हुए थे| 

“मैं कॉफ़ी के लिए आपकी राह देख रहा था ---” उसने मेज पर रखे इंटरकॉम से दो कॉफ़ी का ऑर्डर भी कर डाला | 

मैं उसके सामने वाली कुर्सी खिसकाकर बैठ चुकी थी | 

‘कैसी चमकदार और उत्साह भरी आँखें थीं उसकी जो मुझ पर चिपकी हुई थीं| ’

“क्या हुआ ?” उसने मेरा चेहरा देखकर तुरंत पूछा | 

वह इतनी जल्दी मेरे भीतर के झंझावात को पहचान लेता था, यही तो दोस्ती की पहली पहचान थी, मेरे मन में!

कॉफ़ी आ चुकी थी ----मैंने उत्पल के सामने अपने मन का पूरा झंझावात उलट दिया | उसके चेहरे पर भी उदासी उतरने लगी |