बंधन प्रेम के - भाग 12 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बंधन प्रेम के - भाग 12

अध्याय 12
डायरी के इन पृष्ठों की हालत बुरी थी।एक दो पृष्ठ कहीं-कहीं से फटे हुए थे.... मेजर विक्रम ध्यान से देख रहे थे और शांभवी ने डायरी को अपने सीने से लगा कर रखा था.... लेकिन मजबूत ह्रदय कर उसने इसके पन्ने पलटते हुए आगे की कहानी बताना शुरू किया। इसके कुछ पृष्ठ अधूरे ही रह गए थे... शायद आगे मेजर शौर्य ने जो किया वह डायरी के इन पन्नों में दर्ज नहीं हो पाया.... बाद में मिलने वाली सूचनाओं और मेजर विपिन द्वारा बताई जानकारी के आधार पर शांभवी ने कहना शुरू किया.....
(36)
........ मेजर शौर्य बड़ी मुस्तैदी के साथ अपना कर्तव्य निभा रहे थे........
"ओह!ये क्या हो रहा है?" मेजर शौर्य बुदबुदाए।
दूरबीन पर बहुत दूर, उसे काले धब्बे दिखाई पड़े।ये धब्बे आगे बढ़ रहे थे ।वह समझ गया।ये सशस्त्र घुसपैठिये हैं।वे सरहद पार करने की फिराक में हैं। उसका माथा ठनका। इस बार वे इस जर्जर पुल का उपयोग कर घुसेंगे।उसने दूरबीन हटाई ।अनुमान लगाया, वे कम से कम डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर होंगे। शौर्य सिंह ने धैर्य के साथ काम लिया। सबसे पहले उसने सेटेलाइट फोन को हाथ में लिया लेकिन आज यह काम ही नहीं कर रहा है। अपने साथियों को ढूंढने के लिए वह अगर वापस चला गया तो 10 से 15 मिनट में ये घुसपैठिये यहाँ तक पहुंच जाएंगे और पुल पार कर लेंगे।वह यह जगह छोड़ भी नहीं सकता था ।निकटतम चौकी करीब तीन किलोमीटर दूर है। वहां तक अगर वह दौड़ लगाए तो भी उसे पहुंचने में ही काफी समय लग जाएगा और पुल पार करने के बाद घुसपैठिये कहां जाएंगे और उनके इरादे क्या हैं,इसे समझ पाना अभी मुश्किल था।सिक्का सिंह के पास राइफल थी ।गोलियां थीं और कुछ विस्फोटक भी थे।
उसने आसपास देखा ।एक जगह अपेक्षाकृत सबसे ऊंची थी और वहां एक पेड़ की आड़ ली जा सकती थी। वह अपना बैग लेकर वहीं चला गया।थोड़ी देर में उसने पोजीशन ले ली। उसकी राइफल का मुंह पुल की ओर था। वह दूरबीन से बराबर उनकी पोजीशन देख भी रहा था। वे संख्या में 25 के आसपास थे। उसने थोड़ा और ध्यान से देखा। इस जत्थे के पीछे 20 से 25 और लोग लगभग आधा किलोमीटर के फासले पर इनके पीछे भी थे। शत्रु थे लगभग 50 और वह खुद अकेला था।
(37)
पुल के पास पहुंचने पर इनके ऊपर दूर से ओपन फायर करना मूर्खता थी।पुल पर विस्फोटक बांधकर दूर से विस्फ़ोट कराना भी संभव नहीं था। उसके पास टाइमर नहीं था और टाइमर होने पर भी आतंकी ठीक कब पुल के पास पहुंचेंगे, इसका अंदाजा लगाना कठिन था। शौर्य सिंह सोच में पड़ गया। एक काम हो सकता है-अगर किसी तरह वह इस पुल को ही उड़ा दे तो इसे पार करने के लिए आ रहे गैंग को कम से आधे घंटे के लिए रोका जा सकता है। नाले का पानी अत्यंत गहरा था। हां मंजे हुए तैराकों के लिए इसे पार करना मुश्किल भी नहीं था। पुल पर दूर से विस्फोटक फेंकने के भी अपने खतरे थे, क्योंकि दूरी से निशाना चूकने का डर था।संध्या काल की क्षीण हो चुकी रोशनी, अब धीरे-धीरे रात की कालिमा में बदलने लगी थी। चिनार के पेड़ निस्तब्ध थे।हवा ठिठक गई थी और पंछियों की आवाजें भी खामोश थीं।
मेजर शौर्य ने एक बार पर्स से निकालकर फोटो में अपने माता-पिता को छूकर उनके स्पर्श का अहसास किया।अंगूठी को छूकर उसने शांभवी को अपने में अनुभव किया।अब अगले ही पल वह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण पाकर छोटे जंग की तैयारी करने लगा। उसने दौड़ लगाई और छिपते-छिपते पुल के ठीक इस सिरे तक पहुंच गया। बैग से निकाल कर उसने विस्फोटक अपने शरीर से बांधा। पुल के आसपास अंधेरा पसरा था।वह लकड़ी के पुल पर लटककर नीचे झूलने लगा और हाथ से ही एक-एक इंच आगे बढ़ने लगा। घुसपैठियों की आवाजें भी अब पास आने लगीं।पुल के अत्यंत जर्जर होने के बारे में उसका अनुमान गलत निकला। यह पुल उतना कमजोर नहीं था और अगर लोग इसे एक बार में पार करना चाहें तो एक साथ 15 से 20 लोगों का भार यह उठा सकता है। उसे इस बात पर आश्चर्य भी हो रहा था कि घुसपैठ के इस बड़े संभावित साधन इस पुल को नष्ट करने की तरफ हमारी सेना में से किसी का ध्यान अब तक क्यों नहीं गया।
शौर्य सिंह धीरे-धीरे पुल से लटककर रेंग सा रहा था।वर्षों पहले का वही दृश्य फिर उसकी आंखों में घूमने लगा।..........पापा, आप तो लड़ाई के मैदान में जाते हैं।वहाँ.............. सैनिक घायल होता है। और पापा जब किसी की मौत होती है तो मरने वाले को बहुत कष्ट होता होगा ना?...... उनके मरने के बाद उनके परिवार का क्या होता है? उसकी देखभाल कौन करता है?......
गहरे शाम के धुंधलके में शौर्य सिंह के कानों में अपने पिता की आवाज गूंजने लगी.......बेटा उनकी देखभाल देश करता है।सेना करती है और देश की जनता करती है और फिर मातृभूमि के लिए शहीद होने का सौभाग्य बहुत कम लोगों को मिलता है।....... दृश्य बदलता है......माँ दीप्ति नौजवान शौर्य से बार-बार कह रही है..... नहीं बेटा मैं तुम्हें सेना में नहीं जाने दूंगी। तुम्हारे पिता की तरह मैं तुम्हें नहीं खोना चाहती हूं...... अब स्याह हो चुके शाम के अंधेरे में शांभवी की छवि उभरती है......... शौर्य सिंह शांभवी से कह रहा है.......
तो शायद तुम इस बात से डर रही हो कि आर्मी वालों की जान हथेली पर होती है..... शांभवी बड़े अर्थपूर्ण भाव से शौर्य की आंखों में आंखें जमाए हुए ढाढ़स भरे स्वर में कहती है........... यह जानते हुए भी कि तुम सेना में जा रहे हो, मैंने तुम्हें ही अपना सब कुछ माना है। और .......... और तुम जा भी रहे हो तो देश के लिए ही.......अपना ख़याल रखना............. माता-पिता और शांभवी के ये वाक्य उसके कानों में अब गड्डमगड्ड होने लगे थे।सांझ ने अब रात की चादर ओढ़ ली है।शौर्य सिंह अब पुल के मध्यभाग के निकट ही पहुंच चुका था और पास आ रहे घुसपैठियों की हलचल भी तेज होने लगी थी।
अब कुछ ही मिनटों में शौर्य सिंह सरकते हुए पुल के ठीक नीचे, बीचों-बीच पहुंच चुका था। लटके रहने में भी खतरा था इसलिए वह अपने एक हाथ से सहारा देकर और धीरे-धीरे दोनों पैरों को ऊपर कर पुल की निचली सतह से चिपक गया।इससे पुल पर तेजी से आते लोगों को नीचे उसके होने का अहसास नहीं होगा।कुछ ही मिनटों में लोग सरहद के उस पार से पुल के ऊपर चढ़ने लगे।उनके पैरों की आवाजें हथौड़ों की तरह उसके कानों को भेद रही थीं। शौर्य सिंह पूरी तरह से संयत था। उसकी हथेली से उंगलियों का थोड़ा हिस्सा पुल के ऊपर भी पहुंच गया था।उंगलियां लकड़ी की तख्तियां को पकड़े हुए थी। एक दो जूते उसकी उंगलियों को भी कुचलने लगे थे। वह दर्द से बिलबिला उठा लेकिन मुंह से उसने उफ की भी आवाज नहीं निकाली।
जब उसे लगा कि अधिकतम लोग पुल पर हैं तो किसी तरह उसने अपने एक हाथ को पुल से मुक्त किया और फिर अपने शरीर से बंधे उस विस्फोटक को उड़ा दिया।जोर का धमाका हुआ ।अधिकांश घुसपैठिए उसी पुल के साथ भरभरा कर पानी में गिर पड़े ।शौर्य सिंह भी पानी में गिर पड़ा।मेजर शौर्य सिंह देश की रक्षा करते हुए विस्फोट में शहीद हो चुका था। उसकी दैवीय आत्मा आसमान में ऊपर उठने लगी।ऊंचाई से उसने उस पुल पर लगी आग को देखा। घुसपैठिए झुलस रहे थे ।कुछ पानी में पड़े थे तो कुछ जमीन पर छिटके थे। लगभग 500 मीटर दूर पीछे वाली घुसपैठियों की टुकड़ी में इस विस्फोट से बदहवासी पैदा हो गई। चिल्लाते हुए वे पुल की ओर भागे। उधर पास वाली अग्रिम चौकी में भारतीय सैनिकों और शौर्य सिंह के साथ गश्त पर निकले उसके साथियों को विस्फोट की आवाज सुनाई दी। एक साथ अनेक जवान अपने-अपने हथियार और गोला-बारूद लेकर जंगल में आवाज की दिशा में दौड़ पड़े..........शौर्य सिंह की पवित्र आत्मा आकाश में ऊपर, ........और ऊपर उठने लगी,उस निश्छल आत्मा को संतोष था....... देश की माटी का कर्ज चुकाने का............

(38)
लगभग तीस से पैंतीस आतंकवादी ,शौर्य सिंह द्वारा किए गए विस्फोट से मारे जा चुके थे।कुछ वापस भाग खड़े हुए।पांच या छह आतंकी तैर कर किसी तरह भारतीय सीमा के अंदर घुसे भी तो वहां पहुंच चुके सेना के जवानों ने उन्हें आसानी से ढेर कर दिया।शौर्य सिंह के झुलसे शरीर की पहचान उसकी जेब में रखे पर्स से मिली फोटो से हुई,जिसमें उसके माता-पिता; दीप्ति और शहीद विजय भी थे।वहां पहुँच चुके मेजर विपिन ने शौर्य सिंह की अंगुली में शांभवी की पहनाई सगाई की अंगूठी को भी पहचान लिया था।
इस समाचार के मिलने के बाद से दीप्ति के आँसू नहीं थम रहे थे।वहीं शांभवी का घर संसार बसने से पहले ही उजड़ गया और वह सुहागन बनने के पूर्व ही वैधव्य जीवन जीने की तैयारी करने लगी।तभी उसे कुछ ध्यान आया और उसने शौर्य सिंह का दिया हुआ मुहरबंद लिफाफा खोला और पत्र निकाल कर पढ़ा। पत्र पढ़ते-पढ़ते शांभवी रोने लगी और कई बार भावुक हो गई।
शौर्य ने पत्र की आखिरी पंक्तियों में लिखा था:-
"मेरी शांभवी,
………...अगर मैं कभी युद्ध के मोर्चे से वापस ना लौटूँ तो अनंत काल तक मेरी राह न देखना, अगर तुमने अंतरात्मा से मुझसे प्रेम किया है,तो मेरी याद में कुंवारी ही न रह जाना, शादी अवश्य कर लेना। तुम हमेशा सिविल सर्विस में चयनित होना चाहती थीं ना?इसके लिए अवश्य प्रयास करना शांभवी…….और नहीं तो केवल मेरी खातिर.... वहीं अगर मैं सही सलामत लौटूँ और हमारी शादी हो जाती है,तो भी इस पत्र को हमेशा संभाल कर रखना..... जीवन के उस पार से तुम्हारे लिए मेरा संदेश समझकर......फिर उसके बाद कोई घटना घटती है तो भी तुम दूसरी शादी अवश्य कर लेना...... क्योंकि जीवन हमेशा चलते रहने और आगे बढ़ने का ही दूसरा नाम है ........प्लीज़.....मेरी खातिर।.....क्योंकि एक बार सेना में शामिल हो जाने के बाद हम लोगों का स्थायी प्रेम,मातृभूमि के लिए हर क्षण प्राणों के उत्सर्ग हेतु तैयार रहने की उस सर्वोच्च भावना से हो जाता है, इसलिए शायद मैं जीवन भर तुम्हारा साथ ना दे पाऊं।.......हमेशा अपना ध्यान रखना।
तुम्हारा..........
सौ टके का खरा सिक्का
शौर्य"

............ यह कथा सुनते - सुनते मेजर विक्रम कई बार भावुक हुए। बीच-बीच में शांभवी की आंखों से आंसू निकलते रहे। पूरी कहानी सुनाते - सुनाते शांभवी की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली.... मेजर विक्रम शांभवी के पास पहुंचे और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- खुद को संभालो शांभवी...... मेजर साहब की यह डायरी और उनका लिखा गया वह पत्र दोनों ....न सिर्फ तुम्हारे लिए बल्कि हम सबके लिए एक अमूल्य धरोहर है.....मेजर विक्रम ने मन ही मन मेजर शौर्य को श्रद्धांजलि दी..... शांभवी बड़ी देर तक सुबकती रही........

(क्रमशः)
योगेंद्र