Bandhan Prem ke - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

बंधन प्रेम के - भाग 3


बंधन प्रेम के: अध्याय 3

पिछली भाग में आपने पढ़ा कि मेजर विक्रम ने शांभवी के समक्ष अपने संदेशों के माध्यम से अपना हृदय उड़ेल कर रख दिया। शांभवी इस संदेश पर आगे क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करती है और हालात इन दोनों को देश के इस अशांत राज्य की घटनाओं में कहां तक पहुंचाते हैं, यह जानने के लिए पढ़िएगा, इस लघु उपन्यास का यह तीसरा अध्याय:-

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शांभवी के पिता कर्नल राजवीर को सेना से रिटायर हुए लगभग 2 साल हो गए हैं। वे सैनिकों के कल्याण के लिए गठित की गई एक राष्ट्रीय स्तर की समिति में महत्वपूर्ण पद पर हैं। इस काम के सिलसिले में अगले दिन वे आर्मी हेड क्वार्टर के लिए नई दिल्ली चले गए।वहाँ उनके रिश्तेदार के यहां एक पारिवारिक कार्यक्रम भी था,इसलिए शांभवी की मम्मी भी उनके साथ चली गईं। शांभवी पिछले कई दिनों से सिविल सर्विसेज की तैयारियों के लिए अपना मन बनाने की कोशिश कर रही थी। उसने मम्मी और पापा से कहा कि इस बार वह साथ नहीं जाएगी, घर में रहेगी।जाते समय शांभवी ने पापा को पुस्तकों की एक लिस्ट दे दी थी,जिसे उन्हें देश के उस महानगर के कनॉट प्लेस स्थित एक प्रसिद्ध बुक शॉप से खरीदना था। अगले दो-तीन दिनों तक शांभवी का मेजर विक्रम से कोई संपर्क नहीं हो पाया।

शांभवी के मम्मी और पापा काम पूरा होने के बाद लौटने वाले थे।उनकी फ्लाइट देश की राजधानी से इस राज्य की राजधानी तक थी। इसी बीच विक्रम का फोन आया।जब उसे पता लगा कि शांभवी के मम्मी पापा स्टेट-कैपिटल होते हुए शहर लौटेंगे तो उसने फोन पर ही प्रस्ताव रखा- चलो शांभवी हम उन्हें ले आते हैं। हाईवे खुला है और हम उन्हें लेकर यहां पहुंच जाएंगे। इसी बहाने हम दोनों की एक ट्रिप भी हो जाएगी।

शांभवी ने फोन पर ही कहा-...... और मेजर साहब आप की छुट्टियों का क्या होगा?

- शांभवी मैं तुम्हें बताना भूल गया कि मेरी लंबी छुट्टियां शुरू हो गई हैं। कल से मैं घर में ही हूं।

- ओह मेजर साहब तो छुट्टियों के मजे चल रहे हैं।

- हां आजकल फुर्सत ही फुर्सत है और बहुत दिनों बाद मुझे मम्मी और पापा के साथ रहने का मौका भी मिला है। बस घर पहुंच कर व्यस्त हो गया था इसलिए तुम्हें फोन नहीं कर पाया।

- ….और सॉरी विक्रम जी ,मैं भी आपको फोन नहीं कर सकी क्योंकि मैं आपके प्रस्ताव का जवाब देने की स्थिति में नहीं थी।

- लगता है मेरी बातें तुम्हें पसंद नहीं आईं…. मैं शायद ज्यादा भावुक हो गया था और मैंने बिना तुम्हारा मन जाने तुम पर अपना अधिकार जमाने की कोशिश कर दी थी।

- ओह विक्रम जी, तो वे सारी बातें यथार्थ नहीं थीं वो सब आप भावुकता में कह गए …..पर एक तरह से अच्छा ही हुआ…….

- अरे शांभवी…. तुम मुझे गलत समझ रही हो। मेरी बातें मेरे अंतर्मन से,मेरी आत्मा से, मेरे हृदय से …….मेरे पूरे अस्तित्व से निकली थीं... मेरा यकीन मानो….

भावुक होते हुए शांभवी ने कहा-

जानती हूँ विक्रम जी, मैंने आपके गहरे प्रेम को उस दिन व्हाट्सएप पर आपके संदेश से ही महसूस कर लिया और यह भी कि आपकी आत्मा कितनी पवित्र है, कितनी निश्छल है….. और आप जिसे मिलोगे, वह कितनी भाग्यशाली होगी….. और इस बहादुर फ़ौज़ी में एक कवि का हृदय है जो इस कायनात और आसमान से चांद तारे और न जाने कितनी सारी उपमाएँ ढूँढ़ सकता है…. अपनी प्रिया के लिए…….

मेजर विक्रम ने आहें भरते हुए कहा- अरे यह सब तुम्हारे लिए है, और किसी दूसरे का प्रश्न कहां से आएगा हमारे बीच……

शांभवी ने समझाते हुए कहा- अब आपके इसी प्रस्ताव पर तो आपसे चर्चा करना चाहती हूं मेजर साहब….. लेकिन यह एक दो वाक्यों में नहीं होगा…. इसके लिए मुझे थोड़ा समय चाहिए आपका…... हम साथ बैठेंगे और बातें करेंगे,ताकि मैं कुछ बातें स्पष्ट कर सकूँ…..

मेजर विक्रम- अब तुम चाहे जो बातें जब कर लो शांभवी लेकिन प्लीज मेरा दिल मत तोड़ना…….. अगर तुम्हें जीवन भर को मेरा साथ पसंद नहीं तो कोई बात नहीं शांभवी…. बस तुमसे प्रेम के भ्रम में ही मैं अपनी पूरी जिंदगी गुजार दूंगा और तुम्हारे सपनों के घर संसार में मैं कभी दखल नहीं दूंगा…….. जैसे रात में आसमां में दिखाई देने वाला चांद उसका नहीं होता लेकिन चकोर को यह भ्रम होता है कि चांद बस उसका है।मैं उसी चकोर की तरह अपनी सारी ज़िंदगी गुजार दूंगा तुम्हारे नाम……

शांभवी खिलखिलाई- अरे मेजर साहब, आप फिर से भावुक हो गए…... अब क्या कल एयरपोर्ट चलने की तैयारी नहीं करनी है? अपनी कार तो तैयार रखिए।

मेजर विक्रम- अरे वाह,तो तुम्हारे साथ कहीं बाहर जाने का यह सौभाग्य कल ही मिल रहा है शांभवी….. यह तो मेरे मन का हुआ।

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मेजर विक्रम की कार एयरपोर्ट की ओर दौड़ रही थी। मेजर विक्रम कार ड्राइव कर रहे थे और शांभवी उनके बगल वाली सीट पर थी। रास्ते में जैसे जन्नत का नजारा बिखरा हो…….…….शांभवी ने नीले रंग का फ्रॉक सूट पहना था……. मेजर विक्रम भी आज जींस और टीशर्ट के कैजुअल यूनिफॉर्म में थे।

मेजर विक्रम ने बात शुरू की -शांभवी यहां से स्टेट कैपिटल का एयरपोर्ट लगभग सवा सौ किलोमीटर है और हमें 3 से 4 घंटे लगेंगे।

- हां विक्रम जी, दूरी तो है लेकिन हम सुबह ही निकल पड़े हैं और जब हमने मन में ठान ली है तो पहुंच जाएंगे जितनी जल्दी हो सके।

-हाँ कम से कम हम इतने घंटे साथ तो रहेंगे….

-मेजर साहब,यह 3-4 घंटे भी कोई आसान नहीं हैं। आप बोर ना हो जाएं मेरे साथ….

- शांभवी, तुम साथ हो तो बोर होने का सवाल ही नहीं है बल्कि यह तो मेरे जीवन की सबसे खूबसूरत यात्रा सिद्ध होगी।

रास्ते में पहाड़ियों और घाटियों की खूबसूरती देखते ही बनती थी। यह पतझड़ का मौसम है और नवंबर का महीना।अभी शीत आई नहीं है । इस हिमालयी राज्य में दिसंबर के आखिरी से दो-तीन महीनों का कड़ाके की ठंड और सब कुछ जमा देने वाला शीतकाल शुरू होगा।ठंड में बर्फ की चादरों से ढँके मैदानों और पहाड़ियों में अभी तो बर्फ़ बहुत कम दिखाई दे रही है।रास्ते में हरियाली दिखाई देती है। कहीं-कहीं पर सेब के बागान दिखाई देते हैं।चेरी ,अखरोट और बादाम के बाग भी हैं।

शांभवी ने कहा- भगवान का शुक्र है कि इस बार समय पूर्व बर्फ़बारी नहीं हो रही है नहीं तो सारे बागान बर्बाद हो जाते हैं ।

गाड़ी ड्राइव करते हुए ही मुस्कुरा कर विक्रम ने कहा- सही कहा शांभवी। ये बागान हमारे स्टेट की समृद्धि के सबसे बड़े स्रोत हैं और इनमें हमारे किसानों की जी तोड़ मेहनत छिपी हुई है।काश बर्फबारी अपने मौसम में ही शुरू हो ।

हँसते हुए शांभवी ने कहा -हां और अभी तो हम दोनों के लिए भी अच्छा है कि कहीं रास्ते में बर्फबारी शुरू ना हो जाए और हम कहीं फंस न जाएँ।

यह हाईवे भी खूबसूरत बना हुआ है। रास्ते में इक्का-दुक्का गाड़ियां आ -जा रही हैं। बीच-बीच में छोटे-छोटे गांव हैं जैसे खूबसूरती के सागर के बीच बने हुए छोटे छोटे टापू।पहाड़ी ढलानों पर घास के छोटे-बड़े मैदान हैं। एकदम घास की मखमली चादर बिछी हुई।मंत्रमुग्ध कर देने वाला नैसर्गिक सौंदर्य। रास्ते में चिनार के रंग-बिरंगे ऊंचे पेड़।पतझड़ में चिनार के इन पेड़ों के सूखे पत्तों ने अपने आसपास की धरती को ढक लिया है और इन पत्तों के रंगों के कारण एक चमकदार सुनहरी आभा चहुँओर बिखरी है। पतझड़ में चिनार के हरे पत्ते लाल हो जाया करते हैं ।पार्श्व में हिमालय के श्वेत शिखर तो मानों कार के साथ-साथ ही चल रहे हों। अनेक जगहों पर कार रोककर दोनों ने ढेर सारी सेल्फियां लीं।खाने पीने का सामान उनके साथ था। फिर भी यात्रा थोड़ी लंबी हो जाने पर सड़क किनारे के एक-दो ढाबों में उन्होंने कभी मीठा कहवा,तो कभी चाय पी। नाश्ता भी किया।उनका इरादा एयरपोर्ट से मम्मी पापा को रिसीव करने के बाद शहर के ही रेजिडेंसी रोड के किसी रेस्तरां में साथ मिलकर भोजन करने का था।

(क्रमशः)

( शांभवी और मेजर विक्रम की इस कहानी में आगे क्या होता है, यह जानने के लिए पढ़िए इस कथा का अगला भाग आगामी अंक में)

(यह एक काल्पनिक कहानी है किसी व्यक्ति,समुदाय,घटना,संस्था,स्थान आदि से समानता संयोग मात्र है।)

डॉ.योगेंद्र


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