एक रूह की आत्मकथा - 58 Ranjana Jaiswal द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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एक रूह की आत्मकथा - 58

स्वतंत्र अभी तक कोमा में था ।ब्रेन के ऑपरेशन के बाद भी उसे होश नहीं आया था। उसकी एक अंगुली भी नहीं हिली थी।वह बेंटिलेटर पर ही था।डॉक्टर उमा को दिन में तीन से चार बार उसके पास जाने की इजाज़त दे रहे थे।जाने से पहले वह अपने कपड़ों के ऊपर से ही सिर से पैर तक सिनेजाइटर किए गए प्लास्टिक ड्रेस पहनती, फिर स्वतंत्र के बेड तक जाती।वह हल्के हाथों उसके चेहरे की नारियल से सफाई करती।डॉक्टर के हिसाब से ऐसा करने से मरीज को लाभ हो सकता था ।पत्नी का जाना -पहचाना स्पर्श उसके ब्रेन को जगा सकता था और उसे कोमा से मुक्त कर सकता था।पहले स्वतंत्र की नाक और मुँह नलियां डालकर फीड कराया जाता था।चार दिन बाद स्वतंत्र के गले के पास छोटा- सा ऑपरेशन कर जगह बनाई गई।वहां पर मोटी सिरिंज लगाकर फीड कराने की व्यवस्था बनाई गई।सिरिंज से डॉक्टर द्वारा दिया गया तरल भोजन बूंद -बूंद करके स्वतंत्र की बॉडी में उतारा जाता ,ताकि शरीर को आवश्यक पोषक तत्व मिलते रहें। उमा घण्टों बैठी यह काम करती रहती।उसमें ग़जब का धैर्य आ गया था।
उमा को समझ में नहीं आ रहा था कि इस स्थिति का सामना कैसे करे?वो तो अमृता और समर का साथ न मिलता तो वह अपना धैर्य खो देती।उन दोनों ने न केवल उसकी सास नंदा देवी और दोनों बच्चियों को सम्भाला था बल्कि हॉस्पिटल का सारा खर्च भी उठा रहे थे।वह उनका कर्ज़ कैसे उतारेगी?
उसने सोच लिया कि स्वतंत्र के ठीक होते ही वह कामिनी प्राइवेट लिमिटेड को ज्वाइन कर लेगी ताकी अपने परिवार को संभाल सके।
अमृता रोज़ ही हॉस्पिटल आती।उसके लंदन जाने का समय भी नजदीक आ रहा था।जाने से पहले वह सब कुछ व्यवस्थित कर देना चाहती थी।उसने रूचि और सुरुचि के लिए बोर्डिंग स्कूल का फार्म भी मंगा लिया था। नानी नंदा देवी को उसने उमा की नौकरी के लिए कन्विंस कर लिया था।
नन्दा देवी यूँ तो उमा से नाराज़ थी पर वह उन्हें दुधारू गाय लग रही थी।कहावत में तो दुधारू गाय की लात को भी भली कहा जाता है।अगर उमा सामान्य बहू होती तो वे उसे कोसतीं।उसे स्वतंत्र के एक्सीडेंट का जिम्मेदार ठहरातीं पर वे देख रही थीं कि उमा के कारण ही उनके बेटे का बेहतर इलाज संभव हो रहा है।उनका बुढापा भी तो वही संभालेगी।स्वतंत्र से उन्हें पहले से ही कोई उम्मीद नहीं थी ।इस समय तो खैर वह मौत के कगार पर है।उनकी बड़ी बेटी माया अपनी सास राजेश्वरी देवी के कारण उनकी कोई मदद नहीं कर पा रही है।दो दिन उनके साथ रहकर ही वह अपने ससुराल वापस चली गई।उसे अपने भाई की चिंता तो है पर वह उसके लिए कुछ कर नहीं पा रही है।राजेश्वरी देवी उस घर में अपनी बहू को नहीं रखना चाहतीं,जहां समर का आना -जाना है।वे समर को बिल्कुल ही पसंद नहीं करतीं।
उनका बड़ा बेटा और बहू वर्षों बाद विदेश से घर आए थे।रौनक की मृत्यु के समय वे यहीं थे ,फिर गए तो अभी कुछ दिन पहले ही आये हैं।दोनों घर के मामलों से खुद को दूर ही रखते हैं।छोटा बेटा प्रथम भी उन्हें समझ में नहीं आता।जाने अपने दोस्त परम से उसका क्या रिश्ता है कि हर समय उसी से चिपका रहता है।शादी के नाम से भी चिढ़ता है।एक से एक सुंदर लड़कियों के ऑफर को भी ठुकरा चुका है।उन्हें उसकी बहुत चिंता रहती है।कामिनी से उन्हें बहुत उम्मीद थी कि वह जरूर अपने इस देवर के लिए कुछ करेगी पर उसने भी प्रथम को गम्भीरता से नहीं लिया।अक्सर प्रथम के बारे में कुछ कहते- कहते वह हिचक कर रूक जाती थी।ऐसा लगता था कि वह प्रथम का कोई ऐसा रहस्य जानती है,जिसे वे नहीं जानती हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि प्रथम की शादी हो जाए और वे सारी घर- गृहस्थी का भार उसकी पत्नी को सौंपकर निश्चिंत हो जाएं।अपने जीवन का आखिरी पड़ाव वे हरिद्वार या वृंदावन में प्रभु भक्ति करते हुए गुजारना चाहती हैं।अपनी पोती अमृता की उन्हें कोई चिंता नहीं है।वे इस बात को जानती हैं कि समर उसके लिए पिता से बढ़कर है।वह उसके लिए सब कुछ करेगा।वह अमृता के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझता है।वैसे ही अमृता एक होनहार बच्ची है।जल्द ही वह लंदन चली जाएगी फिर और भी योग्य बनकर लौटेगी।कामिनी की वसीयत से वे नाराज हुई थीं पर अब उन्हें लगता है कि कामिनी ने सही फैसला लिया था।अपने बेटे प्रथम के मोह में वे स्वार्थी हो गई थीं।
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अमृता बैलेंटाइन डे के बाद से अमन से नहीं मिली थी।अमन ने भी उसे फोन नहीं किया था और न ही उससे मिलने का प्रयास किया था।वह सोच रही थी कि आखिर ऐसी क्या बात हो गई।वह ठीक तो होगा।वह समर अंकल से उसके बारे में पूछ भी नहीं सकती।जाने वे क्या सोच लें?क्या वह खुद अमन को फोन करे?कहीं वह अन्यथा न ले ले।
रात को जब वह सोने जाती है तो देर तक उसे नींद नहीं आती।वह शीशे में अपने अधरों को देखती है तो उसे अमन का वह चुम्बन याद आ जाता है।अपने जीवन का पहला चुम्बन संसार का कोई भी आदमी नहीं भूल सकता।उफ़,कितना नरम- गरम, मधुर -स्निग्ध और मादक था वह चुम्बन!उस चुम्बन से जैसे उसके शरीर की सारी नसें तरंगित हो गई थीं।उसके अछूते वर्जिन होंठ थरथरा उठे थे।उस दिन के बाद से उसके होंठ और ज्यादा गुलाबी हो गए थे। एकांत होते ही वे होंठ किसी चाह में खुल जाते थे।वह शरमाकर उन होंठों को भींच लेती थी।मन को हिदायत देती थी कि ख़बरदार!पर आवारा मन किसी हिदायत को कब मानता है!
उधर अमन भी परेशान था।अमृता के गुलाबी होंठों का आस्वाद उसके मन को विचलित कर रहा था।वह उससे मिलना चाहता था।उससे बहुत सारी बातें करना चाहता था। उसे बाहों में भरकर जी -भर चूमना चाहता था पर पिता समर से किए गए वादों के खिलाफ़ भी नहीं जाना चाहता था।
अमृता के लंदन जाने का समय ज्यों -ज्यों नजदीक आ रहा था।उसका मन जैसे पगहा तुड़ाकर भागना चाहता था।एक बार ...बस एक बार और वह अमृता से मिल लेता तो शायद उसका बेचैन मन शांत हो जाता।जरूर अमृता भी उसे याद कर रही होगी पर उसने भी तो एक बार भी उसे फोन नहीं किया है।माना कि वह अपने पिता को दिए वचनों से बंधा है पर अमृता तो आज़ाद है।उसे पूरा विश्वास है कि उसके पापा ने अमृता से कोई वचन नहीं लिया होगा और न ही उसे यह बताया होगा कि उन दोनों के बीच की बात वे जानते हैं ।