रेहाना लीला के लिए खुश है कि उसने खुद को 'लड्डू गोपाल' के हाथों समर्पित कर दिया है ।लड्डू गोपाल यानी कृष्ण का बाल रूप।इधर हर दूसरे हिन्दू घर में लड्डू गोपाल पूजे जा रहे हैं। उनके लिए उन घरों में विशेष स्थान निर्धारित है।कहीं वे सिंहासन पर तो ,कहीं झूले पर विराजमान हैं।अपनी सामर्थ्य के हिसाब से उनको जेवर -कपड़ों से सजाया जाता है।जाड़े में गर्म कपड़ों व गर्मी में सूती या रेशमी कपड़े पहनाए जाते है।उनके लिए पर्याप्त रोशनी,हवा,भोजन आदि की व्यवस्था की जाती है।बिल्कुल किसी नन्हे बच्चे की तरह उनकी देखभाल की जाती है।वे औरतें भी,जो अपने घर के बड़े-बूढ़े सदस्यों की अवहेलना करती हैं।समय पर उनके खाने ,-पीने,सोने आदि की व्यवस्था तक नहीं करतीं,वे छोटी -सी बेजान कृष्ण मूर्ति के पीछे दीवानेपन की हद पार कर चुकी हैं।
उसके हमदर्द उसे भी धर्म की शरण में जाने की सलाह देते हैं ।वह देखती है कि निन्यानबे प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी पूजा -पाठ,व्रत- उपवास,नियम -संयम ,देवी -देवता, गुरू-गुरूवाईन में खुद को समर्पित किए रहती हैं । इसमें उन्हें शारीरिक कष्ट तो होता है पर शायद मानसिक संतोष भी मिलता है।
उसे आश्चर्य होता है कि औरतें ये सब कुछ अपने पति- बच्चों,घर -परिवार के लिए करती हैं ,अपने लिए नहीं ।ठंड में नहाकर एकवस्त्रा स्त्रियों को आस -पास के मंदिरों में नंगे पांव पूजन करने जाती देख वह कांप जाती है।आखिर किसलिए वे अपनी जान को इस तरह जोखिम में डालती है।उन्हीं पति -बच्चों के लिए जो गर्म कमरे में रजाई ताने सो रहे हैं।मंदिर से लौटकर वह उनके लिए गर्मा-गर्म चाय- नाश्ता तैयार कर लेती है तब वे उठते हैं।बच्चे स्कूल- कॉलेज और पति काम पर इस तरह जाते हैं, जैसे उस पर अहसान कर रहे हों।जैसे उसी के लिए उन्हें इतना कष्ट उठाना पड़ रहा है। कभी स्त्री बीमार होती है तो घर में चीख -पुकार मच जाती है।घर की सारी व्यवस्था धराशायी हो जाती है। फिर भी वह रोज यह ताना सुनती है कि--'घर में दिन भर तुम करती ही क्या हो?'
'नहीं ...नहीं ,न तो ऐसा परिवार उसे शांति दे सकता है, न ऐसा धर्म,जो स्त्रियों से ही सारी अपेक्षाएं रखता है।'
कभी- कभी वह सोचती है कि स्त्रियों का धर्म के प्रति यह दीवानापन मनोवैज्ञानिक तो नहीं है?कहीं वे अपने किसी गम को भुलाने के लिए तो ऐसा नहीं कर रही हैं ?शायद अपने भीतर के खालीपन को भरने की कोशिश कर रही हों या फिर प्रेम की तलाश उनसे ऐसा करवा रही हो।
कोई दुःख ..कोई निराशा ..कोई हताशा तो जरूर है,जिसका उन्हें भान भी नहीं है। कहीं 'हारे को हरि नाम'जैसी मनः स्थिति तो नहीं ।
स्त्रियां अपने बारे में सोचती ही कहाँ हैं?उन्हें बचपन से ही यही शिक्षा दी जाती है कि तुम कुछ नहीं हो ।तुम्हारा अपना कोई मन ...अपनी कोई चाहत नहीं है।शायद इसीलिए वे अपने को कभी घर- परिवार में भुलाए रखती हैं कभी भक्ति- भाव में।
लीला भी तो दुःखी है ...हताश और निराश है।लाख कोशिशों के बावजूद वह समर का प्रेम नहीं पा सकी।शायद इसीलिए अब उसने बाल गोपाल में अपना मन लगा लिया है।
अब वह अपना ज्यादा समय पूजा -पाठ में गुजारती है।
पर रेहाना को किसी बाल -गोपाल का सम्बल नहीं । धर्म का रास्ता उसे सुकून नहीं देता।धर्म उसे अफीम की तरह लगता है,जिसके नशे में इंसान अपने यथार्थ को भूलाकर एक दूसरी ही दुनिया में जीने लगता है।
फिर कौन सा रास्ता है,जिससे उस जैसी औरत सुकून पाए।
अपने अनुभवों से वह इतना तो समझ गई थी कि प्रेम -प्यार का रास्ता भी उसके लिए नहीं बना है।शायद इसके लिए जिस काबिलियत की जरूरत होती है ,वह उसमें नहीं है।वह सीधी -सच्ची है ।प्रेम में पूर्ण समर्पण चाहती है शायद तभी उसे पूर्णता का आभास होगा,पर उसके जीवन के सारे पुरुष आधे- अधूरे पर चतुर -चालाक थे।समर्पण उनकी फितरत नहीं थी।इसलिए वे उसके लिए महज एक संख्या बनकर रह गए।एक -दो तीन -चार -पांच।शायद वे सब मिलकर एक हो जाते तो एक पूरा पुरूष बनता,जिसकी चाह थी उसे ,पर वे सब अलग थे।अलग -अलग खूबियों वाले,पर उनमें कोई एक भी वह नहीं था जो वह चाहती थी।वह ऐसा पुरूष चाहती थी,जो उसको उसी रूप में समझता हो,जैसी वह है।पर सबने उसे उपभोग की वस्तु मात्र समझा। उसके होते भी दूसरा -तीसरा विवाह किया। उसकी सहमति के बिना भी उसके लिए बड़े से बड़ा निर्णय ले लिया।
उसके पुरूष मित्र तो जरूर रहे पर उनमें से ज्यादातर अकेले में प्रणय- निवेदन करने वाले और समाज के सामने चोरों की तरह छिप जाने वाले थे! कई प्रेमी भी रहे ,जो पहले या बाद में दूसरी स्त्रियों के आगोश में छिप जाते रहे।फिर भी उस पर पूर्ण अधिकार चाहते ,मानते और जताते रहे ।उसने बेरूखी बरती तो उसे बेवफा कहकर ऊपर ही सारा दोष मढ़ते रहे।जिंदगी में उसे गलत कहकर अपमानित करने वाले ही ज्यादा मिले।वे सोचते रहे कि गलत शब्द उसे दुःख देगा।उस जैसी तेजस्विनी,विदुषी व स्वतंत्र सोच वाली स्त्री को पुरूष की चाह ने क्या से क्या बना दिया।
अभी तो कुछ दिन और उसकी नौकरी है ।कोई आर्थिक समस्या नहीं है। उसके पास खुद को अभिव्यक्त करने का पूरा अवसर है।इधर कुछ दिनों से उसने गरीब बच्चों को निःशुल्क पढ़ाना शुरू किया है।बच्चों को पढ़ाने में उसे दिली खुशी मिलती है। कोर्स की किताबों के अलावा वह उनसे दुनिया-जहान की बातें करती है।उन्हें अभिनय सिखाती है।उनकी समस्याएं सुनती है और उसका समाधान करती है।इन सब में ही वह इतना थक जाती है कि अब उसे किसी नकली माध्यम से नींद लाने की कोशिश नहीं करनी पड़ती।
कुछ दिनों से सब कुछ बदल गया है। यह बदलाव उसे बहुत अच्छा लग रहा है।अब उसे अपना अकेलापन नहीं खलता है।अब वह नौकरी भी नहीं करना चाहती ।वह हमेशा से ऐसा कुछ करना चाहती थी,जिससे उसे सुकून और शांति के साथ आनन्द की अनूभूति हो।उसके जीवन में हँसी -खुशी वापस आ जाए।
एक दौर ऐसा आया था जब जिंदगी ने खून के, दिल के और जिस्म के तीनों ही रिश्तों की हकीकत सामने ला दी थी।उस समय वह बिल्कुल टूट गई थी। कई बार तो उसने अपनी जिंदगी खत्म कर देने की दिशा में भी सोचा था।
वैसे तो वह किसी से उम्मीद नहीं रखती थी,पर इतना तो मन में था ही कि जीवन के सांध्य -पहर में सबके साथ रहेगी,पर सबने पहले से ही खुद को अलग कर लिया ।प्रौढ़ उम्र में किसी सच्चे प्यार के आने की न उम्मीद थी, न पुराने प्यार के लौटने की। उसे अकेले ही जीना था और जीने के लिए खुद को व्यस्त रखना जरूरी था।वह सोच में पड़ गई थी कि कहाँ ...कैसे?एकाएक उसकी आँखों के सामने झोपड़पट्टियों के वे बच्चे डोल गए थे,जो दो साल पहले एक समारोह में अपना टैलेंट दिखा रहे थे।ऐसे बच्चों को प्यार और सहारे की जरूरत होती है।वह ऐसे बच्चों को पढ़ाएगी ...उन्हें हँसाएगी अपना शेष जीवन उन्हें समर्पित कर देगी।
अनाथाश्रम,वृद्धाश्रम और भी ऐसे आश्रम हैं,जहां उसके श्रम,प्रेम और सेवा की जरूरत है। मंदिर -मंदिर भजन गाने,पूजा -पाठ करने से या किसी रिश्तेदार के घर आश्रित का जीवन जीने से अच्छा होगा।
उसने ख़ुदा को शुक्रिया अता किया कि उन्होंने उसे सही रास्ता दिखा दिया।अब वह सेवा- मार्ग पर चलेगी।मानवता की सेवा करेगी।अब पूरा संसार उसका परिवार होगा।
रेहाना ने उसी दिशा में काम करना शुरू कर दिया है।अब उसके चेहरे पर सुख -संतोष की आभा आ गई है।