बंधन प्रेम के - भाग 9 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बंधन प्रेम के - भाग 9

अध्याय 9

शांभवी मेजर विक्रम को अपने प्रेम मेजर शौर्य की कहानी आगे सुना रही है... मेजर विक्रम की आंखों में नींद कहां? वे दम साधे पूरी बात सुन रहे हैं.....
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शांभवी ने आगे बताया......
कैप्टन विजय की शहादत के बाद जैसे दीप्ति और शौर्य सिंह की दुनिया ही बदल जाने वाली थी। यह दोनों के जीवन पर एक बड़ा आघात था।विजय के पार्थिव शरीर को देखकर दीप्ति गश खाकर गिर पड़ी थी और घंटों बेसुध रही। रो-रो कर उसका बुरा हाल था।यह भी विधि की एक विडंबना थी कि सात साल के छोटे से बालक ने अपनी रोती हुई मां को ढाढ़स बँधाने की कोशिश की। पिता शायद इस छोटी सी उम्र में ही उसे सेना और उसके सैनिकों के दायित्व के बारे में बहुत सी बातें सिखा गए थे। पिता की शहादत ने उसके भीतर देशभक्ति के जज्बे को और मजबूत कर दिया था। पिता के बलिदान वाले दिन स्वयं उसने भी आतंकवादियों को आमने-सामने देखा था,इसलिए उसके अंदर देश के दुश्मनों को नेस्तनाबूद करने को लेकर एक ज्वालामुखी बनने लगा था। पिता के रक्तरंजित शरीर को देखकर वह आपे से बाहर हो गया था। लेकिन पिता के उच्च आदर्शों वाली बातों का स्मरण कर उसने अपने आप को संयत किया। वह शायद इन दो घंटों में ही उम्र से कहीं अधिक बड़ा हो गया था ।
घटनास्थल से भागते-भागते फोन करने के बाद शौर्य सिंह सीधे घर में ही आकर रुका था । लगभग आधे घंटे बाद जब उसने मुठभेड़ स्थल से वापस आकर सेना की गाड़ियों के काफिले की कुछ गाड़ियों को अपने घर रुकते देखा था, तभी वह समझ गया था कि पिता के साथ अनहोनी घट चुकी है।थोड़ी देर में अपनी गाड़ी से सीओ साहब भी घर आ पहुंचे थे। दीप्ति उन्हें देखकर और इस हुजूम को देखकर हतप्रभ रह गई थी।उसे भी सारा माजरा समझते देर न लगी थी।यह भी विधि की एक विडंबना थी कि आतंकवादियों के मांद में घुसकर शेर की तरह उन पर प्रहार करने वाले विजय आज अपने ही घर में फिर शेर की तरह लड़ने के बाद शहीद हो गए।आर्मी अस्पताल से जब तमाम औपचारिकताओं के बाद दोपहर शहीद कैप्टन विजय के शव को घर लाया गया तो पूरा माहौल गमगीन था।आर्मी एरिया में हरेक के चेहरे पर आंसू थे।
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आतंकवादियों के हमले की संवेदनशील प्रकृति को देखते हुए स्वयं रक्षा मंत्री ने दो दिनों के बाद थल सेनाध्यक्ष के साथ घटनास्थल का दौरा किया और बाद में दीप्ति तथा शौर्य सिंह की उनसे भेंट कराई गई। शोकाकुल परिवार को उन्होंने सांत्वना दी और सरकार की ओर से अपनी संवेदना प्रकट की।शहीद के परिजन होने के नाते उन्हें पर्याप्त सम्मान मिला। मीडिया में कैप्टन विजय को नेशनल हीरो की तरह सम्मान मिला, जिन्होंने अपनी जान देकर आर्मी की एक बहुत बड़ी यूनिट को बचा लिया था।
दीप्ति को सेना एवं सरकार की तरफ से जो सहायता संभव हो सकती थी, दी गई लेकिन कुछ महीने बाद दीप्ति, शौर्य सिंह को लेकर अपने गांव लौट गई।दीप्ति को आर्मी का यह जीवन वैसे भी रास न आता था और अब वह अपने बच्चे को इस जीवन से सदा के लिए दूर रखना चाहती थी। सेना की ओर से दीप्ति को नौकरी का भी प्रस्ताव दिया गया लेकिन दीप्ति ने इसे विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया था। यादें बड़ी अनमोल होती हैं ,लेकिन कभी-कभी परिस्थितियों के कारण कुछ मोहक यादें भी त्रासद बन जाती हैं।मनुष्य इनसे चाहे भी तो पीछा नहीं छुड़ा सकता है। दीप्ति के लिए तो विजय ही सब कुछ थे।आर्मी एरिया में रहने से वह बार-बार विजय और उनके आर्मी वाले दिनों की स्मृतियों में खो जाती थी। वह इन सब को एक सिरे से भूलना चाहती थी। दूसरी ओर शौर्य सिंह के मन में कैरियर के रूप में सेना को चुनने की इच्छा और भी बलवती हो उठी थी। लेकिन उसे अभी तो मां के साथ गांव जाना था और पहले अपनी पढ़ाई पूरी करनी थी।
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गांव में आने के बाद दीप्ति ने अपने पुरखों की परंपरागत थोड़ी सी बची खेती और बाग पर ध्यान दिया। उनका गांव पहाड़ों की तलहटी में है, जहां आसपास प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है। गांव के दो ओर बड़े पहाड़ हैं,एक तरफ छोटी झील तो एक तरफ भूरे पत्थरों की एक छोटी पहाड़ी है।बड़े पहाड़ों में घने वन हैं।वहीं छोटी पहाड़ी में बड़े पेड़ तो नहीं हैं, लेकिन घास खूब लगी रहती है। पहाड़ों के बीच की समतल जगह पर गांव आबाद है । लोगों के पास थोड़ी खेती-बाड़ी और फलों के बाग भी हैं। दिसंबर महीने में कड़ाके की ठंड शुरू होने से पहले ही पहाड़ी गांव वाले अपने खेत व बागों का सारा काम निबटा लेते हैं।पास में एक झील भी है जहां बत्तखों के झुंड तैरते हुए दिखाई देते हैं।झील में मछलियाँ भी पकड़ी जाती हैं। अपने लिए उपयोग की मछलियाँ रखकर गांववाले इसे पास के नगर में बेच आते हैं।गांव में जिनके पास केवल बगीचे हैं,वे सेब व मौसमी फूलों के पौधों के साथ अखरोट के पौधे भी लगाते हैं।इससे उनकी आमदनी भी हो जाती है।
गांव के आसपास का नजारा है भी सुंदर।यह पहाड़ी राज्य यूं ही धरती का जन्नत नहीं कहलाता।जब चिनार के बड़े पेड़ों से हवा टकराती है तो इससे होने वाली सरसराहट की मधुर ध्वनि से मानो पूरी घाटी गुंजित हो उठती है। जब यहां हल्की बारिश होती है तो दिन के थोड़े उजाले में भी ऐसा लगता है, मानो चांदी की बूँदें धरती पर बरस रही हैं। आसपास बहते झरने, पहाड़ों पर बिखरा प्रकृति का सौंदर्य और रात में मंत्रमुग्ध कर देने वाले वातावरण में आकाश के टिमटिमाते तारे और चांद एक स्वर्गीय आभा की सृष्टि करते थे। सिक्का सिंह के बाल मन ने बहुत जल्दी ही प्रकृति के इस नैसर्गिक सौंदर्य के साथ खुद को एकाकार कर लिया।
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दीप्ति ने शौर्य को गांव के ही स्कूल में दाखिला करा दिया और वह खुद भी घर के छोटे से बाग और इसके साथ लगे खेत में व्यस्त हो गई।गांव में आसानी से मजदूर भी मिल जाते थे। शहीद विजय के परिवार का सदस्य होने के कारण दीप्ति और शौर्य सिंह का गांव में अत्यधिक सम्मान था। गांव के लोगों ने शहीद विजय की एक मूर्ति भी स्थापित कर दी थी।शौर्य सिंह पढ़ाई लिखाई में तेज था और देखते ही देखते उसने अच्छे नंबरों से इंटर की परीक्षा पास कर ली। दीप्ति उसे पढ़ने के लिए बड़े शहर में नहीं भेजना चाहती थी।
वह चाहती थी कि उनके पास जीवन यापन के लिए पर्याप्त साधन हैं,इसलिए शौर्य गांव में ही रहे। उसे डर था कि बड़े शहर में पढ़ाई करने पर सिक्का अपने कैरियर को ऊंचाई तो दे देगा लेकिन उसका वैयक्तिक सुख चैन छिन जाएगा।एक आशंका यह भी थी कि कहीं वह अपने पिता के रास्ते पर न चल पड़े।बड़े शहरों में आजकल समूह में हिंसक घटनाएँ भी होने लगी थीं।ऐसे में किसी अनहोनी से उसकी मांग के साथ-साथ अब कोख के भी सूनी हो जाने की आशंका है। यही सोचकर वह शौर्य सिंह को अपने से कभी दूर नहीं करती थी।दीप्ति ने कॉलेज की पढ़ाई के लिए पास के एक छोटे से शहर में शौर्य का दाखिला करा दिया। (26)
समय बड़ी तेजी से गुजरता है और मानो पंख लगाकर उड़ता है।शौर्य सिंह भी देखते ही देखते कॉलेज के अंतिम वर्ष में आ गया। उसकी और शांभवी की दोस्ती बढ़ती ही गई।दोनों में एक विशेष तरह की साझेदारी बन गई थी। इधर दीप्ति घर के कामों में पूरी तरह रम गई थी।उसका अधिकांश समय घरेलू कामों और बाग की देखभाल के साथ-साथ समाज सेवा के कार्य में व्यतीत होने लगा था। गांव में कोई विपत्ति आने पर वह सबसे पहले मदद के लिए खड़ी हो जाती थी।विजय के जाने के बाद उसने शौर्य सिंह को कभी पिता की अनुपस्थिति का अहसास नहीं होने दिया।उसने शौर्य सिंह के पालन पोषण में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी।
पिता के चले जाने के बाद भी शौर्य सिंह ने पिता के आदर्शों को अपने हृदय में संजोए रखा था और अभी भी मन के किसी कोने में सेना में जाने की उसकी इच्छा बलवती थी। एक बार मां से उसने इस बारे में बात करने की कोशिश भी की,लेकिन माँ ने उसे बुरी तरह झिड़क दिया था।यही कारण है कि शौर्य सिंह अब मां के सामने सेना में शामिल होने का जिक्र नहीं करता है। लेकिन हां अपने को शारीरिक रूप से सक्षम बनाने के नाम पर उसने मां से कसरत करने की अनुमति ले ली है। मां ने घर में जिम आदि की स्थापना का पहले तो विरोध ही किया था।उसे लगता कि इन सब पर ध्यान देने से उसका झुकाव फिर से सेना की ओर होने लगेगा और किसी दिन एक झटके में वह सेना में शामिल होने के लिए घर से निकल पड़ेगा।
शौर्य सिंह कसरती बदन बनाने के अपने शौक को पूरा करने के लिए सुबह उठकर सूर्योदय के पूर्व ही लंबी दौड़ लगाता था। दौड़ शुरू करने के बाद वह तीन चार गाँवों की सरहद को छूकर लगभग एक से डेढ़ घंटे में गांव लौट आता है। कभी-कभी उसके साथ वर्जिश करने के लिए विपिन भी आ जाता था ।विपिन और शौर्य एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं। विपिन पास के ही गांव में रहता है। दोनों की मुलाकात अक्सर दौड़ लगाते हुए सुबह हो जाया करती है।शौर्य सिंह भी कभी-कभी उसके गांव चला जाता था।
रात्रि का तीसरा प्रहर बीतने को था... शांभवी डायरी के पन्ने पलटती जा रही थी और मेजर विक्रम कभी कुर्सी पर आराम से बैठे तो कभी खड़े होकर पीछे से कुर्सी को एक हाथ से पकड़े हुए बड़ी देर तक ध्यान मुद्रा में शंभवी की बातों को सुनकर रोमांचित होते रहे..... कभी बाहर सड़क पर गश्त लगा रहे सिपाही की जागते रहो की आवाज से दोनों थोड़ी देर के लिए वास्तविकता की दुनिया में लौट आते.... लेकिन ख्वाबों और हकीकत का किस्सा फिर शुरू हो जाता ...... मेजर विक्रम आज सुबह होने से पहले ही सारा किस्सा जान लेना चाहते थे.... शायद यह किस्सा सुनाते - सुनाते शांभवी के ऊपर से भी एक बोझ हट रहा था.......

(क्रमशः)
योगेंद्र