परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग27- प्रह्लाद की तत्त्वजिज्ञासा Praveen kumrawat द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग27- प्रह्लाद की तत्त्वजिज्ञासा

[महर्षि अजगर और दैत्यर्षि का संवाद]
दैत्यर्षि प्रह्लाद बड़े ही तत्त्वजिज्ञासु थे उनकी सभा में विद्वानों का खासा संग्रह था। इसके सिवा समय-समय पर वे स्वयं भी ऋषियों के आश्रमों में जाकर तत्त्वोपदेश सुनते और अपनी शङ्काओं का निराकरण कराते थे। साधु-संग स्वाभाविक ही उन्हें बहुत प्रिय था।

एक दिन दैत्यर्षि प्रह्लाद कुछ तत्त्वोपदेश सुनने के उद्देश्य से तपोभूमि की ओर जा रहे थे कि मार्ग में ही 'महर्षि अजगर' मिल गये। महर्षि अजगर को देख दैत्यर्षि वहीं ठहर गये और सादर प्रणाम कर उनसे पूछने लगे 'हे ब्रह्मन्! आपको देखने से मालूम होता है कि आप तपोनिष्ठ योग्य विद्वान् हैं, विषय-वासनाओं से रहित एवं स्वस्थ हैं, आप दम्भादि विकारों से मुक्त, शुद्ध और दयावान् हैं। इन्द्रियों को जीतनेवाले हैं। किसी कार्य का आरम्भ करना उचित नहीं समझते। आप कििसी में भी दोष नहीं देखते। आप सत्य वक्ता, मृदुभाषी और प्रतिभावान् हैं। पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष को भली भाँति समझने वाले, बड़े मेधावी और तत्त्ववेत्ता विद्वान् हैं। भगवन् ! इन सब गुणों के होते हुए भी आप बालकों के समान चारों ओर क्यों घूमते फिरते हैं ? हम देखते हैं कि आपको न तो किसी वस्तु के लाभ की इच्छा है और न किसी वस्तु के प्राप्त होने पर आप असन्तुष्ट ही होते हैं सभी विषयों से सदा तृप्त की भाँति रहते हैं। किसी विषय की कभी अवज्ञा नहीं करते। काम, क्रोध आदि विकारों के प्रबल वेग लोगों के चित्त को हरण कर रहे हैं, परन्तु आप विरक्त के सदृश धर्म, अर्थ और कामयुक्त कार्यों में भी निर्विकार-चित्त प्रतीत होते हैं । यह क्या बात है? तपोधन! आप धर्म और अर्थ का अनुष्ठान नहीं करते तथा कार्य में भी प्रवृत्त नहीं होते और रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि इन्द्रिय-विषयों का अनादर करके कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि का अभिमान भी नहीं रखते। प्रत्युत साक्षी के सदृश विचरण कर रहे हैं। इसका क्या रहस्य है? त्यागमूर्ति ब्रह्मन्! यह आपका कैसा तत्त्व-दर्शन है, कैसी वृत्ति है, कैसा शास्त्रज्ञान है और यह किस प्रकार का धर्मानुष्ठान है? यदि आप उचित समझें तो इन प्रश्नों के उत्तर देने की शीघ्र कृपा करें।'

दैत्यर्षि प्रह्लाद की जिज्ञासा देख कर महर्षि अजगर ने उनके प्रश्नों के उत्तर में बड़े ही मधुर वचनों से कहा “हे दैत्यर्षि प्रह्लाद ! आप ज्ञानी हैं, विद्वान् हैं और ज्ञानियों की संगति करने वाले हैं फिर भी आपको मेरी वृत्ति देखकर जो अचरज हुआ इसमें कोई अचरज की बात नहीं है । राजकाज का सम्बन्ध ही ऐसा होता है । इसके द्वारा यथार्थ ज्ञान के प्रकाश में कुछ धुँधलापन-सा आ जाया करता है। प्रह्लाद! मैं आपके प्रश्नों का उत्तर देता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनिये। कारणरहित चित्त, अचित्त से युक्त अद्वितीय परब्रह्म परमपुरुष से संसार की उत्पत्ति, ह्रास, एवं नाश के विषय की आलोचना विद्वान् लोग किया करते हैं किन्तु मैं इनकी आलोचना करके ही हर्षित तथा दुःखित नहीं होता । स्वभाव के कारण वर्तमान प्रवृत्तियों और स्वभाव में रत सारे संसार को समझना चाहिए। मैं इसी सिद्धान्त को मान कर ब्रह्मलोक की प्राप्ति से भी प्रसन्न नहीं होता। हे प्रह्लाद! जिन प्राणियों का विनाश निश्चित है, उन वियोग-परायण प्राणियों के संयोग और विनाश को विचार की दृष्टि से देखिये। इस प्रकार के किसी भी विषय में मैं मन नहीं लगाता। जो लोग सगुण पदार्थों को नाशवान् समझते हैं और जगत् की उत्पत्ति तथा उसके लय के तत्त्व को जानते हैं, उनके लिये संसार में कोई कार्य अवशेष नहीं है।
हे दैत्यराज! मैं यह देखता हूँ कि, समुद्र के बीच बड़े-छोटे शरीर वाले सभी जलचर जीवों का पर्याय क्रम से नाश हो रहा है और स्थावर जङ्गम सभी प्रकार के जीव स्पष्टरूप से मृत्यु के मुख में पतित होते चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं प्रत्युत आकाशचारी पक्षियों की भी यथासमय मृत्यु होती है। आकाश में घूमनेवाले छोटे और बड़े तारे भी गिरते और नष्ट होते हुए दीख पड़ते हैं। इसी प्रकार संसार के सभी प्राणियों को मृत्यु के वश में होते देख कर मैं ब्रह्मनिष्ठ और कृतकृत्य होकर सुख की नींद सोता हूँ | मैं कभी अनायास प्राप्त हुए उत्तम अन्न का भोजन करता हूँ तो कभी कई दिनों तक बिना कुछ खाये ही रह जाता हूँ। कभी लोग मुझे बहुत-सा अन्न दे देते हैं, कभी थोड़ा-सा भोजन कराते हैं और कभी-कभी तो भोजन के लिये कुछ भी नहीं मिलता। मैं कभी चावलों के कणों और किनकों को खाकर रह जाता हूँ, कभी नाना प्रकार के फल भोजन करता हूँ तो कभी विविध प्रकार के पक्कान्नों को खाया करता हूँ । मैं कभी सुन्दर पलंग पर, कभी पृथ्वी पर, कभी महल में, सुन्दर मसहरी में और कभी वन की तृणपूरित भूमि में सोया करता हूँ। मैं कभी बड़े सुन्दर वस्त्रों को पहनता हूँ, कभी सन-सूत के बने कपड़े पहनता हूँ, कभी रेशमी वस्त्रों को धारण करता हूँ, कभी मृगछाला ही ओढ़े रहता हूँ और कभी बहुमूल्य रत्न-जड़ी पोशाक पहनता हूँ। मैं न तो यदृच्छा से प्राप्त धर्मयुक्त वस्तुओं में अनास्था रखता हूँ और न सर्वथा अभाव में उनके लिये मेरे मन में कोई लालसा ही उत्पन्न होती है। हे प्रह्लाद! इस प्रकार मैं पवित्रभाव से स्थिरतायुक्त मरण-विरोधी कल्याणकारी शोकहीन और अनुपम अजगरव्रत का आचरण करता हूँ। हे राजन्! संसार के अज्ञानी लोगों के लिये इस अजगरव्रत के आचरण की बात तो दूर रही, वे इसका तत्त्व भी नहीं समझते हैं। हे प्रह्लाद! मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि मानव-जीवन के लिये सबसे सरल और सबसे उत्तम यह अजगरव्रत ब्रह्म-प्राप्ति का प्रधान उपाय है।

अचलितमतिरच्युतः स्वधर्मात् परिमितसंसरणः परावरज्ञः।
विगतभयकषायलोभमोहो व्रतमिदमाजगरं शुचिश्वरामि॥
अनियतफलभक्ष्यभोज्यपेयं विधिपरिणाम विभक्तदेशकालम् ।
हृदयसुखमसेवितं कदर्यैः व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि॥
इदमिदमिति तृष्णयाभिभूतं जनमनवाप्तधनं विषीदमानम्।
निपुणमनु निशम्य तत्त्वबुद्धया व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि॥
बहुविधमनु॒दृश्य चार्थहेतोः कृपणमिहार्यमनार्यमाश्रयन्तम् ।
उपशमरुचिरात्मवान् प्रशान्तो व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि॥
सुखमसुखमलाभमर्थलाभं रतिमरतिं मरणं च जीवितं च।
विधिनियतमवक्ष्य तत्त्वत्तोऽहं व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि॥
अपगतभयरागमोहदपो॑ धृतिमतिबुद्धिसमन्वितः प्रशान्तः।
उपगतफलभोगिनो निशम्य व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि॥
अनियतशयनाशनः प्रकृत्या दमनियमव्रतसत्यशौचयुक्तः।
अपगतफलसञ्चयः प्रहृष्टो व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि॥
अपगतमसुखार्थमीहनार्थैरुपगतबुद्धिरवेक्ष्य चात्मसंस्थम्।
तृषितमनियतं मनो नियन्तुं व्रतमिदमाजगरं शुचिश्वरामि॥
हृदयमननुरुध्य वाङ्मनो वा प्रियसुखदुर्लभतामनित्यतां च।
तदुभयमुपलक्षयन्निवाहं व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि॥

अर्थात्— मैं अविचल बुद्धि रहकर अपने धर्म से कभी च्युत न होकर एवं पूर्वापर की सभी बातों को जान, परिमित भाव से अपनी जीविका का निर्वाह करता हुआ राग-द्वेष आदि से रहित, निर्भय, निर्लोभ और मोह-हीन होकर अन्तःकरण की पवित्रता के साथ इस अजगरव्रत का आचरण करता हूँ। जिसमें भक्ष्य, भोज्य और पेय विषयों का कोई नियम नहीं है, अदृष्ट के परिणाम के कारण, देश और काल की व्यवस्था नहीं है।
साधारण पुरुष जिसके आचरण करने में असमर्थ हैं, उस हृदय सुखदायक अजगरव्रत का पवित्र भाव से मैं आचरण करता हूँ। मैं अमुक धन और अमुक ऐश्वर्य प्राप्त करूँगा, इस तरह की तृष्णा वाले लोभी को जब धन नहीं मिलता तब उसको महान् दुःख होता है। इस तत्त्व को बुद्धि की निपुणता के साथ आलोचना करके मैं पवित्रभाव से इस अजगरव्रत का आचरण करता हूँ। दीन पुरुष अपनी दरिद्रतावश अच्छे और बुरे सभी लोगों के निकट धन के निमित्त हाथ फैलाते हैं, फिर भी अपने मनोरथ को नहीं प्राप्त होते। संसार की यह दशा देखकर मैं उपशम की अभिलाषा से चित्त को जीत कर इस अजगरव्रत का आचरण करता हूं। मैंने यह सुना है कि अजगर नामक जाति का सर्प सदा यों ही पड़ा रहता है तथा यदृच्छा से उपस्थित फल का भोग किया करता है। यह सुन कर राग, भय, मोह और अभिमान से रहित धृति, मति और बुद्धि से युक्त एवं प्रशान्त होकर मैं
पवित्रभाव से इस अजगरव्रत का आचरण करता हूँ। मेरे सोने और भोजन करने का कोई नियम नहीं है। मैं स्वभाव से ही दम, नियम, सत्य, व्रत और शौच का पालन करता हूँ। तथा फल संचय से रहित और आनन्दित होकर इस अजगरव्रत का आचरण करता हूँ। हे राजन्! कामनाओं के विषय धन-स्त्री-पुत्र आदि के निबन्धन का परिणाम दुःख का कारण है परन्तु विषयरहित प्राणियों के लिये समस्त दुःख स्वयं ही पराङ्मुख रहते हैं। इस कारण मैं ज्ञान लाभ करके अन्तःकरण की तृष्णा और स्थिरता को देख कर उसे सन्तुष्ट और स्थिर करने के लिये पवित्र भाव से इस आत्मनिष्ठ अजगर-व्रत का आचरण करता हूँ। मैं वचन, मन और अन्तःकरण का अनुरोध न करता हुआ, सर्वप्रिय सुख की दुर्लभता और अनित्यता को देखते हुए पवित्रभाव से इस अजगरव्रत का आचरण करता हूँ।

हे राजन्! बुद्धिमान् कवियों और विद्वानों ने अपनी कीर्ति को प्रसिद्ध करते हुए निज मत और पर मत के उपपादन में 'यह शास्त्र ऐसा कहता है वह शास्त्र ऐसा कहता है' इस प्रकार अनेक तर्क-वितर्क की बहुलता के सहित आत्मतत्त्व के विषय का वर्णन किया है; किन्तु मूर्ख मनुष्य उस प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से प्रसिद्ध तर्क के द्वारा न जानने योग्य आत्मतत्त्व को जानने में समर्थ नहीं होते। अतएव मैं अज्ञान आदि विकारों के नाश करने वाले और अनन्त दोषों के निवारण करने वाले तत्त्वज्ञान के द्वारा आलोचना करके सभी दोषों और सभी विषयों की तृष्णा को त्याग कर संसारी मनुष्यों के बीच बालकों के समान निरभिमान हो विचरण किया करता हूँ । यह कोई अचरज की बात नहीं है।'
महर्षि अजगर के उपदेशपूर्ण वचनों को सुन दैत्यर्षि प्रह्लाद बहुत ही सन्तुष्ट हुए। महर्षि अजगर इतनी बातें कह कर तपोवन की ओर चल दिये। जाते समय दैत्यर्षि प्रह्लाद ने उनको साष्टाङ्ग प्रणाम किया। उन्होंने उदासीनभाव से ही आशीर्वाद दिया। महर्षि के चले जाने पर प्रह्लादजी भी अपनी राजधानी को गये और उनके उपदेशों के अनुसार विरक्तभाव से शासन तथा कालक्षेप करने लगे।