भारतवर्ष के ही नहीं, सारे संसार के इतिहास में सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वंश यदि कोई माना जा सकता है, तो वह हमारे चरित्रनायक परमभागवत दैत्यर्षि प्रहलाद का ही वंश है। सृष्टि के आदि से आजतक न जाने कितने वंशों का विस्तार पुराणों और इतिहासों में वर्णित है किन्तु जिस वंश में हमारे चरित्रनायक का आविर्भाव हुआ है, उसकी कुछ और ही बात है। इस वंश के समान महत्त्व रखने वाला अब तक कोई दूसरा वंश नहीं हुआ और विश्वास है कि भविष्य में भी ऐसा कोई वंश कदाचित् न हो।
जिस वंश के मूलपुरुष नारायण के नाभि-कमल से उत्पन्न जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी के पौत्र और महर्षि' मरीचि' के सुपुत्र स्थावर-जंगम सभी प्रकार की सृष्टियों के जन्मदाता ऋषिराज 'कश्यप' हों, उस वंश के महत्त्व की तुलना करनेवाला संसार में कौन वंश हो सकता है? क्या ऐसे प्रशंसित वंश के परिचय की भी आवश्यकता है? फिर भी आज हम इस वंश का परिचय देने के लिये जो प्रयत्न करते हैं, क्या यह अनावश्यक अथवा व्यर्थ है ? नहीं इस वंश का परिचय देना परम आवश्यक और उपादेय है।
जिस प्रातः स्मरणीय वंश में एक नहीं अनेक भगवत्पार्षदों के पवित्र अवतार हुए हैं, जिस वंश में हमारे चरित्रनायक-जैसे परमभागवतों का आविर्भाव हुआ है और जिस वंश के पुण्यात्माओं के सम्बन्ध से एक-दो बार नहीं, कितनी ही बार भक्तवत्सल भगवान् लक्ष्मीनारायण को अवतार धारण करना पड़ा है, उस वंश का परिचय कराना, उस वंश का परिचय देने के लिये नहीं, प्रत्युत पतित-पामर नर-नारियों के उद्धार के लिये, अपनी लेखनी को सफल एवं पवित्र बनाने के लिये और भगवच्चरित्र की चर्चा करने तथा उसके द्वारा अपने मानव-जीवन को सफल बनाने के लिये ही है। हमारे चरित्रनायक का आविर्भाव जिस वंश में हुआ है यद्यपि वह पवित्र ब्राह्मण-वंश है और इसी कारण से आचार्यों ने प्रह्लाद को समझाते समय कहा था कि 'आप पवित्र ब्राह्मण कुल में जन्मे हैं, आपको पिता की आज्ञा की अवहेलना नहीं करनी चाहिये' तथापि इस वंश का परिचय संस्कृत-साहित्य में दैत्यवंश के नाम से दिया गया है। हमारे चरित्रनायक दैत्यर्षि प्रह्लाद का मातृकुल जम्भ-वंश का दानवकुल है और पितृवंश दैत्यवंश। प्रह्लादजी के पिता परम-प्रतापी हिरण्यकशिपु को ही हम आदिदैत्य कह सकते हैं, क्योंकि भगवान् लक्ष्मीनारायण के नाभि-कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के मानसपुत्र मरीचि आदि महर्षि हुए थे। उन्हीं महर्षि मरीचि के पुत्र कश्यपजी थे, जिनकी १७ स्त्रियों में अन्यतम स्त्री 'दिति' थी, जो दक्षप्रजापति की कन्या थी । इस 'दिति' के गर्भ से महर्षि कश्यप के परमप्रतापी प्रथम दो पुत्र हुए, जिनका क्रमशः नाम था हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। 'दिति' के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण इन दोनों भाइयों को दैत्य कहा गया है और इनका जो वंश विस्तार हुआ वही दैत्य वंश के नाम से विख्यात है। वे ही 'हिरण्यकशिपु' हमारे नायक दैत्यर्षि प्रह्लाद के जन्मदाता पिता थे और 'जम्भ' नामक दैत्य की पुत्री महारानी 'कयाधू' माता थीं। अधिकांश पुराणों के मत से परमभागवत दैत्यर्षि प्रह्लादजी चार भाई थे और उनके एक बहिन भी थी। श्रीमद्भागवत (स्क.6 अ.18 श्लोक 13) के अनुसार चारों भाइयों के नाम 'संह्राद, अनुह्राद , प्रह्राद और ह्राद' था बहिन का नाम था 'सिंहिका' जिसका विवाह 'विप्रचित्ति' नामक दैत्य के साथ हुआ था और उसी के गर्भ से 'राहु' नामक दैत्य उत्पन्न हुआ था। यह वही राहु है जिसने अमृत-मन्थन के पश्चात् देवता का बनावटी रूप रख देवताओं की पंक्ति में बैठकर अमृतपान कर लिया था एवं जिसका सर भगवान् ने काट डाला था किन्तु अमृत के प्रभाव से उसकी मृत्यु नहीं हुई और सर एवं धड़ दो सजीव भाग हो गये। इन दो भागों में से एक का नाम राहु और दूसरे का नाम केतु पड़ा। ये दोनों राहु और केतु आज भी ज्योतिषशास्त्र में उपग्रह के नाम से तथा लोक में नवग्रहों के अभ्यन्तर ग्रह माने जाते हैं। किन्तु विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( प्र० खं० अ० 121 श्लो० 3 ) के अनुसार प्रह्लाद जी का एक भाई कालनेमि नामक महापराक्रमी दैत्य भी था। यह तारकासुर की लड़ाई में भगवान् वासुदेव के हाथों से मारा गया था। पद्मपुराण में भी कालनेमि को दैत्यर्षि प्रह्लाद का भाई लिखा है। (हरिवंश में भी पाँच भाई का होना लिखा है, किन्तु नाम में भेद है। संभवतः उपनाम के कारण भेद हो।) बंगाल में अधिकता से प्रचलित कृत्तिवासी रामायण के अनुसार 'कालनेमि' रावण का मामा था, जो लंकेश्वर के परामर्श से उस समय, जब हनुमानजी विशल्यकरणी बूटी लेने के लिये 'गन्धमादन पर्वत' को गये थे, कौशलपूर्वक हनुमान जी को मारना चाहता था, किन्तु इसके विपरीत वह स्वयं ही उन्हीं के हाथों मारा गया था। इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड में लिखा है कि विष्णु भगवान् के भय से 'कालनेमि' लंकेश्वर रावण के मातामह सुमाली के साथ लंका से भाग कर पाताल को चला गया था और वहीं रहने लगा था। बात कुछ भी हो किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि, हमारे चरित्रनायक चार नहीं बल्कि पाँच भाई थे और उनका नाम था 'संह्राद, अनुह्राद, प्रह्राद, ह्राद और कालनेमि' तथा एक बहिन थी, जिसका नाम था 'सिंहिका। पुराणों में इस सम्बन्ध में भी मतभेद है कि, प्रह्राद अपने भाइयों में जेठे थे या छोटे थे अथवा मझीले थे। नाम के अक्षर में किसी स्थान पर लकारसहित 'ह्ला' का प्रयोग पाया जाता है और किसी स्थान में रकारसहित 'ह्रा' का। यद्यपि 'प्रह्राद' और 'प्रह्लाद' इन दोनों शब्दों के अर्थ में सूक्ष्मतया अन्तर है तथापि इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि दोनों ही शब्द एक ही व्यक्तिवाची हैं और वह व्यक्ति हैं हमारे चरित्रनायक परमभागवत दैत्यर्षि 'प्रह्लाद'। व्याकरण के अनुसार यदि 'रलयोः सावर्ण्यम्' मान लें तो दोनों शब्दों का भेद सर्वथा मिट सकता है। अतएव नाम के सम्बन्ध के विवाद को हम अनावश्यक समझते हैं । दैत्यर्षि प्रह्लाद की धर्मपत्नी का नाम 'सुवर्णा' था, इसको बंगाली लेखकों ने अपनी रुचि के अनुसार 'सुवर्णलता' के नाम से लिखा है। 'सुवर्णा' हिरण्यकश्यपु के वृद्ध मन्त्री वज्रदन्त नामक असुर की इकलौती लड़की थी, जो बड़ी ही साध्वी और पतिव्रता थी। सुवर्णा ही एकमात्र भार्या थी, जिसके गर्भ से परमभागवत दैत्यर्षि प्रह्लाद के पाँच पुत्रों के होने की बात कही जाती है । पुत्रों के नाम और संख्या में भी पुराणों में मतभेद है । महाभारत के उद्योगपर्व के 35 वें अध्याय की कथा से तो एकमात्र विरोचन का होना पाया जाता है। किसी-किसी के मत से विरोचन और गविष्ठ दो पुत्रों का होना पाया जाता है और किसी के मत से गविष्ठ को छोड़ दिया गया है और 'विरोचन', 'जम्भ' एवं 'कुजम्भ' नामक तीन पुत्रों का वर्णन है। पद्मपुराण-सृष्टिखण्ड के छठें अध्याय के अनुसार चार पुत्र थे और उनके नाम थे 'आयुष्मान्', 'शिवि', 'वाष्कलि' और 'विरोचन'। विष्णुपुराण, हरिवंश, मत्स्यपुराण, पद्मपुराण और शिवपुराण की कथाओं में मतभेद है और दैत्यर्षि प्रह्लाद के पुत्रों की संख्या और उनके नामों के सम्बन्ध में भी मतभेद है। बात कुछ भी हो, किन्तु हमारे चरित्रनायक के दो पुत्रों के सम्बन्ध की कथाओं का अधिक प्रमाण मिलता है, एक तो 'विरोचन' का जो अपने आपको बड़ा ज्ञानी समझता था और बड़ा अभिमानी था। दूसरे गविष्ठ या गवेष्ठ का जो बड़ा वीर था और जिसके ऊपर राज्यभार देकर हमारे चरित्रनायक ने त्याग ग्रहण किया था। गविष्ठ के शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो पुत्र थे, जो अपने प्रबल पराक्रम से सारे संसार में हलचल मचाने वाले थे, जिनकी कथाएँ पुराणों में विस्तृतरूप से मिलती हैं। विरोचन के एकमात्र पुत्र थे परमप्रतापी दानवीर 'राजा बलि'। जिनके प्रबल पराक्रम से देवताओं के हृदय कम्पित रहते थे, जिनके यज्ञानुष्ठान से देवराज इन्द्र घबड़ाया करते थे और जिन्होंने अपनी दानवीरता से सारे साम्राज्य को भगवान् वामन के चरणों में अर्पण कर पाताल का निवास स्वीकार कर लिया था। वे ही राजा बलि हमारे चरित्रनायक दैत्यर्षि प्रह्लाद के पौत्र (पौते) थे। राजा बलि के वाण (बाणासुर) आदि एक सौ पुत्र थे, जिनमें मुख्य मुख्य के नाम हैं धृतराष्ट्र, सूर्य, विवस्वान्, अंशुतापन, निकुम्भ, गुर्वक्ष, कुली, भीम और भीषण। ज्येष्ठ पुत्र वाण को ही लोग बाणासुर के नाम से पुकारते हैं। उसके आगे के वंश का ठीक-ठीक पता नहीं चलता और न उसकी यहाँ पर आवश्यकता ही प्रतीत होती है। हिरण्याक्ष की भानुमती भार्या से अन्धक नामक एक पुत्र की उत्पत्ति लिखी है जो भगवान् शंकर के वरदान से हुई थी। अन्धक का वंश विस्तार तथा अन्यान्य दैत्यों के वंश विस्तार की कथा का वर्णन यहाँ न करके हम केवल यह अवश्य कहेंगे कि, इस दैत्यवंश के पुण्यात्माओं की पवित्र कथाएँ पुकार-पुकार कर कहती हैं कि संसार में इस वंश के लोगों के समान भगवत्पार्षद, परम भागवत एवं न्याय-परायण दानवीर कोई नहीं हुआ और इस वंश के हेतु जितने भगवद अवतार हुए हैं, उतने भगवद अवतार किसी दूसरे वंश के हेतु नहीं हुए। इस वंश की पूरी-पूरी कथाओं का उल्लेख करना यहां असम्भव है अतएव हमने साधारणतः एवं संक्षेपतः अपने चरित्रनायक दैत्यर्षि प्रह्लाद के वंश का परिचय दे दिया है, जिसको स्मरण करके आज भी न जाने कितने भगवद्भक्त और भागवत भक्त आनन्द के समुद्र में गोते लगाते हैं और भक्तवत्सल भगवान् लक्ष्मीनारायण की अहैतुकी कृपा के पात्र हो रहे हैं।