Param Bhagwat Prahlad ji - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

परम भागवत प्रह्लादजी -भाग8 - देवताओं का हिरण्यपुर पर आक्रमण

[महारानी कयाधू का हरण]

देवराज इन्द्र, हिरण्यकशिपु की दशा देखकर जब अपने स्थान पर पहुँचे तब उन्होंने अपने मन्त्रिवर्ग को बुलाया और उनसे परामर्श किया। सभी लोग एकमत हुए कि इस समय जबकि हिरण्यकशिपु तपस्या के कारण निर्जीव-सा हो रहा है, हम लोग यदि उसकी राजधानी 'हिरण्यपुर' पर आक्रमण करें, तो अपने नैसर्गिक शत्रु 'असुर समुदाय' को सदा के लिये नष्ट-भ्रष्ट कर सारे संसार में अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकते हैं। पहले तो उस मृतप्राय हिरण्यकशिपु के लौटने की आशा नहीं, फिर वह लौटेगा भी, तो निःसहाय होने के कारण उससे हम लोगों को कोई भय नही होगा। ऐसी मन्त्रणा कर देवराज इन्द्र ने शीघ्र ही अपने दलबल के साथ सहसा हिरण्यपुर पर घोर आक्रमण किया।

हिरण्यकशिपु की अनुपस्थिति में उसकी राजधानी पर सहसा आक्रमण होने से असुरों को बड़ी चिन्ता हुई। एक तो जब से हिरण्याक्ष का वध हुआ था तभी से असुरों के हृदय में देवताओं की ओर से भय बना रहता था, दूसरे जो एकमात्र सहारा था वह दैत्यराज हिरण्यकशिपु भी तपस्या कर रहा है। इस कारण असुरों की सेना में उत्साह नहीं था। महारानी कयाधू के उत्साहित करने पर देवताओं की सेना के सामने ये लोग गये अवश्य किन्तु हतोत्साह होने के कारण उनका सामना करने में असमर्थ रहे। थोड़े ही दिनों की लड़ाई में राजकुमारों ने आत्मसमर्पण कर दिया और असुर सेनापति भी बाँध लिये गये। न जाने कितने असुर लड़ाई में मारे गये और कितने ही के अंग-भंग हुए। अधिकांश असुर भाग-भाग कर घने वन तथा गिरिकन्दराओं में जा छिपे।

अनायास प्राप्त अपने इस अपूर्व विजय से देवराज इन्द्र तथा उनके सहायकों का उत्साह बढ़ गया और वे मदान्ध एवं क्रोध के वशीभूत होकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु के अन्तःपुर में घुसने को उद्यत हुए। कुछ चतुर एवं न्यायप्रिय मन्त्रियों ने उनको इस अनुचित कार्य करने से रोका भी, किन्तु देवराज, विजय के मद से मतवाले हो रहे थे अतः उन्होंने किसी की कुछ नहीं सुनी। अन्तःपुर में जा, देवराज इन्द्र ने वह काम किया जो कि देवताओं के लिये सर्वथा निन्दनीय था। उन्होंने दैत्यराज के अन्तःपुर को जलाकर भस्म कर दिया और उनके सारे ऐश्वर्य को लूट लिया। इतना ही नहीं, परम सती गर्भवती महारानी कयाधू को भी वे बरजोरी पकड़ ले चले। महारानी कयाधू ने करुण-क्रन्दन कर अपने छुटकारे की प्रार्थना की और गर्भवती होने के कारण अपने को पाँवपियादे चलने में असमर्थ बतलाया किन्तु देवराज तो मदान्ध हो रहे थे, उनको तो अपने अपूर्व एवं अनायास विजय का नशा चढ़ा था, अतएव उन्होंने महारानी कयाधू की करुणपूर्ण समुचित प्रार्थनाओं की भी अवहेलना की और चलते बने। मार्ग में महारानी कयाधू के करुण-क्रन्दन से सभी सहृदय प्राणी दुखित होते थे, किन्तु मदान्ध देवराज के सामने जाकर कुछ कहने की कोई भी हिम्मत न करता था।
संयोगवश, मार्ग में महर्षि नारदजी मिल गये। महारानी कयाधू की करुण-वाणी, उनका विलाप और उनकी दशा ने महर्षि नारदजी को बीच में पड़ने के लिये बाध्य किया। महर्षि नारद को किसका भय था? वे तुरन्त खड़े हो गये और देवराज इन्द्र से कहा— “हे विजयी सुरराज! सावधान! विजय के मद में तुम जैसे वीरों को मदान्ध हो जाना उचित नहीं। यही समय है, जब तुम्हें अपनी क्षमाशीलता का परिचय देना चाहिए। असुर तुम्हारे शत्रु हैं। तुमने उनपर इस समय कायरों के समान आक्रमण किया है, जिस समय उनका अगुआ तपस्या में लीन है। ऐसी दशा में विजय की महत्ता कितनी है, इसको तुम्हारा हृदय स्वयं स्वीकार करता होगा, फिर भी तुम इतने मदान्ध क्यों हो गये हो कि, इस परम साध्वी गर्भवती महारानी कयाधू को पकड़ कर ले जा रहे हो और पाँवपियादे ले जा रहे हो! तुमको स्मरण रखना चाहिए कि अपने ही पाप को लोग दुःख के रूप में भोगते हैं और अभिमान तो भगवान् का आहार है। तुमको ऐसा दुष्कार्य नहीं करना चाहिए कि, जिसे कल जब हिरण्यकशिपु तपस्या द्वारा अमोघ वरदान प्राप्त कर लौटे और तुमको पराजित करे, तब लोग कहें कि तुमको तुम्हारे ही पापों का फल मिल रहा है। हे देवराज! इस साध्वी को तुरन्त छोड़ दो और सावधान होकर सीधे अपने स्थान को चले जाओ।'
देवराज इन्द्र– “भगवन्! आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा परमधर्म है और आपकी आज्ञाएँ मेरे लिये सदैव कल्याणप्रद होती हैं, किन्तु आज जो आप इस दानवपुत्री कयाधू पर दयार्द्र हो रहे हैं और इसको छुड़ाने की आज्ञा दे रहे हैं इसमें मुझे कुछ कहना है। महर्षिवर! दानव और दैत्यकुल हम लोगों के कैसे शत्रु हैं यह आपसे छिपा हुआ नहीं है। इस युद्ध में मैंने सारे असुर-कुल का संहार कर दिया है, जो बचे हैं वे बन्दी के रूप में हैं। अथवा कायरों के समान लुकछिप कर अपनी जान बचा पाये हैं। कायरों से भय नहीं और जो बन्दी हैं उनसे भी भय नहीं। किन्तु इस दानवतनया कयाधू के उदर में गर्भ है और इसलिये मैं इसको ले जा रहा हूँ ताकि, इसके गर्भ से उत्पन्न दैत्यराजकुमार हम लोगों के लिये आगे बाधक न हो। नीति में लिखा है कि शत्रु को निःशेष ही करके शान्त होना चाहिए। शत्रु पर दया करना, दया नहीं, कायरता है।”
महर्षि नारद–“हे सुरपते! तुम भूलते हो, इस साध्वी के गर्भ में जो बालक है, उसकी महिमा तुम नहीं जानते! इसके गर्भ में परमभागवत बालक है उसे मारा नहीं जा सकता और उसके द्वारा न केवल देवताओं का, प्रत्युत सारे जगत का कल्याण होगा और अधर्ममूलक असुरों का संहार होगा, तुम इस साध्वी को तुरंत छोड़ दो और अपने अपराध के लिए इस साध्वी से तुरंत क्षमा की याचना करो इसी मैं तुम्हारा कल्याण है।”
महर्षि नारद की आज्ञा अनुसार देवराज इंद्र ने महारानी कयाधु को छोड़ दिया और उनसे अपने अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की। महारानी कयाधू ने सजल नयन तथास्तु कहकर अपना पिण्ड छुड़ाया। महारानी असहाय और अत्यंत भयभीत थी। महर्षि नारद के बारंबार सांत्वना देने पर भी वह घबराई हुई थरथर कांप रही थी। उनकी यह दशा देख महर्षि नारद जी ने कहा “बेटी! घबराने का कोई कारण नहीं, वीर पत्नियों को न जाने कैसे-कैसे संकटमय समय काटने पड़ते हैं और अंत में सुख-सम्पत्ति का उपभोग प्राप्त होता है। तुम धैर्य धारण करो, शीघ्र ही तुम्हारे प्राणपति दैत्यराज मनोवाञ्छित वर प्राप्त करके आवेंगे और तुम्हारे सौभाग्य को सुशोभित करेंगे। वे अपने वरदान के प्रभाव से संसारभर का साम्राज्य पुनः प्राप्त करेंगे। देव, दानव ही नहीं, सारे दिग्पाल भी आशाभरी दृष्टियों से उनकी सेवा करेंगे और तीनों लोक तथा चौदहों भुवन में उनके विजय का डंका बजेगा। इतना ही नहीं, तुम्हारे इस गर्भ से जो बालक उत्पन्न होगा, वह तुम्हारे आगे और पीछे की न जाने कितनी पीढ़ियों को तारने वाला होगा एवं उस पुत्र के द्वारा तुम्हारा दैत्यकुल संसार में अनन्त काल तक प्रसिद्ध और प्रशंसित रहेगा। यदि तुम भयभीत हो और इस समय राजपाट छिन जाने तथा घर-द्वार नष्ट-भ्रष्ट हो जाने से तथा देवताओं के आतंक से तुमको कष्ट और भय हो तो भी तुमको घबराने का कोई कारण नहीं। तुम हमारे साथ हमारे आश्रम में चलो और सुख-शान्ति के साथ रहो। हे बेटी दानवसुता! तुम अधीर मत होओ। जब तुम्हारे पतिदेव तपस्या से लौट कर आवेंगे, तब हम तुमको उनकी सेवा में सुखपूर्वक पहुँचा देंगे।”
महर्षि नारद के आज्ञानुसार महारानी कयाधू उनके आश्रम को गयीं और उनकी पर्णकुटीर में रहने लगीं। यद्यपि प्रसव-समय धीरे-धीरे समीप आने लगा तथापि महारानी कयाधू को प्रसव की चिन्ता न थी। क्योंकि महर्षि नारद की कृपा से उनको 'इच्छा-प्रसव' की शक्ति प्राप्त हो चुकी थी और वे निश्चिन्त थीं किन्तु दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पटरानी और दानवराज जम्भ की दुलारी पुत्री, जो सदा राजभवनों में निवास करती थीं, सैकड़ों दासियाँ जिनकी सेवा-शुश्रूषा में लगी रहती थीं और संसार का कोई ऐश्वर्य ऐसा न था, जो उनके पैरों पर लोटता न हो, वही महारानी आज जंगल की एक कुटी में महर्षि नारद की कृपा से अकेली काल क्षेप (समय काटना) कर रही हैं। यह कुटिल काल की गति और संसार के विचित्र विधाता की विचित्र मति के अतिरिक्त और क्या है? महर्षि नारद के वचनों से महारानी कयाधू बड़ी ही धीरता के साथ अपना समय काट रही थीं। फिर भी समय नहीं कटता था और कभी-कभी एकान्त में वह बहुत ही उदास और चिन्तित दीख पड़ती थीं। उनको चिन्तित देख कर एक दिन महर्षि नारदजी ने कहा– “हे बेटी! तुम चिन्ता मत करो। तुम्हारे दिन शीघ्र ही लौटनेवाले हैं।” महर्षि नारद के वचनों को सुन कर महारानी कयाधू ने कहा कि “भगवन्! मैं अपने शारीरिक सुख के लिये चिन्तित नहीं, मेरे पुत्रों को देवराज इन्द्र ने बन्दी बना लिया था, मेरे न जाने कितने पितृकुल के सगे-सम्बन्धी बन्दी बन गये थे, उनकी क्या दशा होगी? मुझे इसी बात की चिन्ता रहती है। मुझे आपके वचनों पर और आपके आशीर्वाद पर पूरा विश्वास है अतएव मुझे प्राणपति दैत्यराज की चिन्ता नहीं।” इस प्रकार समय-समय पर महर्षि नारद और महारानी कयाधू के बीच बातें हुआ करती थीं और समय भी अपनी अप्रतिहत गति से आगे बढ़ता चला जाता था।

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