परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग26-दैत्यर्षि प्रह्लाद का शासन Praveen kumrawat द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग26-दैत्यर्षि प्रह्लाद का शासन


[महर्षि शुक्राचार्य की नीति-शिक्षा, महर्षि नारदजी का उपदेश]
राजसिंहासन पर बैठने के साथ ही दैत्यर्षि प्रह्लाद ने जिस संयम और नियम के साथ शासनसूत्र को चलाया, वह परमभागवत प्रह्लाद के अनुरूप ही था। दैत्यर्षि के सिंहासनासीन होते ही सारे भूमण्डल में फिर एक बार सुखद साम्राज्य के प्रभाव से सत्ययुग ने अपना सत्ययुगी रूप धारण कर लिया। परलोकवासी हिरण्यकशिपु के आतंकपूर्ण शासनकाल में सारी प्रजा में विशेषकर शान्तिप्रिय वैष्णव जनता में जितना ही अधिक भय, कष्ट, अशान्ति एवं विपत्तियाँ छायी हुई थीं, उतना ही अधिक अभय, सुख, शान्ति और सम्पत्ति दैत्यर्षि प्रह्लाद के राजत्वकाल में चारों ओर दिखलायी देने लगीं।

सुशासन की सुविधा के लिये जितने नये नियमों के निर्माण की आवश्यकता होती उतने ही नियम दैत्यर्षि प्रह्लाद अपने राजपण्डितों और तपोधन महर्षियों से सम्मति ले और सत् प्रजाजन की रुचि के अनुरूप निर्माण कराते थे। अतएव उनकी प्रजा में, राजसभा में और धर्मप्राण तपोधन महर्षियों में उनके शासन से पूर्ण शान्ति और सन्तोष फैल गया। राज्य में जिन प्राणियों के कारण शान्ति-प्रिय प्रजाजनों को कष्ट था, दीन-दुखियों को त्रास था। निर्दोष धनियों के धन की लूट थी, जिन प्राणियों के अत्याचार से प्रजा के जानमाल की या तो हानि हो रही थी या हानि होने की सम्भावना थी, उन सब अत्याचारियों को, चाहे वे राजकर्मचारी थे, राजसम्बन्धी थे या प्रजाजन में से थे, अधिकारच्युत कर दैत्यर्षि ने ऐसे आदर्श दण्ड दिये कि जिससे वे तो सदा के लिये शान्त हो ही गये, किन्तु दूसरों की भी वैसे कर्म करने की वासना नहीं रही।

दैत्यर्षि प्रह्लाद के शासनकाल में चारों वर्ण और चारों आश्रम के धर्मों का ऐसा सुन्दर पालन होने लगा कि, बहुत ही थोड़े काल में उनके पिता के समय की धर्म एवं धनहीन प्रजा धर्मप्राण एवं सर्वतोभाव से समृद्धिशालिनी बन गयी। जैसे पिता अपने पुत्र की भलाई के लिये सोते-जागते रात-दिन चिन्तित रहता है और उसके लिये नित्य नये-नये उपाय किया करता है, ठीक उसी प्रकार दैत्यर्षि प्रह्लाद भी पुत्र-समान अपनी प्रजा की भलाई में लगे रहने लगे।

सारे साम्राज्य में मातृहीन प्रजा अपनी माता के अभाव को और पितृहीन प्रजा अपने पिता के अभाव को भूल सी गयी। दैत्यर्षि प्रह्लाद ने अपनी सभी श्रेणी की प्रजा, जनता और अन्य
प्राणियों के भी पालन, पोषण, शिक्षण और संवर्धन के लिये ऐसा सुन्दर प्रबन्ध कर दिया कि, किसी को किसी प्रकार की पीड़ा एवं असुविधा नहीं रही। सब लोग परम प्रसन्न होकर दैत्यर्षि की जय-जयकार करने लगे।

यद्यपि दैत्यर्षि के साम्राज्य में कोई शासन सम्बन्धी त्रुटि नहीं थी, तथापि अपने शासन-सम्बन्धी गुप्त समाचारों को पाने के लिये
दैत्यर्षि की ओर से अनेक गुप्त दूत केवल इसी काम के लिये रक्खे गये थे कि, वे देखते रहें कि शासन में कहाँ पर क्या त्रुटि है। प्रजा में शासन की ओर से असन्तोष तो नहीं है। इतना ही नहीं, उन गुप्त दूतों को यह भी आदेश था कि, वे देखते रहें कि राजा के कार्यों की कहीं पर अनुचित आलोचना तो नहीं हो रही है?

दैत्यर्षि प्रह्लाद के शासन में देश के कला-कौशल, कृषि-व्यापार आदि लौकिक-विषयों की जितनी ही उन्नति हुई उतनी ही उन्नति वेद-वेदाङ्ग, स्मृति-पुराण आदि पारमार्थिक आवश्यक शिक्षाओं की भी हुई। उनके पिता के समय साम्राज्य में जितने ही विष्णु-मन्दिरों और वैष्णवों के पवित्र स्थानों को तहस-नहस किया गया था, उतने ही अधिक दैत्यर्षि प्रह्लाद के राजत्वकाल में नये-नये विष्णु-मन्दिरों और वैष्णवों के पवित्र स्थानों का निर्माण और पुराने नष्ट-भ्रष्ट मन्दिरों एवं धर्म-स्थानों का जीर्णोद्धार हुआ।

इसमें सन्देह नहीं कि निष्काम हृदय दैत्यर्षि प्रह्लाद को
राजकाज में रात-दिन लिप्त देखकर कुछ मन्दमति लोग मन-
ही-मन कहते थे कि, 'जब तक प्रह्लाद के हाथ में राज्याधिकार नहीं था, तब तक तो ये बड़ी-बड़ी त्याग की बातें करते थे और राजपाट को संसार का कठिन बन्धन बतलाया करते थे, किन्तु जबसे स्वयं सम्राट् हुए हैं, तब से वे वेदान्त और भक्ति की बातें, वे त्याग के उपदेश और वह मोक्ष की महिमा हवा हो गयी है और राजपाट में स्वयं ही ऐसे चिपट गये हैं, जैसे मीठी वस्तुओं में चींटे चिपट जाते हैं और जीते-जी छोड़ना नहीं चाहते।' लोगों का यह अनुमान अनुचित भी नहीं था, क्योंकि वे लोग दैत्यर्षि प्रह्लाद को अपनी दृष्टि से देखते थे, अपनी क्षुद्र-बुद्धि के तराजू पर तौलते थे। किन्तु प्रह्लाद में वस्तुतः ऐसी बात नहीं थी। वहाँ का रहस्य कुछ और ही था। दैत्यर्षि प्रह्लाद के स्वभाव में साम्राज्य प्राप्ति से रत्तीभर भी परिवर्तन नहीं हुआ था। ब्रह्मचारी प्रह्लाद में और सम्राट् प्रह्लाद में तनिक-सा अन्तर नहीं पड़ा था। प्रत्यक्ष में जो कुछ अन्तर दिखलायी पड़ता था, वह लोगों के दृष्टिकोण का दोष था, उनके स्वभाव का नहीं। प्रह्लादजी जो कुछ करते थे सो सब भगवान् की आज्ञानुसार भगवत्प्रेरणा से भगवान् के लिये ही करते थे।

प्रह्लाद सम्राट् होकर भी पूर्ववत् निरभिमानी थे, शासन-दण्डधारी होकर भी प्राणिमात्र के लिये दयानिधान थे और गृहाश्रमी होकर भी परम विरागी थे। वे संसार को पूर्ववत् ही अब भी बन्धन ही समझते थे और उससे स्वयं दूर होने तथा समस्त प्राणियों को उससे दूर रखने की चेष्टा करते थे। वे जो कुछ करते थे सब इसी भावना से करते थे कि यह संसार हमारे प्रभु का विराट स्वरूप है। इसके एक-एक अङ्ग की भक्ति करना, एक-एक अङ्ग की सेवा और पूजा करना हमारा दैत्यर्षि प्रह्लाद का शासन धर्म और कर्तव्य है। दैत्यर्षि अपने साम्राज्य का शासन इसी दृष्टि से करते थे और इसीलिये वे अपने आपको साम्राज्य के अधीश्वर नहीं, किन्तु साम्राज्यरूपी भगवत्-शरीर के कर्तव्यपरायण सेवक समझते थे और इसी कारण उनके हृदय में न तो अभिमान का लेश था और न क्रोध आदि छओ शत्रुओं के विकारी भाव ही थे। दैत्यर्षि प्रह्लाद के सर्वप्रिय होने का यही कारण था कि, उनको सारा साम्राज्य, अपनी सारी प्रजा समानरूप से प्यारी थी। वे सचमुच ‘समत्वमाराधनमच्युतस्य' के पुजारी थे।

जो अनवरत चलने वाला समय दैत्यराज हिरण्यकशिपु के राजत्वकाल में प्रजाजन के काटे नहीं कटता था और 'क्षणमपि यामति यामो दिवसति दिवसाश्च कल्पन्ति' अर्थात् 'एक क्षण पहर भर के बराबर, पहर दिन के बराबर और दिन कल्प के बराबर भारी प्रतीत होता था।' वही समय दैत्यर्षि प्रहलाद कि अमलदारी में ठीक उसके विपरीत अर्थात् युगों का समय दिनों के समान शीघ्र बीतने लगा। इस प्रकार बहुत काल हो जाने पर भी प्रजा को यही प्रतीत होता था कि प्रह्लाद को तो अभी-अभी साम्राज्य प्राप्त हुआ है। ईश्वर करें अभी वे बहुत दिनों तक
शासन करते रहें। यह सब कुछ था, किन्तु काल तो किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। उसका चरखा तो किसी समय भी बन्द ही नहीं होता। उसकी गति अनवरत है। वह किसी के मान का नहीं। धीरे-धीरे दैत्यर्षि प्रह्लाद को अपने गार्हस्थ्यजीवन का भी आनन्द मिलने लगा और पुत्र-पौत्रादि के सुख का भी समय आ गया। महारानी 'सुवर्णा' उनकी एकमात्र धर्मपत्नी थीं और वे 'एकनारी ब्रह्मचारी' की उक्ति के अनुसार सदा शास्त्र मर्यादा का
पालन करते हुए ब्रह्मचारी रहते थे। महारानी सुवर्णा के गर्भ से प्रह्लादजी के कितने पुत्र हुए, इस सम्बन्ध में लोगों में मतभेद है। महाभारत के उद्योगपर्व के ३५ वें अध्याय में महर्षि सुधन्वा के प्रसङ्ग में जो उपाख्यान है, उससे प्रतीत होता है कि प्रह्लादजी के विरोचन ही एकमात्र पुत्र थे। पद्मपुराण के अनुसार प्रह्लादजी
के चार पुत्र थे— आयुष्यमान्, शिवि, वाष्कलि और विरोचन। इसी प्रकार किसी-किसी के मत से गवेष्ठि नामक एक पाँचवाँ पुत्र भी था, किन्तु उनके मुख्य पुत्र या यों कहें कि राजवंशधर विरोचन थे, इसमें सन्देह नहीं।

दैत्यर्षि प्रह्लाद का सारा साम्राज्य उनका परिवार था, सारी प्रजा को वे निज पुत्रवत् प्रेम करते थे । फिर भी सांसारिक दृष्टि से उनको पुत्रों के जन्म-काल में अवश्य ही आनन्द-मंगलोत्सव मनाना पड़ता था और विशेषकर राजमाता कयाधू के सन्तोष और अनुमोदन के लिये। धीरे-धीरे राजकुमार बढ़ने लगे, उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध दैत्यर्षि प्रह्लादजी ने अपने विचारानुसार ही किया, किन्तु दैत्यवंश का प्रभाव उनके पुत्रों में, सभी राजकुमारों में विशेषरूप से भरा था। विद्वान् होने पर भी राजकुमारों में अभिमान था, देव-ब्राह्मण-द्रोह था और आसुरी-भाव थे। यद्यपि दैत्यर्षि प्रह्लाद के भय से उनके देव-द्विज-द्रोही भाव प्रकट नहीं होते थे तथापि भीतर-ही-भीतर वे भाव बढ़ते जा रहे थे और साथ ही दृढ़ भी होते जा रहे थे। गुप्तदूतों द्वारा प्रह्लादजी को अपने पुत्रों के हार्दिक भाव धीरे-धीरे विदित हुए और इसलिये ब्रह्मण्यदेव विष्णु के अनन्य भक्त प्रह्लाद के हृदय में एक भारी चिन्ता उत्पन्न हुई। वे इस बात की चिन्ता करने लगे कि पुत्रों को देवद्रोही एवं द्विजद्रोही आसुरी भाव से किस प्रकार बचाये और उनको कैसे सुधारें?

एक दिन दैत्यर्षि प्रह्लाद राजसभा में बैठे हुए थे। इतने में द्वारपाल ने आकर महर्षि नारदजी के पधारने का संवाद सुनाया। महर्षि का शुभागमन सुन प्रह्लादजी के आनन्द की सीमा न रही। वे तुरन्त राजद्वार पर जा पहुँचे। महर्षि नारद के चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम किया और आगे कर उनको राजसभा में ले गये। राजसभा में महर्षि को अर्ध्य, पादार्ध्य दे उनका सविधि पूजन किया और स्वयं महारानी सुवर्णा ने उनकी आरती की। महर्षि नारदजी की आज्ञा से दैत्यर्षि बैठ गये और महारानी सुवर्णा भी अपने पुत्रों के सहित बैठ गयीं। सारी राजसभा में प्रसन्नता छा गयी। सब लोगों ने एक स्वर से सम्राट् प्रह्लाद के सहित महर्षि नारद का जय-जयकार किया। सभासदों के यथास्थान बैठ जाने और जनरव के शान्त हो जाने पर महर्षि नारदजी ने कहा 'दैत्यर्षि प्रह्लाद! यद्यपि हमारे आगमन से तुम बड़े प्रसन्न प्रतीत होते हो, किन्तु तुम्हारी आन्तरिक चिन्ता के भाव छिपाने पर भी छिपते नहीं हैं। यह क्या बात है? तुमको किस बात की चिन्ता है? जिसको शस्त्रों के आघात की चिन्ता नहीं हुई, मतवाले हाथियों से कुचले जाने में चिन्ता नहीं हुई, सर्पों से काटे जाने में चिन्ता नहीं हुई और महागरल के खिलाये जाने पर भी चिन्ता न हुई। बेटा! जिसको प्रासाद और पहाड़ों की चोटियों पर से गिराये जाने की चिन्ता न थी, समुद्र में डुबाये जाने की चिन्ता न थी, अग्नि की महाचिता में बिठाले जाने की चिन्ता न थी और प्रबल पराक्रमी दैत्यराज हिरण्यकशिपु के अचूक खड्ग प्रहार की भी चिन्ता नहीं थी, वही आज चिन्तित क्यों है? तुरन्त बतलाओ। तुम जैसे परमभागवत की चिन्ता से भगवान् स्वयं चिन्तित होते हैं। अतएव मुझे बतलाओ कि तुम्हारी चिन्ता का कारण क्या है?'
दैत्यर्षि प्रह्लाद– ‘भगवन्! आप तो अन्तर्यामी हैं और इसी कारण आपको लोग भगवान् का मन कहते हैं। फिर आप मुझसे चिन्ता का कारण पूछते हैं, यही अचरज की बात है।"
महर्षि नारद– 'राजन्! जिस राजा के राज्य में गो, द्विज,
देवताओं की यथोचित रक्षा, सेवा और पूजा न होती हो तो उस राजा को चिन्ता करनी चाहिए। जिस राज्य में दीन-हीन प्रजा को मदान्ध बलशाली लोग सताते हों और उनको यथोचित दण्ड देने का विधान न हो, उस राज्य के स्वामी को चिन्ता होनी चाहिए। जिस राजा के शासन में पक्षपात किया जाता हो, समत्वभाव न हो उसको चिन्ता होनी चाहिए। जिस राजा के साम्राज्य में नदियाँ जलपूर्ण न हों, सरोवरों में जल न भरा हो, वापी और कूप स्थान-स्थान पर आवश्यकतानुसार न बने हों, तथा किसानों को खेती के लिये, पशुओं को स्वतन्त्र विचरण के समय पीने के लिये, नगरनिवासियों, ग्रामनिवासियों और वनयात्रा करने वाले बनजारों के लिये ही नहीं, समस्त यात्रियों के लिये भी मार्गों में सुजल का प्रबन्ध न हो, उस राजा को चिन्ता करनी चाहिए। जिस राजा की अधिकृत भूमि में लँगड़े-लूले, अन्धे, अपाहिज और भाँति-भाँति के पीड़ित रोगियों के भरण-पोषण एवं औषधादि के लिये सुचारुरूप से प्रबन्ध न हो, उस राजा को चिन्ता करनी चाहिए। जिस राजा के शासन के भय से चारों वर्ण और चारों आश्रम का धर्म यथावत् पालन न होता हो और वर्णविप्लव अथवा आश्रमविप्लव उपस्थित हो, उस राजा को
चिन्ता करनी चाहिए। जिस राजा के राज्य में महर्षिगण
अधिकारानुसार बालकों को अपने-अपने आश्रमों में शिक्षा न देने पाते हों और यज्ञानुष्ठान आदि करने में कठिनाई अथवा बाधाएँ उपस्थित होती हों, उस राजा को चिन्ता करनी चाहिए। परमभागवत प्रह्लाद! जिस राजा के राज्य में बालकों में नास्तिकता के भाव जग रहे हों और उनके शिक्षकों का उनके ऊपर प्रभाव न हो, उस राजा को चिन्ता करनी चाहिए। और जिस राजा के हृदय में सर्वव्यापी परमात्मा के ऊपर विश्वास न हो परन्तु जो स्वयं अपने पुरुषार्थ पर भरोसा करता हुआ, अपनी त्रुटि देखे, उसको ही चिन्ता करनी चाहिए। हम नहीं जानते कि तुमको इन बातों में से किस बात की चिन्ता है ?
प्रह्लाद–‘ऋषिराज! आपने प्रश्न के रूप में मुझे जो उपदेश दिया है इसके लिये मैं आपके चरणों में बारम्बार प्रणाम करता हूँ। भगवन् आपके उस समय के उपदेश ने, जब कि मैं गर्भ में था, मुझे घोर संकटरूपी समुद्र में दृढ़ नौका का काम दिया था और उन्हीं उपदेशों के फल से मेरा यह नारकीय जीवन स्वर्ग ही नहीं, परमपद के सुख का अनुभव कर रहा है किन्तु राजकाज के
मायाजाल में पड़ भगवान् की मायावश उस उपदेश का कुछ विस्मरण-सा हो रहा था। अतएव मैंने अपने पुत्रों के आसुरी भावों को मिटाने में अपने पुरुषार्थ का आश्रय लिया और उसमें असफलता देख मेरे हृदय में चिन्ता उत्पन्न हुई थी, किन्तु आज आपके पुनः स्मरण दिलाने से और उपदेश के दोहराने से मेरा भ्रम दूर हो गया और मेरी सारी चिन्ता अपने-आप विलीन हो गयी। इसलिये नाथ! आपकी इस अहेतुकी कृपा के लिये मैं बारम्बार आपके चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम करता हूँ। अब मुझे कोई चिन्ता नहीं है।'
दैत्यर्षि प्रह्लाद की चिन्ता दूर हुई, तदनन्तर महर्षि नारदजी ने राजसभा से जाने की इच्छा प्रकट की। प्रह्लाद ने अपनी महारानी और पुत्रों के सहित उनके चरणों में प्रणाम किया और उनको विदा किया। महारानी सुवर्णा अन्तःपुर को गयीं और विरोचन आदि पुत्र अपने-अपने कामों में लगे। दैत्यर्षि भी अपने राजकाज को देखने-भालने लगे।

महर्षि शुक्राचार्यजी परिभ्रमण करने के बड़े प्रेमी थे, वे
बहुधा चारों ओर घूमा ही करते थे, तीर्थयात्रा से लौटे उनको अधिक दिन बीत गये थे। अतएव एक जगह बहुत दिनों तक रहने से उनका जी उकता रहा था। उनका विचार फिर तीर्थयात्रा करने का था और इस बार वे सम्राट् प्रह्लाद के साथ तीर्थयात्रा करना चाहते थे! एक दिन राजसभा में प्रह्लादजी बैठे हुए थे। इसी बीच में सहसा महर्षि शुक्राचार्यजी वहाँ आ पहुँचे।
दैत्यर्षि प्रह्लाद ने उनको आते देख राजसिंहासन से उतर साष्टाङ्ग प्रणाम किया और एक ऊँचे आसन पर बैठाया। तदनन्तर उनका सविधि पूजन कर हाथ जोड़कर कहा– “भगवन्! क्या आज्ञा है?”
शुक्राचार्य– 'वत्स दैत्यर्षि! भगवत्कृपा से इस समय तुम
सर्वसुखसम्पन्न हो, दूध-पूत से भरे-पूरे हो और तुम्हारे धार्मिक विचारों से सारा साम्राज्य सुख-समृद्धिपूर्ण हो रहा है। तुम्हारे वेदान्त-भाव का तुम्हारे प्रजाजनों पर भी भली भाँति प्रभाव पड़ा है और लोग सर्वव्यापी जगदीश्वर को सर्वव्यापी मानते और समता के भाव से प्रेरित परस्पर सद्भाव करते दिखलायी पड़ते हैं किन्तु सारा संसार समदर्शी नहीं हो सकता। सारे प्राणी सर्वव्यापी ईश्वर की आराधना नहीं कर सकते। इसी कारण सृष्टि की रचना के साथ-ही-साथ जीवों के कल्याणार्थ तीर्थ-स्थानों एवं दिव्य-देशों की रचना भी भगवान् की इच्छा ही से होती है। तीर्थयात्रा द्वारा साधारण-से-साधारण प्राणी भी अपने जीवन को सफल बना सकते हैं और योगिदुर्लभ फल को प्राप्त कर सकते हैं। यह भी देखा जाता है, जो आचरण बड़े लोग करते हैं वही आचरण उन्हीं के प्रमाण से उनसे छोटे लोग भी करते हैं। अतएव बड़े लोगों के आचरणानुसार संसार बन जाता है। 'यथा राजा तथा प्रजा' की नीति से इस समय तुम्हारे साम्राज्य में वेदान्त का अनुशीलन बढ़ गया है। इसमें सन्देह नहीं कि बहुत से लोग सच्चे वेदान्ती हैं किन्तु उन्हीं की तरह न जाने कितने ढोंगी भी हैं जो कहा करते हैं कि अपने शरीर में ही सारे तीर्थ हैं। तीर्थाटन करना ही व्यर्थ है। इस प्रकार तुम्हारे साम्राज्य में तीर्थ यात्रा का महत्त्व धीरे-धीरे घटता जा रहा है, परन्तु ये लक्षण अच्छे नहीं हैं।'
दैत्यर्षि प्रह्लाद– ‘आचार्यचरण! अवश्य ही ये लक्षण बुरे हैं। मेरा तो यह कभी अभिप्राय नहीं था कि लोग झूठे वेदान्ती बनें और ज्ञानी के मानी तीर्थों की निन्दा, यज्ञों की निन्दा, कर्म-काण्ड की निन्दा और दान-पुण्य की निन्दा करना ही समझें। किन्तु किया क्या जाय, ऐसे ही भाव प्रायः लोगों में देखे जा रहे हैं। यह बड़े दुःख और चिन्ता की बात है। स्वामिन् ! इस अनर्थ के मिटाने का उपाय और इस अपराध के लिये मुझको प्रायश्चित्त बतलावें। मैं उस प्रायश्चित्त को करने के लिये अभी तैयार हूँ।'
शुक्राचार्य– 'वत्स प्रह्लाद! इसका प्रायश्चित्त यही सर्वोत्तम है कि जो प्रजा तुम्हारी पदानुगामिनी बन रही है, उसको स्वयं आचरण करके सन्मार्ग दिखलाओ। तुम अपने दल-बल-सहित स्वयं तीर्थ-यात्रा को चलो और तीर्थाटन करके अपनी प्रजा के लिये आदर्श बनो। ऐसा करने से तुम्हारी प्रजा तुम्हारा पदानुसरण करेगी जिससे सारा अनर्थ मिट जायगा और तुम्हारा प्रायश्चित्त भी हो जायगा।'
दैत्यर्षि प्रह्लाद ने शुक्राचार्यजी की आज्ञा शिरोधार्य की और अपने लड़कों को मन्त्रियों की अवधानता में राजभार सौंप, तीर्थाटन के लिये तैयारी की। दैत्यर्षि ने आचार्यजी से कहा कि 'भगवन्! यद्यपि लड़के राजनीति में निपुण हैं और अन्यान्य शासन-सम्बन्धी योग्यता भी इनमें देखी जाती है तथापि अभी तक इन्होंने कभी राजभार अपने ऊपर नहीं लिया था। अतएव सम्भव है कि इनमें कोई त्रुटि हो। आप इनको राजनीति की शिक्षा देकर आशीर्वाद देने की कृपा करें जिससे मेरी अनुपस्थिति में ये यथोचित राजकाज करने में समर्थ हों और मेरी प्रजा को कष्ट न हो।' प्रह्लादजी के प्रार्थनानुसार महर्षि शुक्राचार्यजी ने विरोचन आदि पुत्रों को राजनीति के गूढ़ रहस्यों का उपदेश दिया। तदनन्तर सम्राट् प्रह्लाद ने दल-बल-सहित तीर्थ यात्रा के लिये प्रस्थान किया।

तीर्थ-यात्रा के समस्त नियमों का पालन करते हुए प्रह्लाद ने श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक समस्त तीर्थों की यात्रा समाप्त की। तदनन्तर कुछ समय तक त्रिकूट पर्वत पर विश्राम किया। फिर पाताल के तीर्थों की यात्रा की और वहाँ से लौट कर महर्षि च्यवन के साथ नैमिषारण्य में आये। वहाँ श्रीनर-नारायण की प्रसन्नता प्राप्त कर अपनी राजधानी हिरण्यपुर को लौटे!