[प्रह्लाद की दयालुता राजसभा में तीसरी बार प्रह्लाद का बुलावा]
दैत्यराज की आज्ञा पाते ही आचार्य पुत्रों ने प्रह्लाद को अपने पास बुलाकर उनसे कहा “हे आयुष्मन्! तुम त्रिलोकी में विख्यात ब्रह्माजी के कुल में उत्पन्न हुए हो और दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पुत्र हो। तुम्हें देवता अनन्त भगवान अथवा और भी किसी से क्या प्रयोजन है? तुम्हारे पिता तुम्हारे तथा सम्पूर्ण लोकों के आश्रय हैं और तुम भी ऐसे ही होगे। इसलिये तुम यह विपक्ष की स्तुति करना छोड़ दो। तुम्हारे पिता सब प्रकार प्रशंसनीय है और वे ही समस्त गुरुओं में परम गुरु हैं। अतः तुम उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करो।”
प्रहलाद जी बोले– हे महाभागगण! यह ठीक ही है। इस सम्पूर्ण त्रिलोकी में भगवान् मरीचि का यह महान् कुल अवश्य ही प्रशंसनीय है। इसमें कोई कुछ भी अन्यथा नहीं कह सकता और मेरे पिताजी भी सम्पूर्ण जगत् में बहुत बड़े पराक्रमी है यह भी मैं जानता हूँ। यह बात भी बिलकुल ठीक है, अन्यथा नहीं और आपने जो कहा कि समस्त गुरुओं में पिता ही परम गुरु है— इसमें भी मुझे लेशमात्र सन्देह नहीं है पिताजी परम गुरु हैं और प्रयत्नपूर्वक पूजनीय है इसमें कोई सन्देह नहीं। और मेरे चित्त में भी यही विचार स्थित है कि मैं उनका कोई अपराध नहीं करूंगा किन्तु आपने जो यह कहा कि ‘तुझे अनन्त से क्या प्रयोजन है?’ सो ऐसी बात को भला कौन न्यायोचित कह सकता है? आपका यह कथन किसी भी तरह ठीक नहीं है। ऐसा कहकर वे गुरु का गौरव रखने के लिये चुप हो गये और फिर हँसकर कहने लगे “तुझे अनन्त से क्या प्रयोजन है?” इस विचार को धन्यवाद है! हे मेरे गुरुगण! आप कहते हैं कि तुझे अनन्त से क्या प्रयोजन है? धन्यवाद है आपके इस विचार को अच्छा, यदि आपको बुरा न लगे तो मुझे अनन्त से जो प्रयोजन है सो सुनिये धर्म, अर्थ काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ कहे जाते हैं। ये चारों ही जिनसे सिद्ध होते हैं, उनसे क्या प्रयोजन? आपके इस कथन को क्या कहा जाय! उन अनन्त से ही दक्ष और मरीचि आदि तथा अन्यान्य ऋषीश्वरों को धर्म, किन्हीं अन्य मुनीश्वरों को अर्थ एवं अन्य किन्हीं को काम की प्राप्ति हुई है। किन्हीं अन्य महापुरुषों ने ज्ञान, ध्यान और समाधि के द्वारा उन्ही के तत्व को जानकर अपने संसार-बन्धन को काटकर मोक्षपद प्राप्त किया है अतः सम्पत्ति, ऐश्वर्य, माहात्म्य, ज्ञान, सन्तति और कर्म तथा मोक्ष इन सबकी एकमात्र मूल श्रीहरि की आराधना ही उपार्जनीय है। हे द्विजगण! इस प्रकार, जिनसे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ये चारों ही फल प्राप्त होते हैं उनके लिये भी आप ऐसा क्यों कहते हैं कि ‘अनन्त से तुझे क्या प्रयोजन है?’ और बहुत कहने से क्या लाभ? आप लोग तो मेरे गुरु हैं उचित-अनुचित सभी कुछ कह सकते हैं और मुझे तो विचार भी बहुत ही कम है इस विषय में अधिक क्या कहा जाय? [मेरे विचार से तो] सबके अन्तःकरणों में स्थित एकमात्र वे ही संसार के स्वामी तथा उसके रचयिता, पालक और संहारक हैं वे ही भोक्ता और भोज्य तथा वे ही एकमात्र जगदीश्वर हैं। हे गुरुगण मैंने बाल्यभाव से यदि कुछ अनुचित कहा हो तो आप क्षमा करें।
पुरोहितगण बोले– “अरे बालक! हमने तो यह समझकर कि तू फिर ऐसी बात न कहेगा तुझे अग्नि में जलने से बचाया है। हम यह नहीं जानते थे कि तू ऐसा बुद्धिहीन है? रे दुर्मते! यदि तू हमारे कहने से अपने इस मोहमय आग्रह को नहीं छोड़ेगा तो हम तुझे नष्ट करने के लिये कृत्या उत्पन्न करेंगे।”
प्रह्लादजी बोले– “कौन जीव किससे मारा जाता है और कौन किससे रक्षित होता है? शुभ और अशुभ आचरणों के द्वारा आत्मा स्वयं ही अपनी रक्षा और नाश करता है। कर्मो के कारण ही सब उत्पन्न होते हैं। और कर्म ही उनकी शुभाशुभ गतियों के साधन है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक शुभकर्म का ही आचरण करना चाहिये।” उनके ऐसा कहने पर उन दैत्यराज के पुरोहितों ने क्रोधित होकर अग्निशिखा के समान प्रज्वलित शरीर वाली कृत्या (मारण के प्रयोग में एक मन्त्र द्वारा उत्पन्न की गयी राक्षसी होती है, जो मृत्यु के समान ही भयानक होती है।) उत्पन्न कर दी उस अति भयंकरी ने अपने पादाघात से पृथिवी को कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोध से प्रह्लादजी की छाती में त्रिशूल से प्रहार किया किन्तु प्रहलादजी के वक्षःस्थल में लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर पृथिवी पर गिर पड़ा और वहाँ गिरने से भी उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये जिस हृदय में निरन्तर अक्षुण्णभाव से श्रीहरिभगवान् विराजते हैं उसमें लगने से तो वज्र के भी टूकड़े-टूकड़े हो जाते हैं, त्रिशूल की तो बात ही क्या है? उन पापी पुरोहितों ने उस निष्पाप बालक पर कृत्या का प्रयोग किया था इसलिये तुरन्त ही उसने उन पर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गयी। अपने गुरुओं को कृत्या द्वारा जलाये जाते देख महामति प्रह्लाद ‘हे कृष्ण! रक्षा करो। हे अनन्त! बचाओ!’ ऐसा कहते हुए उनकी ओर दौड़े।
प्रह्लादजी कहने लगे “हे सर्वव्यापी विश्वरूप, विश्वसृष्टा जनार्दन! इन ब्राह्मणों की इस मन्त्राग्निरूप दुःसह दुःखसे रक्षा करो। सर्वव्यापी जगदुरु भगवान् विष्णु सभी प्राणियों में व्याप्त है इस सत्य के प्रभाव से ये पुरोहित गण जीवित हो जायें यदि मैं सर्वव्यापी और अक्षय श्रीविष्णुभगवान् को अपने विपक्षियों में भी देखता हूँ तो ये पुरोहितगण जीवित हो जायँ जो लोग मुझे मारने के लिये आये, जिन्होंने मुझे विष दिया, जिन्होंने आग में जलाया, जिन्होंने दिग्गजों से पीड़ित कराया और जिन्होंने सर्पों से डँसाया उन सबके प्रति यदि मैं समान मित्रभाव से रहा हूँ और मेरी कभी पाप बुद्धि नहीं हुई तो उस सत्य के प्रभाव से ये दैत्यपुरोहित जी उठें।” धन्य है क्षमा के सागर भक्तवर प्रह्लाद! और धन्य आपकी भक्ति का अनुपम आदर्श! स्तुति समाप्त होते ही भगवत्कृपा से पुरोहित उठ बैठे और परम प्रसन्न होकर कृतज्ञ-हृदय से प्रह्लादजी को आशीर्वाद देने लगे
“बेटा प्रह्लाद! तुमने हमारे प्राण बचाये हैं इसलिये
तुम दीर्घायु होओ। तुम्हारा बलवीर्य अप्रतिहत किसी के जीतने योग्य न हो। हे उत्तम विचार के बालक! तुम पुत्र, पौत्र एवं धन-ऐश्वर्य से युक्त होकर सदा सुखी रहो।”
पुरोहितों ने आशीर्वाद दे दैत्यराज के पास जाकर उनको सारा वृत्तान्त सुनाया। —(विष्णु पुराण 1|18|11-46)
दैत्यराज ने पुरोहितों के वचनों को सुनकर प्रह्लाद को राजसभा में बुलवाया। प्रह्लाद ने जाकर अपने पिताजी को तथा पूज्य जनों को सादर प्रणाम किया। पिता की आज्ञा से प्रह्लाद के आसन पर बैठ जाने के अनन्तर दैत्यराज ने उनसे कहा कि “हे प्रह्लाद! तुम बड़े प्रभावशाली हो, भला यह तो बतलाओ कि तुम्हारे यह जो अद्भुत चरित्र दिखलायी देते हैं, ये सब मन्त्रादिजनित है अथवा यह तुम्हारा स्वाभाविक प्रभाव है?”
पिता के इस प्रकार पूछने पर दैत्यकुमार प्रह्लादजी ने पिता के चरणों में प्रणाम कर इस प्रकार कहा
“न मन्त्रादिकृतं तात न च नैसर्गिको मम।
प्रभाव एष सामान्यो यस्य यस्याच्युतो हृदि॥
अन्येषां यो न पापानि चिन्तयत्यात्मनो यथा।
तस्य पापागमस्तात हेत्वभावान्न विद्यते॥
कर्मणा मनसा वाचा परपीडां करोति यः।
तद्वीजं जन्म फलति प्रभूतं तस्य चाशुभम्॥
सोऽहं न पापमिच्छामि न करोमि वदामि वा।
चिन्तयन्सर्वभूतस्थमात्मन्यपि च केशवम्॥
शारीरं मानसं दुःखं दैवं भूतभवं तथा।
सर्वत्र शुभचित्तस्य तस्य मे जायते कुतः॥
एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी।
कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम्॥” –(विष्णु पुराण 1|19|4-9)
अर्थात “पिताजी मेरा यह प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है और न स्वाभाविक ही है, बल्कि जिस-जिस के हृदय में श्रीअच्युतभगवान् का निवास होता है उसके लिये यह सामान्य बात है। जो मनुष्य अपने समान दूसरो का बुरा नहीं सोचता, हे तात! कोई कारण न रहने से उसका भी कभी बुरा नहीं होता जो मनुष्य मन, वचन या कर्म से दूसरों को कष्ट देता है उसके उस परपीड़ारूप बीज से ही उत्पन्न हुआ उसको अत्यन्त अशुभ फल मिलता है अपने सहित समस्त प्राणियों में श्रीकेशव को वर्तमान समझकर में न तो किसी का बुरा चाहता हूँ और न कहता या करता ही हूँ इस प्रकार सर्वत्र शुभचित्त होने से मुझको शारीरिक, मानसिक, दैविक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार प्राप्त हो सकता है? इसी प्रकार भगवान् को सर्वभूतमय जानकर विद्वानों को सभी प्राणियों में अविचल भक्ति (प्रेम) करनी चाहिये"
प्रह्लादजी के युक्तियुक्त उपदेशमय धार्मिक वचन दैत्यराज के हृदय में तीक्ष्ण बाणों के समान लगे। कुछ समय तक क्रोध और चिन्ता में चुप रहने के पश्चात् वह अपने मन्त्री की ओर देखकर कहने लगा “अब यह रोग असाध्य हो गया है। इसकी ओषधि करना ठीक नहीं। हमने जितना ही पुत्र वात्सल्य प्रदर्शित किया, उतना ही उसका बुरा परिणाम हुआ। अब इस बालक का, नहीं-नहीं, इस दैत्य-कुलांगार का अन्त कर देने में ही हमारा भला है। हे असुरवीरो! इसी समय इसको इस सतमंजिले महल के ऊपर से इस प्रकार नीचे पटको कि जिससे इसकी एक-एक हड्डी चूर हो जाय।” दैत्यराज की आज्ञा मिलते ही असुरों ने बड़े हर्ष एवं क्रोध के साथ प्रह्लाद को उठा कर प्रासाद के ऊपर से इतने ज़ोर से फेंका, कि जिससे नीचे गिरने पर उनका नाम निशान तक शेष न रह जाय, किन्तु जिन प्रह्लाद के हृदय में जगत् को धारण करने वाले भगवान् केशव विद्यमान हैं, जो सर्वत्र अपने प्रियतम भगवान् को देखते हैं उनके लिये तो सारा संसार समान है, वहाँ ऊँचे-नीचे का भाव कहाँ है? वे गिरें तो कैसे और कहाँ गिरें तथा उनके शरीर पर आघात लगे तो किसका? जैसे ही भगवान के परम भक्त प्रह्लाद को जगद्धात्री माता पृथ्वी ने ऊपर से आते देखा वैसे ही उन्होंने निकट जाकर प्रह्लाद को अपनी गोद में ले लिया प्रह्लाद पूर्ववत् स्वस्थ होकर प्रासाद के नीचे प्रसन्न वदन खड़े हो गये और तन्मय होकर भगवान् का ध्यान करने लगे। यह अद्भुत लीला देखकर दैत्यराज के हृदय में बड़ा विस्मय उत्पन्न हुआ। उसने समझा कि, अवश्य ही इसमें कोई जादू है, अतएव उसने अपने जादूगर 'मायावी शम्बर' नामक असुर से कहा कि “इस बालक में मायाजाल मालूम पड़ता है। मैंने इसको मारने की अनेक चेष्टाएँ कीं, किन्तु यह अब तक अपनी माया से बचता जा रहा है। आप माया के आचार्य हैं। अतएव इसकी माया को भली भाँति समझकर अपने मायाबल से शीघ्र ही इसका वध कर डालिये।” दैत्यराज की आज्ञा पाते ही शम्बर ने अपनी माया से प्रह्लाद को मारने की न जाने कितनी असफल चेष्टाएँ की। कभी वह उनको आकाश में उड़ा ले जाता, तो कभी तलातल में जा घुसता था, कभी शीत उत्पन्न करके प्रह्लाद को यों ही ठंडा कर देना चाहता। तो कभी बारहों सूर्य के तेजपुञ्ज के समान भयानक अग्नि-ज्वाला उत्पन्न करके उसमें उन्हें भस्म करने की चेष्टा करता था। कभी एकदम वायु को बन्द कर प्रह्लाद का दम घोंट देना चाहता था, तो कभी ऐसी तेज हवा उत्पन्न करता था कि जो प्रह्लाद के शरीर को न केवल सुखा दे प्रत्युत उसके एक-एक परमाणु को ले जाकर न जाने कहाँ फेंक दे। इस प्रकार शम्बर ने मायाबल से बहुत-से उपाय किये, किन्तु जिन प्रह्लाद के हृदयविद्यालय में महामायेश्वर भगवान् विष्णु स्वयं विराजमान हैं, शम्बर सरीखे दैत्यों की लाखों माया उनका क्या कर सकती हैं? शम्बर की माया का कुछ प्रभाव नहीं पड़ा। उसके उत्पन्न किये वायु को भगवान् विष्णु ने ऐसे पान कर डाला कि उसका कहीं पता भी न रह गया। ऐसी विलक्षण माया भी जब न चल सकी तब दैत्यराज की चिन्ता और अधिक बढ़ गयी। दैत्यराज ने विचार किया कि अब इससे अधिक छेड़छाड़ करना ठीक नहीं। इसके सुधारने अथवा मारने का उपाय आचार्य शुक्राचार्य जी ही कर सकेंगे। अब यह दूसरे के बूते की बात नहीं रही। इसी विचार से दैत्यराज ने अपने पुरोहितों से कहा कि “अब आप लोग इसको अपने साथ ले जाइये और जब तक आचार्यजी तीर्थयात्रा से लौट कर नहीं आवें तब तक वहीं बड़ी सावधानी के साथ रखिये। समय-समय पर इसे राजनीति की शिक्षा
देते रहिये, परन्तु इस पर किसी मन्त्र-यन्त्र का प्रयोग करने की चेष्टा भूलकर भी न कीजिये। अवश्य ही इसको असुर-सैनिकों के पहरे में रखिये, जिससे यह किसी बाहरी आदमी से मिलने न पावे। सम्भव है दिन पाकर इसकी मति बदले। नहीं तो आचार्यजी आने पर इसको ठीक करेंगे। यदि उनके सुधारने पर भी यह न सुधरेगा तो वे इसको तुरन्त मार डालेंगे। उनके सामने इसकी एक भी माया न चलेगी।” हिरण्यकशिपु के इतना कहने पर प्रह्लाद अपने गुरुवरों के साथ पुनः विद्यालय को चले गये।