Param Bhagwat Prahlad ji - 20 books and stories free download online pdf in Hindi

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग20 - दैत्य-बालकों को प्रह्लाद का उपदेश

[नगर में घर-घर हरि कीर्तन, कयाधू माता की चिन्ता और पिता का क्रोध]
विद्यालय में पहुँच कर प्रह्लाद ने अपना कार्य फिर आरम्भ कर दिया। नगरभर में, विशेषकर विद्यार्थियों और बालकों में प्रह्लाद के प्रति बड़ी ही सहानुभूति तथा भक्ति दिखलायी देने लगी। गुरुवरों के सामने, ज्यों ही प्रह्लादजी पिता के यहाँ से छुटकारा पाकर विद्यालय में पहुँचे, त्यों ही सभी छात्रों ने आनन्द-ध्वनि की और उनका जय-जयकार मनाया। एक दिन गुरुजी अपने नित्यकर्म में लगे हुए थे, इधर विद्यार्थियों ने आकर प्रह्लादजी को चारों ओर से घेर लिया। कुछ विद्यार्थियों ने कहा कि “राजकुमार! अब आप अपने पिताजी से हठ न करें, उनकी बातें मान लें। पिताजी सदा बने थोड़े ही रहेंगे, उनके बाद आपकी जैसी रुचि हो, वैसे ही कार्य करना। 'आत्मानं सर्वतो रक्षेत्' की नीति से ही आपको काम लेना चाहिए।”
किसी ने कहा कि “भैया प्रह्लाद! तुम्हारे ऊपर आक्रमणों का हाल सुन सुन कर हम लोग तड़प रहे थे, किन्तु आपके पिताजी के भय से हम लोग मुख से कुछ बोल नहीं सकते थे।” एक ने कहा “प्यारे प्रह्लाद! तुम्हारे ऊपर हुए आक्रमणों का समाचार माताजी को आरम्भ में नहीं विदित हुआ किन्तु जैसे ही उनको समाचार मिला, वे बेहोश होकर गिर पड़ीं और कई दिनों-तक उनका चित्त स्थिर नहीं रहा।” इसके पश्चात् एक बालक जो भगवद्भक्ति में डूबा हुआ था, बोला “मित्र! इन सब चर्चाओं को बन्द करो, कुछ भगवत्सम्बन्धी चर्चा होने दो, जिससे हम सबका भविष्य सुधरे और जीवन सफल हो।” अपने प्रेमी सहपाठी बालकों की बातें प्रह्लादजी बड़े प्रेम से सुनते थे और मन-ही-मन यह सोचते थे कि अभी इन पर भगवान् की भक्ति का सच्चा प्रभाव नहीं पड़ा। अतएव इनको ऐसा उपदेश देना चाहिए कि जिससे इनका और इन्हीं के द्वारा संसार का भी कल्याण हो।
प्रह्लाद– “हे भाइयो! धन, जन, स्त्री विलास आदि विषयों से शोभित यह जो मन को मोहित करने वाला संसार का वैभव है, भला विचार की दृष्टि से देखो तो कि ज्ञानियों के सेवन करने योग्य हैं अथवा त्याग करने योग्य हैं! मित्रो ! प्राणी जब गर्भ में आता है तब विष्ठा, कृमि, मूत्र के बीच एक प्रकार के चर्मबन्धन में किस प्रकार टेढ़ा-मेढ़ा बँधा रहता है और उसे कितने दुःख भोगने पड़ते हैं, इसका अनुमान आप लोग कर सकते हैं। उसके बाद बाल्यावस्था खेलकूद में और माता-पिता एवं गुरु की परतन्त्रता में व्यतीत होती है, उसमें भी कोई आनन्द नहीं। युवा अवस्था में स्त्री के मायाजाल गार्हस्थ्य-जीवन के अपार भार से जो कष्ट होता है, उसका अनुभव भुक्त-भोगी प्राणी ही भली भाँति कर सकता है। वृद्धावस्था तो मानों नाना प्रकार की आपत्तियों का आगार ही है, शरीर अशक्त एवं रोग से पीड़ित रहता है, और घर के लोग कोई भी उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं देते। इधर अपमान और उधर ममता, इन दोनों के बीच यह अवस्था नारकीय यातनाओं का आदर्श बन जाती है। अतएव जीवन में कभी किसी भी अवस्था में सुख नहीं, किसी ने कहा है 'सुख की तो बौछार नहीं है, दुख का मेह बरसता है।' ऐसी दशा में आप लोग सोचें , यह संसार का असार वैभव मानव-जीवन के सेवन करने योग्य है या नहीं? प्रिय मित्रो! हम जैसे-जैसे अधिक विचार करते हैं वैसे-वैसे यह संसार दुःखों की खान ही प्रतीत होता है। इसीलिये ज्ञानी लोग इसके बन्धन से मुक्त होने के लिये व्याकुल रहते हैं। जो प्राणी इस माया जाल की भयंकरता नहीं जानते और इसमें मोहित हो जाते हैं वे ही इसमें फँसते और नीचे गिरते हैं। संसाररूपी अग्नि में पतंगे के समान प्राणी गिरते और अपने आप अपने अमूल्य जीवन को जलाकर खाक कर डालते हैं। बड़े अचरज की बात है कि लोग सुख की आशा में जानबूझ कर दुःख भोगते हैं और अपना भविष्य अन्धकारमय बना देते हैं। भाइयो! अन्न न मिले तो चूनी-चोकर खाकर जीवन यापन करना अनुचित नहीं, किन्तु समस्त सुखों के आधार भगवान् विष्णु के अभयदायक चरण-कमलों से विमुख होना सर्वथा अनुचित है। उन चरणों की सेवा में न कोई श्रम है, न कष्ट है और न कोई बाधा है, उनको छोड़ जो संसार के विषयों में सुख समझकर उनके पीछे भटकते हुए अपने प्राणतक गँवा देते हैं, वे वैसे ही मूर्ख हैं जैसे किसी के हाथ पर सारी पृथ्वी का साम्राज्य रख दिया जाय और वह उसे दूर फेंक कर दीन मन हो, अपने उदर भरने के लिये भिक्षा माँगता फिरे। अतएव मित्रो! अब व्यर्थ समय बिताना ठीक नहीं। तुम सब लोग स्वयं विष्णुभगवान् की भक्ति करो और अपने हित-मित्र एवं सम्बन्धियों को भी भक्त बनाने का प्रयत्न करो। रात-दिन उन भव-भय-हारी मुरारी का ध्यान करो। वे तुम लोगों की सदा रक्षा करेंगे और तुम्हारे परम अर्थ की सिद्धि होगी। अब मैं सबका सारांश कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। आस्तिक भाव के साथ तुम लोग सारे जगत् के प्रति प्रीति रख, किसी के प्रति भी वैर-भाव न रखो। यही सबसे बड़ी भगवद्भक्ति है।”

उपदेश समाप्त करते हुए प्रहादजी ने कहा कि “सम्भव है अब तुम-हम-सब फिर एक स्थान पर इस प्रकार न मिल सकें, किन्तु तुम्हारा-हमारा चित्त एक रहना चाहिए। मेरा उपदेश तुम भूलना नहीं। मेरी प्रार्थना तुम लोगों ने सुनी और मानी है यह मैं तभी समझुगा‌ जब कि कल से ही सारा नगर प्रातः और सायंकाल ‘हरि-कीर्तन' की गगनभेदी मधुर-ध्वनि से गूँज उठेगा।” प्रह्लादजी के उपदेशों को सुनकर असुर बालकों ने कहा, अवश्य ही हम लोग आपके उपदेशानुसार ही कार्य करेंगे। अन्त में बालकों ने नित्य के समान ही अपना हरि-कीर्तन आरम्भ किया। सब लोग हरि-कीर्तन में मग्न थे। इसी बीच में गुरुपुत्र षण्ड और अमर्क आ गये। गुरुपुत्रों के क्रोध की सीमा न रही, हरि कीर्तन सुन उनको बड़ा रोष आया और उन लोगों ने बालकों को बहुत कड़ी ताड़ना दी तथा प्रह्लाद से कहा कि “रे मूर्ख राजकुमार! क्या तेरा काल आ ही गया है? जिसको अपने प्राणों का भय नहीं, उसे हम क्या कहें? तू न जाने इस दैत्यकुलरूपी चन्दन-वन में कहाँ से बबूल के वृक्ष के समान उत्पन्न हो गया। तेरी माता हम लोगों से बारम्बार तेरी प्राणरक्षा के लिये प्रार्थना करती है, किन्तु तेरी मूर्खता के कारण हम लोग अब तेरे प्राणों की रक्षा करने में असमर्थ हैं। तेरी माता को आज हम तेरे इस काण्ड का समाचार भेज देते हैं। तदनन्तर हम लोग अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कृत्या द्वारा तेरा वध करेंगे, इसमें सन्देह नहीं।”

गुरुओं ने प्रह्लाद का सारा वृत्तान्त महारानी कयाधू के पास एक विश्वासपात्र छात्र द्वारा कहला भेजा। वृत्तान्त ले जाने वाले को यह बात समझा दी गयी कि यह सन्देश महारानी को ही एकान्त में सुनाया जाय, दैत्यराज को इसकी खबर न होने पावे। छात्र ने वैसा ही किया। महारानी कयाधू सन्देश को पाकर व्याकुल हो गई और तुरन्त ही दैत्यराज की आज्ञा ले पुत्र से मिलने के लिये पाठशाला में जा पहुँचीं। ब्रह्मचारी प्रह्लाद पड़ रहे थे, किन्तु माताजी को आयी देख सहसा उठ खड़े हुए और सादर उन्हें प्रणाम किया। माता ने प्रिय पुत्र को सस्नेह आशीर्वाद देकर हृदय से लगा लिया और प्रेमाश्रुओं की धारा से उनके मस्तक को सींचने लगीं। तदनन्तर गुरु के चरणों में प्रणाम कर महारानी उनकी आज्ञा से प्रह्लाद को एकान्त में ले गयीं और बड़ी चिन्ता और व्याकुलता के साथ पुत्र को इस प्रकार समझाने लगीं।

महारानी कयाधू– “बेटा प्रह्लाद! अब तुम्हारा बालपन बीत गया, तुमको कुछ ही दिनों बाद राज्यभार अपने ऊपर लेना है। अतएव बड़ी सावधानी से काम करना चाहिए। तुम अपने पिताजी के स्वभाव की उग्रता, हठीलापन और आज्ञा न मानने वालों के प्रति हृदय की निर्दयता आदि से परिचित हो, अतएव तुम्हें उनकी आज्ञा के विरुद्ध नहीं चलना चाहिए। मैं तुमको हरिभक्ति करने से नहीं रोकती, किन्तु इतनी भिक्षा माँगती हूँ कि, मेरे जीते जी तुम उन्हें असन्तुष्ट करके मेरा अकल्याण न करो। बेटा! यह बात तुमसे छिपी नहीं है कि मेरा हृदय तुमको देखे बिना अत्यन्त व्याकुल हो उठता है। जब मैं तुम्हारे ऊपर मार पड़ने के समाचार सुनती हूँ तो मेरे हृदय की गति रुक जाती है और मुझे संसार अन्धकारमय प्रतीत होने लगता है। बेटा! तुमने कहा था कि 'माता! तुम डरो नहीं, जब पिताजी मुझसे कहेंगे तब मैं उनको समझा लूँगा।' अब वही समय आ गया है। परन्तु जब तुम्हारे समझाने पर भी वे नहीं समझे तो अब तुमको ही अपना हठ छोड़ देना चाहिए। बेटा! एक ओर जिसको मैंने अपने प्राणों से अधिक माना वह मेरे रक्त से सींचा हुआ कोमल पौधा तू प्रह्लाद है और दूसरी ओर मेरे ईश्वरस्वरूप प्राणपति दैत्यराज हैं। तुम दोनों के झगड़ों में मेरी कैसी शोचनीय दशा हो रही है। बेटा! इस बात को तुम ही एक बार सोचो। एक पतिव्रता पत्नी और पुत्रवत्सला माता की पिता-पुत्र के वैरभाव में, नहीं नहीं, दोनों के जीवन-मरण वाले वैरभाव में कैसी सकंटापन्न दशा हो सकती है यह तुम जानते हो। इस अवस्था के उत्पन्न करने वाले भी बेटा! तुम ही हो। इसी से मैं तुमसे प्राण-भिक्षा माँगती हूँ। तुम मुझपर दया करो। प्रिय पुत्र! संसार को तुम दया की दृष्टि से देखते हो, संसार के कष्टों को मिटाने के लिये तुम सबकुछ करते हो किन्तु जिस माता ने तुमको अपने हृदय में रखा, अपना दूध पिला कर पाला और इसी आशा से पाला कि वृद्धावस्था में तुम मेरी रक्षा करोगे, मरने पर साम्परायिक कर्म द्वारा उद्धार करोगे? क्या उसके प्रति तुम्हारा यही कर्तव्य है? क्या तुम्हारा यही धर्म है कि तुम उस माता को विपत्ति में डालो और पिता से विरोध करो। प्रह्लाद! तुम विष्णुभक्ति नहीं छोड़ना चाहते हो तो न छोड़ो किन्तु दैत्यराज को चिढ़ानेवाले काम तो मत करो। उनको उपदेश देने की अपेक्षा उनकी ही बातें सुनो। यदि तुमको उनकी बातें प्रिय न हों तो न मानो, किन्तु उनके सामने तो उनकी बातों को अस्वीकार न करो। यह मेरी शिक्षा यदि तुम न मानो तो लो इस तलवार से मेरा सिर काट धड़ से अलग कर दो। मैं तुम्हारे और तुम्हारे पिता के पहले ही तुम दोनों की मूर्तियों को हृदय में रख कर मरना चाहती हूँ। यदि तुम मेरी बातें नहीं मानोगे तो मैं आत्महत्या करके नरकगामिनी बनूँगी। बेटा! क्या तुम यही चाहते हो?”

स्नेहमयी व्याकुलहृदया जननी की शोकभरी बातें सुन कर दृढ़निश्चयी प्रह्लाद विनम्र भाव से माता को सान्त्वना देते हुए बोले कि “माताजी! तुम इतनी बड़ी बुद्धिमती होकर भी साधारण स्त्रियों के सदृश अनजान सी बातें कैसे करती हो? तुम घबराती क्यों हो? न तो मेरे पिताजी मेरे शत्रु हैं, न मैं ही उनका शत्रु हूँ। उनका क्या, मैं तो किसी का भी शत्रु नहीं हूँ। हम दोनों के बीच कोई भी झगड़ा-फसाद नहीं है। तुम जो देखती हो सो यह तो एक स्वाभाविक घटना है। जब रोगी को रोग शान्ति के लिये ओषधि दी जाती है तब रोग के परमाणुओं से ओषधि के परमाणुओं का युद्ध अथवा संघर्ष होता ही है, पर उनमें कोई किसी का शत्रु नहीं होता। इसी प्रकार मेरे और पिताजी के विचारों का संघर्ष है। इसका परिणाम अच्छा ही होगा। तुम चिन्ता न करो। मां! तुम सुशिक्षिता होकर भी क्यों अनजान बन रही हो? मैं, तुम और पिताजी ही नहीं, सब-के-सब जीव अजर और अमर हैं। शरीर तो सभी के नाशवान् हैं। अमर मर नहीं सकता और नाशवान् रह नहीं सकता। चाहे वह आज नाश हो और चाहे चार दिन के बाद। फिर ऐसे निश्चित सिद्धान्त को भुलाकर तुम न सोचने सी बात को क्यों सोच रही हो? जाओ, माताजी जाओ, शान्ति के साथ हरि-भजन करो। वह तुम्हारा कल्याण करेंगे।”

पुत्र की बातें सुन महारानी कयाधू को विश्वास हो गया कि प्रह्लाद माननेवाला नहीं। अतएव इसको समझाने की अपेक्षा दैत्यराज को ही समझा लेना कदाचित् सरल और सम्भव हो। प्रह्लाद को हृदय से लगाकर अश्रु-पूर्ण नेत्रों से माता कयाधू ने विदा माँगी। प्रह्लाद ने साष्टाङ्ग प्रणाम कर माता को विदा किया। महारानी कयाधू प्रह्लाद से विदा हो गुरुजी के समीप गयीं और उनसे प्रह्लाद की सारी बातें कह सुनायीं। साथ ही उन्होंने अपनी इच्छा दैत्यराज से कहने की भी प्रकट की। गुरुजी ने उनकी इच्छा की पुष्टि की और कहा कि इसके लिये आप शीघ्रता करें, क्योंकि प्रह्लाद की बातें दैत्यराज तक पहुँचने में विलम्ब नहीं है। गुरु के चरणों में प्रणाम कर महारानी कयाधू विदा हुई। गुरुवरों ने आशीर्वाद दिया।

इधर महारानी कयाधू अन्तःपुर में पहुँची ही थीं कि उधर दैत्यराज के गुप्त दूतों ने प्रह्लाद की सारी कथा दैत्यराज को सुना दी। दैत्यराज को बड़ा क्रोध आया और उसने अपने सूपकारों (रसोइयों) को बुला कर कहा कि, आज प्रह्लाद के लिये जो भोजन जाय उसमें हलाहल विष मिला कर देना जिससे उसको खाते ही वह सदा के लिये शान्त हो जाय। किन्तु खबरदार! उसको विष का पता न लगने पावे। तुम लोग विषवाले भोजन को देकर उससे कहना कि, यह तुम्हारी माताजी ने तुम्हारे लिये भेजा है, क्योंकि उसकी माता के प्रति बड़ी भक्ति है और माता के नाम से उसको विष का सन्देह ही न होगा। सूपकारों ने वैसा ही किया। वे महाविष-मिश्रित मोदक लेकर गये, और उन्होंने प्रह्लाद से कहा कि “माताजी ने इन मोदकों को तुम्हारे लिये भेजा है।” प्रह्लाद ने माता के प्रेम का आदर करते हुए उन विषभरे लड्डुओं को भगवान् को अर्पण कर खा लिया, परन्तु इससे अकाल मृत्यु-हरण भगवान् के चरणारविन्द के प्रेमी भक्त का बाल भी बाँका नहीं हुआ। उस महान विष को पचा हुआ देख रसोइयों ने भय से व्याकुल हो हिरण्यकशिपु से सारी कथा कह सुनायी और उधर राजदूतों ने आकर फिर अपना रोना रोया। राजदूतों ने कहा कि “महाराज! अब अति हो गयी है। नाथ ! जिस विष्णुनाम के एक बार उच्चारण करने के अपराध में हम लोगों ने असंख्य ब्राह्मणों को मार डाला है, अब नगरभर के बालक उसी विष्णु के नामों का प्रातःकाल और सन्ध्याकाल नित्य ही कीर्तन करते हैं। यदि आप उन बालकों को दण्ड देंगे तो आपके भाई-बन्धु और सेना के ऊँचे-ऊँचे कर्मचारी सब बगावत कर बैठेंगे क्योंकि वे सब उन्हीं लोगों के लड़के हैं और यदि आप दण्ड नहीं देंगे तो यह रोग, आगे चलकर घोर राजद्रोह का रूप धारण कर लेगा।”

गुप्त-दूतों की बातें सुन दैत्यराज ने पुरोहितों के पास एक दूत भेज कर कहला दिया कि “प्रह्लाद का शत्रुपक्षी विष दिनों-दिन बढ़ रहा है, उसके प्रभाव और शिक्षा से नगर के लड़के हरि-कीर्तन करने लगे हैं। नगरभर के लड़कों के वध की अपेक्षा केवल प्रह्लाद का वध उचित और सरल है। अतएव अब आप लोग अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ‘कृत्या’ उत्पन्न करके उसका तुरन्त वध कर डालें। सावधान! इस आज्ञा के पालन में विलम्ब न हो। यदि इस आज्ञा की तुम लोग किसी अंश में अवहेलना करोगे तो तुम लोगों को हम इस राजद्रोहप्रचार का कारण समझेंगे और उस दशा में बिना किसी रू-रियायत के कठोर दण्ड दिया जायगा।”
आचार्यों के पास आज्ञा भेज कर दैत्यराज क्रोध और क्षोभ के आवेश में बैठे ही थे कि, इतने में समाचार मिला कि महारानी कयाधू आ रही हैं। दैत्यराज ने समझा कि असमय में महारानी के आने का कारण कदाचित् प्रह्लाद की रक्षा की बात हो। इतने ही में सभा में महारानी जा पहुँचीं। महारानी के आते ही सभासदों ने उठकर उनका उचित स्वागत किया। तदनन्तर महारानी दैत्यराज को सादर प्रणाम कर अपने नियत स्थान पर जा बैठीं।
दैत्यराज– ”प्रिये! इस समय तुम कैसे आयीं? क्या कोई विशेष कारण उपस्थित है?”
महारानी– “हाँ, कारण तो विशेष है किन्तु नाथ! आपके चरणों की कृपा से वह विशेष भी साधारण ही हो जायगा।”
दैत्यराज – “वल्लभे! क्या तुम कुछ कहना चाहती हो? क्योंकि तुम्हारे आधी बात कहकर चुप हो जाने से जान पड़ता है तुम अपनी बात इस सभा में नहीं कहना चाहती।”
महारानी– “हाँ, प्राणपति! कुछ ऐसी ही बातें हैं कि जो केवल आप ही की सेवा में कहने योग्य हैं।” महारानी के साथ दैत्यराज सभा के एकान्त भवन में गये और वहाँ जाकर महारानी ने दैत्यराज के चरणों को पकड़ कर प्रह्लाद के प्राणों की रक्षा के लिये भिक्षा माँगी। बारम्बार अस्वीकार करने पर जब महारानी कयाधू ने हठ नहीं छोड़ा, तब दैत्यराज को क्रोध आ गया। दैत्यराज पहले ही से क्रोध और क्षोभ में व्याकुल थे, फिर महारानी कयाधू के हठ ने उसको दूना कर दिया। क्रोधवश
दैत्यराज ने महारानी की पीठ पर एक लात मारी। बेचारी रोती हुई पुत्र-वात्सल्य और पातिव्रत के भावों से परिपूर्ण दुखी हृदय को लेकर अपने अन्तःपुर को चली गयी।

इसी प्रसङ्ग में पुराणान्तर की कथा है कि जिस समय दैत्यराज ने साध्वी सती स्त्री कयाधू को लात मारी, उसी समय कैलास पर महारानी सती का आसन डोल उठा। सतीजी ने अपनी प्रियतमा सखी विजया के पूछने पर आसन डोलने का कारण बतलाया। जगन्माता सती ने कहा “हतभाग्य हिरण्यकशिपु ने अपनी परम सती साध्वी स्त्री कयाधू को लात मार कर मेरा घोर अपमान
किया है। इसी कारण मेरा आसन डोल उठा है।” विजया ने देखा तो जगन्माता सती की पीठ पर पदाघात का चिह्न पड़ा है। महादेवजी के पूछने पर सती ने पदाघात के चिह्न का कारण बतलाया और कहा “नाथ! आप क्या यह नहीं जानते कि जगत् की सारी सती स्त्रियाँ मेरा ही अंश हैं। ‘स्त्रियः समस्ता सकला जगत्सु' को कौन नहीं जानता? अतएव किसी भी सती स्त्री का अपमान मेरा अपमान है और उसका सम्मान मेरा सम्मान है।”

बात कुछ भी हो, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि सती स्त्रियों का वास्तव में बड़ा ही ऊँचा पद है। इस बात का ध्यान न रखकर जो उनका अपमान करते हैं, उनको दैत्यराज हिरण्यकशिपु से ही हम तुलना कर सकते हैं और उनका कदाचित् परिणाम भी उससे अच्छा न होता होगा।

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