[गुरुकुल वास]प्राचीन भारतवर्ष में विद्या का इतना अधिक प्रचार और महत्त्व था कि प्रत्येक मनुष्य के लिये उसका प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक समझा जाता था। साधारण श्रेणी के प्रजाजनों को छोड़ शेष सभी द्विजातियों के बालक उपनयन संस्कार होने के साथ-ही-साथ शिक्षा प्राप्त करने को अपने-अपने गुरुकुलों के लिये प्रस्थान करते थे। गुरुकुलों में विद्या प्राप्त करने के पश्चात् उनका समावर्तन-संस्कार होता था तब वे लौट कर गृहस्थाश्रम के नियमानुसार अपना योगक्षेम करते थे। गुरुकुलों में विद्यार्थियों को उनके वर्ण, उनकी कुल-परम्परा, रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार साङ्गोपाङ्ग (समस्त, संपूर्ण) वैदिक शिक्षा के साथ-ही-साथ, शस्त्रास्त्र शिक्षा, मल्लविद्या की शिक्षा तथा विविध कलाओं की शिक्षा भी सुचारुरूप से दी जाती थी।
विद्यार्थियों के गुरुकुल-वास से बहुत बड़ा लाभ होता था। न तो माता-पिता के अनुचित लालन-पालन में पड़कर लड़के खराब होते थे और न उनको अपने ब्रह्मचर्य-पालन में गार्हस्थ्य जीवन की कठिनाइयाँ और उनके संसर्ग ही बाधक होते थे। विद्यार्थियों का भविष्य जीवन आनन्दमय, शरीर हृष्ट-पुष्ट और बल-वीर्य-सम्पन्न होता था। इन्हीं कारणों से प्राचीन भारतवर्ष की सन्तान धीर, वीर और गम्भीर होती तथा अपने पूर्वपुरुषों की गौरव-गरिमा को बढ़ाने में समर्थ होते थे। जिस प्रकार अन्यान्य द्विजातियों के बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिये गुरुकुलों में निवास करते थे, उसी प्रकार बड़े-बड़े सम्राटों के राजकुमार भी गुरुकुलों में समान-शील विद्यार्थियों के साथ विद्या अध्ययन करने के लिये निवास करते थे। गुरुकुलों में राजकुमारों को भी विद्यार्थियों के सभी धर्मों का पूरा-पूरा पालन करना पड़ता था और राजकुमार के वेष में नहीं, प्रत्युत एक साधारण ब्रह्मचारी विद्यार्थी के वेष में रहना पड़ता था। इसका परिणाम यह होता था कि, राजकुमारों के हृदय में वृथा दम्भ, अनुचित अभिमान, विद्वेष और घृणा के भाव घुसने ही नहीं पाते थे। गुरुकुलों में भाँति-भाँति के सुख दुःख सहने के कारण राजकुमारों को शासनधुरी चलाते समय अपनी दीन-हीन प्रजा के सुख-दुःख का पूरा अनुभव होता था और उससे राजा तथा प्रजा दोनों ही लाभ उठाते थे। इसी गुरुकुली शिक्षा के प्रभाव से प्राचीन भारत के नवयुवक विद्यार्थी सदाचारी, धार्मिक और ईश्वरभक्त होते थे और अपने गुरुवरों को गुरु दक्षिणा में अपने प्राणों तक को अर्पण कर देते थे न कि, आजकल के समान सदाचार हीन, धर्म-विरोधी और ईश्वर विद्रोही विद्या प्राप्त विद्यार्थी, जो अपने आचार्यों के प्रति 'नष्टदेव की भ्रष्ट पूजा' वाली लोकोक्ति को चरितार्थ किया करते हैं। मनुष्य ही नहीं, सुर, असुर भी विद्याध्ययन करते थे और उससे पूर्ण लाभ उठाते थे। उस समय गुरुकुलों के संचालन के लिए न तो कोई चन्दा एकत्र किया जाता था और न उसके संचालन में गुरुओं को कठिनाई होती थी। राजाओं की ओर से उनके संचालन के लिए पूरा प्रबन्ध रहता था और सर्वसाधारण भी यथासाध्य सहायता एवं सेवा करने के लिये सदा तैयार रहते थे और करते भी थे। गुरुकुल भी दो प्रकार के होते थे। एक तो निर्जन वन की तपोभूमियों में, जिनमें विरक्त आचार्य अपने-अपने आश्रमों में छात्रों को विविध प्रकार की विद्याएँ पढ़ाते थे, और दूसरे नगरों के बाहर किन्तु समीप में ही गृहस्थ महर्षियों के पवित्र आश्रमों में होते थे। वहाँ उपनीत छात्र अपनी रुचि, अपने अधिकार एवं आवश्यकता के अनुसार कला-कुशलता, शस्त्र-अस्त्र-शिक्षा, यन्त्र विद्या आदि के साथ-ही-साथ सांगोपांग वैदिक धर्म की शिक्षा ग्रहण करते थे। दोनों ही प्रकार के गुरुकुलरूपी आचार्यों के आश्रमों में दोनों प्रकार के विरक्त एवं गृहस्थ आचार्य, अपने-अपने आश्रमवासिक विद्यार्थियों की देख-भाल, पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा में उतने ही तत्पर रहते थे, जितना कि कोई भी गृहस्थ अपने बाल-बच्चों की देख-भाल, पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा के लिये तत्पर रह सकता है। इन्हीं कारणों से उस समय आचार्यों का महत्त्व था, उनके आश्रमों की प्रतिष्ठा थी और साधारण श्रेणी के गृहस्थ से लेकर बड़े-बड़े राजा, महाराजा एवं सम्राट् तक अपने-अपने प्राणाधिक पुत्रों को गुरुकुलों में एकाकी भेज देने में किसी प्रकार की भी अड़चन नहीं समझते थे।
हिरण्यपुर नगर, जो दैत्यराज हिरण्यकश्यपु की राजधानी थी और जिसको किसी-किसी ने मौलिस्नान, मूलस्थान तथा कश्यपपुरी के नाम से लिखा है, और जो आजकल पंजाब सूबे का प्रसिद्ध नगर मुलतान के नाम से प्रसिद्ध है, समीप ही शुक्राचार्यजी का आश्रम था, जिसमें उनके दोनों विद्वान् पुत्र षण्ड और अमर्क छात्रों को विद्यादान देते थे। इस आश्रम में प्रायः सभी प्रकार के छात्र पढ़ते थे, किन्तु दैत्य-दानव वंशीय छात्रों की अधिकता थी। इसी आश्रम में या यों कहें कि इसी गुरुकुल में दैत्यराज हिरण्यकश्यपु के पुत्रों तथा भतीजों को भी शिक्षा दी गयी थी।
दैत्यराज हिरण्यकश्यपु का अन्यान्य पुत्रों की अपेक्षा अपने छोटे पुत्र प्रह्लाद पर अधिक प्रेम था। उसकी बड़ी इच्छा थी, कि प्रह्लाद को स्वयं महर्षि शुक्राचार्य जी शिक्षा दें। किन्तु प्रह्लाद के उपनयन का समय आ गया, और महर्षि शुक्राचार्य, जो तीर्थाटन के लिये वर्षों पूर्व गये हुए थे, लौटकर नहीं आये। उपनयन के समय में अतिकाल होते देख, दैत्यराज ने आचार्य पुत्रों को ही बुलवाया। आचार्य पुत्रों के आने पर उसने उनके आगे अपना आन्तरिक अभिप्राय प्रकट करते हुए कहा कि “आचार्यचरण अब तक नहीं आये। हम उन्हीं के द्वारा प्रह्लाद को शिक्षा दिलाना चाहते थे। परन्तु उपनयन संस्कार का समय हो चुका है और समय पर संस्कार करना ही उचित है। अतएव जब तक आचार्यचरण न आ जायँ, तब तक आप लोग ही इस बालक की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध करें।”
आचार्यपुत्र– “राजराजेश्वर! आपके विचार उत्तम हैं, जैसी शिक्षा आप चाहते हैं वैसी ही शिक्षा दी जायगी। पिताजी के आने पर हम लोग उनके आगे आपकी इच्छा प्रकट कर देंगे और वे स्वयं राजकुमार को समुचित शिक्षा देंगे।”
दैत्यराज– “हे आचार्य पुत्रो! हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि, आप लोग किसी विद्या में कम हैं। आप लोग हमारे असुरों के राजवंशों की सभा के रत्न हैं और अपने पितृ-चरण की कृपा से सर्व-विद्यासम्पन्न हैं किन्तु हमारे कुल की रीति-नीति का यथार्थ अनुभव जैसा आचार्यचरण को है, वैसा कदाचित् आप लोगों को अभी न हो। हमारे साथ देवताओं का वैरभाव, हमारा विष्णु का वैमनस्य, हमारे हृदय में सदा कसकने वाली भ्रातृवध की वेदना तथा उसका बदला लेने का दृढ़ विचार आदि को आचार्यचरण जितना जानते हैं सम्भव है आप उतना न जानते हों। अतएव हम आप लोगों से शिक्षा के सम्बन्ध में कुछ अपना अभिप्राय भी बतला दें तो आप अनुचित न मानेंगे। प्रह्लाद अभी अबोध बालक है, किन्तु उसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण है। उसके हृदय में स्वभावतः असुर-कुल-सुलभ स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध दया के भाव भरे हुए हैं, उसे साम्यवाद से प्रेम है और उसके हृदय में राजकुमार होने का रत्तीभर भी अभिमान नहीं है। इन बातों से हमको भय होता है कि वह कदाचित् हमारे आन्तरिक भावों, अभिलाषाओं और प्रवृत्तियों का समर्थक न हो। अतएव आप लोग उसको ऐसी उत्तम शिक्षा दें कि जिससे वह हमारे ही विचारों का अनुगामी बन देवताओं और उनके पक्षपाती विष्णु का कट्टर शत्रु बने और यदि हम अपने भाई का बदला न ले सकें जो असम्भव है तो यह बालक प्रह्लाद अपने चाचा के घातक विष्णु और देवताओं से पूरा-पूरा बदला ले।”
आचार्यपुत्र– “दैत्यराज ! आप विश्वास रखें, हमारी पाठशाला में यों ही सारे के सारे विद्यार्थी घोर विष्णुद्रोही तथा देवताओं के अकारण प्रबल शत्रु हैं और उनको हम लोग शिक्षा ही विष्णु एवं देवताओं के विरुद्ध भड़काने वाली देते हैं। फिर राजकुमार को आपकी आज्ञा पाकर भी हम लोग क्यों न आपके इच्छानुसार शिक्षा देंगे? हम लोग अपनी पाठशाला में आरम्भ से ही यह शिक्षा देते हैं कि देवता हमारे देश के और जाति के शत्रु हैं। इन लोगों ने अपने स्वार्थों के लिये न जाने कितने यज्ञ-यागों के ढोंग रच रखे हैं। पर अब इनकी पोलें खुल गयी हैं अतः इनको कोई पूजता नहीं। इनकी पूजा करना, इनका आदर करना और दुनिया में इनका अस्तित्व रखना घोर पातक है और आत्मघात के समान है। इसी शिक्षा के प्रभाव से धीरे-धीरे सारे देश के नवयुवक घोर देव विरोधी हो गये हैं।”
आचार्यपुत्रों की शिक्षानीति को सुनकर दैत्यराज बड़ा ही प्रसन्न हुआ और उसने कहा कि अब विलम्ब का समय नहीं है। राजकुमार के उपनयन-संस्कार का सुन्दर मुहूर्त विचारिये। ‘शुभस्य शीघ्रम्' इस नीति के अनुसार मुहूर्त भी शीघ्र विचारा गया और उपनयन-संस्कार की खासी तैयारी होने लगी। गुरुकुल गमन तथा उपनयन संस्कार का समय ज्यों-ज्यों समीप आने लगा, त्यों-ही-त्यों राजदरबार तथा अन्तःपुर में आनन्दमय मांगलिक उत्साह भी अधिक दिखलायी देता था, बालक प्रह्लाद के हर्ष की तो कोई सीमा ही नहीं रही। वे नित्य ही प्रातःकाल उठ कर अपनी माता से पूछते और दिन गिनते थे कि अब हमारे उपनयन संस्कार तथा विद्याध्ययन के लिये गुरुकुल-गमन के कितने दिन रह गये। धीरे-धीरे वह आ गया, जिस दिन से उपनयन संस्कार के कृत्य आरम्भ होने को थे।
यज्ञोपवीत संस्कार के उपलक्ष में सारे नगर में विशेषकर राजमहलों में चारों ओर माङ्गलिक उपकरणों से स्थान सजाये जाने लगे और भाँति-भाँति के बाजे बजने तथा गीत गाये जाने लगे। आचार्य पुत्र, पुरोहित और सभी योग्य विद्वज्जन बुलाये गये। चारों ओर से राजपरिकर तथा असुरवृन्द एकत्र होने लगे और देखते-ही-देखते एक सुन्दर समारोह हो गया। यज्ञोपवीत संस्कार के लिये यज्ञशाला की रचना की गयी यथाविधि उपनयन संस्कार किया गया। आचार्यपुत्रों ने राजकुमार को दीक्षा दी। जिस समय प्रह्लाद का उपनयन संस्कार हो रहा था और उन्होंने माता को सम्बोधित कर कहा कि 'भवति मातर्भिक्षां देहि' उस समय का दृश्य न तो लेखनी से लिखा जा सकता है, और न मुख से वर्णन करने योग्य ही है। उस दृश्य का अनुभव वे ही कर सकते हैं, जो तीनों लोक और चौदहों भुवन के स्वामी सम्राट् हिरण्यकश्यपु जैसे प्रबल प्रतापी राजराजेश्वर के प्राणाधिक प्रिय पुत्र को शास्त्रविधि की मर्यादा के पालनार्थ, अपनी जननी से भिक्षा माँगते हुए देख चुके हैं। यथाविधि उपनयन-संस्कार होते ही सद्यः उपनीत ब्रह्मचारी राजकुमार के गुरुकुल जाने का आयोजन होने लगा। यद्यपि गुरुकुल का स्थान राजधानी एवं राजमहल से अधिक दूर नहीं था और न घने वन ही में था तथापि जिस प्राणाधिक प्रिय पुत्र को एक क्षण भी न देखने पर माता घबरा जाती थी, उसके गुरुकुल जाने का समाचार पाकर महारानी कयाधू विकल सी हो उठीं और उनके नेत्रों से जल की धारा बहने लगी। इधर प्रह्लाद ने भी माता का साथ दिया और मातृवियोग का अनुभव कर वह भी घबरा गये तथा रो पड़े। लोगों के समझाने बुझाने पर तथा पुत्र की शिक्षा के लाभों की बात विचार कर महारानी ने धीरज धारण किया और अपने आँसुओं को पोंछ कर प्रह्लाद के आँसुओं को पोंछती हुई उनको गोद में बैठा लिया। गोद में बैठा कर महारानी ने कहा “बेटा! तुम रोने क्यों लगे? अभी तो नित्य ही तुम आज के दिन को गिनते थे। जब यह शुभ एवं सुन्दर दिन आ गया है, तब रोते क्यों हो? तुम आचार्य जी के यहाँ विद्या पढ़ने जाओगे और वहाँ से बड़े भारी विद्वान् तथा योद्धा बन कर लौटोगे यह कितने आनन्द की बात है? जब कभी तुम्हारा जी ऊबे तब अपने गुरुजी से कहना वे तुमको यहाँ ले आया करेंगे और सबसे मिला दिया करेंगे। बेटा! तुम्हारा गुरुकुल दूर नहीं। इसी नगर के बाहर एक सुन्दर उपवन में है। कितने ही बार मैं तुम्हारे पिताजी के साथ आचार्यचरण के दर्शनों को उस स्थान में हो आयी हूँ और भली भाँति उसे देखा-भाला है। यदि तुम्हारे आने में कभी विलम्ब हो तो मैं तुम्हारे पिताजी के साथ स्वयं वहाँ आऊँगी और तुम्हारे इस मुखारविन्द को चूमूँगी।” इतना कहती हुई माता ने प्रह्लाद का मुख चूम लिया और वे भी खिलखिला कर हँस पड़े। प्रह्लाद ने कहा कि “माताजी! मैं तो पढ़ने जाता हूँ, तुम जरूर आना, देखो, भूल न जाना। तुमको अपने घर के कामों से अवकाश बहुत कम मिलता है।”
पुत्र और माता के बीच ये बातें हो ही रही थीं कि, इसी बीच में दैत्यराज के दूत ने आकर और हाथ जोड़ प्रार्थना की कि “महारानी को राजकुमार के सहित महाराज बुला रहे हैं और महाराज ने यह भी कहा है कि, गुरुकुल यात्रा का मुहूर्त काल उपस्थित है, शीघ्र आवें।” दूत की बातें सुन एक बार फिर महारानी कयाधू के हृदय में प्रबल पुत्र वात्सल्य की लहरें हिलोरें मारने लगीं किन्तु पुत्र की ओर देख उन्होंने दूत को उत्तर दिया “अच्छा हम लोग शीघ्र ही वहाँ पहुँचते हैं।” उधर दूत राजदरबार की ओर गया और इधर माता कयाधू ने प्रह्लाद को कुछ भोजन कराया और उसको आगे करके वह पुत्र के साथ पीछे-पीछे राजदरबार की ओर चलीं। आगे-आगे ब्रह्मचारी के वेष में राजकुमार प्रह्लाद चल रहे थे और पीछे-पीछे अपने राजसी ठाट-बाट के साथ महारानी कयाधू जा रही थीं। धीरे-धीरे महारानी और राजकुमार दोनों ही राजसभा में जा पहुँचे। महारानी को देखते ही सारी सभा ने अभ्युत्थानपूर्वक उनका स्वागत किया और दोनों ही माता और पुत्र, यथोचित अभिवादन के अनन्तर निर्दिष्ट स्थानों पर जा विराजे। दैत्यराज ने प्रह्लाद को अपने पास बुला गोदी में बैठा लिया और सिर सूँघ कर हृदय से लगा लिया। हिरण्यकश्यपु का हृदय भी पुत्रवात्सल्य से द्रवीभूत हो उठा और गुरुकुल की यात्रा का स्मरण कर उसका भी जी भर आया। फिर भी वह वीर पुरुष का हृदय था। अतः उसने सँभल कर कहा कि “बेटा प्रह्लाद ! तुम्हारे गुरुकुल जाने का समय आ गया। देखो, ये हमारे दोनों आचार्यपुत्र ही तुमको अपने आश्रम में शिक्षा देंगे। ये तुम्हारे गुरु हैं। इनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करना और ध्यान रखना कि, ये तुम्हारे लिये, हमारे ही समान पूज्य और आदरणीय हैं। तुम्हारे लिये ये संसार सागर के पार करने वाले कर्णधार हैं और जब तक तुम शिक्षा प्राप्त करके समावर्तन-संस्कार के द्वारा इस राजमहल में नहीं आओगे, तब तक के लिये, ये तुम्हारे शिक्षक ही नहीं, सर्वथा रक्षक भी रहेंगे। देखना बेटा ! खूब रुचि और परिश्रम के साथ शिक्षा ग्रहण करना।”
पिता की बातें सुन प्रह्लाद ने सिर के इशारे से तथा मधुर स्वर से कहा 'बहुत अच्छा।' गुरुवरों की आज्ञा से प्रह्लाद ने उठकर माता के चरण छुए, पिता को प्रणाम किया तथा उपस्थित राजसभा के लोगों को यथोचित अभिवादन किया। माता, पिता तथा अन्य सभी सगे-सम्बन्धी और सभासदों ने आनन्दाश्रुओं के साथ-साथ आशीर्वाद दे, राजकुमार प्रह्लाद को.. नहीं, ब्रह्मचारी प्रह्लाद को आचार्यपुत्रों के साथ गुरुकुल वास के लिये विदा किया।