Param Bhagwat Prahlad ji - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग13 - प्रह्लाद की दीनबन्धुता

[पिता से सत्याग्रह]
क ओर बालक प्रह्लाद की अव्यभिचारिणी भक्ति रात-दिन उनको भगवान् विष्णु की ओर खींचती थी, दूसरी ओर हिरण्यकश्यपु के अन्तःकरण की अटूट शत्रुता विष्णु के न पाने से प्रत्येक क्षण बड़ी तेजी से बढ़ रही थी। दोनों ही पिता-पुत्र रात-दिन भगवान् के ध्यान में लगे रहते थे और दोनों ही के हृदय से एक क्षण के लिये भी भगवान् विष्णु बाहर नहीं जाने पाते थे। हाँ, दोनों में एक अन्तर था और वह यह कि पिता शत्रुभाव से उनकी चिन्ता में था और पुत्र भक्तिभाव से!

हिरण्यकश्यपु ने देखा कि विष्णु का साधारण रीति से हमें मिलना सम्भव नहीं। इस कारण उसने बड़े-बड़े भयंकर उत्पात मचाने आरम्भ कर दिये। उसके असुर अधिकारियों ने विशेषकर उसके छोटे साले 'धूम्राक्ष' और 'कुम्भनाक' आदि दानवों ने सारे साम्राज्य में न जाने कितने निरपराध विष्णुभक्तों को नष्ट कर डाला। ये दुष्ट दानव प्रतिदिन कहीं न कहीं से एक न एक वैष्णव का सिर काट कर लाते और हिरण्याक्ष की विधवा स्त्री 'भानुमती' के सामने रखते थे। भानुमती का प्रण था, वह जब तक एक वैष्णव का सिर सामने कटा हुआ न देख लेती तब तक वह न तो अपना लौकिक नित्यकर्म करती और न जल पीती थी। दैत्यराज के असुर अधिकारी सारे साम्राज्य में अन्धेर मचाये हुए थे। किसी को कोल्हू में पिसवाते, किसी को कुत्तों से कटवाते और किसी को जीते-जी भूमि में गड़वा देते थे। किसी को फाँसी पर चढ़ाते, तो किसी को यों ही वृक्षों पर नीचे सिर करके लटकवा देते। असुरों के इन अत्याचारों से लोग घबड़ा गये। चारों ओर 'त्राहि माम्, त्राहि माम्' के करुणोत्पादक शब्द सुनायी पड़ने लगे। दैत्यों ने अपने पराक्रम से स्वर्ग को रसातल बना दिया और देवराज इन्द्र को बन्दीगृह में बन्द कर मानों उन्होंने देवराज इन्द्र से हिरण्यपुर के आक्रमण का बदला चुका लिया।

बालक प्रह्लाद, असुरों के इन अत्याचारों के समाचारों को सुनकर अत्यन्त दुखी हुआ करते थे। उनको इतना कष्ट होता था कि कभी-कभी वह उनके दुःखनिवारणार्थ सत्याग्रह कर बैठते थे। दीन-दुखियों के करुण-क्रन्दन को सुनकर वह रो पड़ते और उनका शरीर काँप उठता था। जब कभी बालक प्रह्लाद के सामने कोई दीन-दुखिया सताया जाता था, तब वह अपनी माता से उसके छुड़वाने के लिये हठ करते और यदि वह नहीं छोड़ा जाता तो वह खाना-पीना छोड़ अनशनरूपी सत्याग्रह करने लगते थे। महारानी ने कई बार पुत्र के सत्याग्रह के कारण न जाने कितने बन्दियों को अपने भाई कुम्भनाक एवं धूम्राक्ष आदि असुरों से कह-सुन कर छुड़वा दिया था और कभी-कभी तो बालक प्रह्लाद ने स्वयं अपने पिता ही से प्रबल आग्रह करके दीन-दुखियों को दण्ड से मुक्त करवाया था। कभी-कभी जब पिता प्रह्लाद की बात न मानते तब वे अनशन का सत्याग्रह करने लगते थे। इन बातों से उनके सारे साम्राज्य में उनकी दयालुता की बात चारों ओर फैल गयी और दीन-दुखिये, ऋषि, देवता और पितरगण उन्हें मुक्तकण्ठ से आशीर्वाद देने लगे। इतना ही नहीं, उनके भय से दैत्यराज हिरण्यकश्यपु के कर्मचारियों के घोर अत्याचार भी शिथिल से होने लगे और इस बात की विशेष सावधानी रखी जाने लगी कि किसी प्राणी को प्रह्लाद के सामने दण्ड न दिया जाय, उनके कानों तक किसी के रोने-पीटने के शब्द सुनायी न पड़ें और उनके सामने कोई दुखिया न जाने पावे।

जो दैत्यराज, इन्द्र को बन्दी बनाये हुए था, विष्णुभगवान् को मारने के लिये रात-दिन उनकी खोज में लगा रहता था और सारे दिकपालों का, तीनों लोक और चौदहों भुवन का अधीश्वर था वही हिरण्यकशिपु, स्नेहवश अबोध बालक के हठ के सामने झुक जाता था। पुत्र के हठ के सामने वह अपनी दण्ड आज्ञा को रद्द कर देता था और पुत्र की आँख बचा अत्याचार करता था। वह सब क्या था? किस भय से वह ऐसा करता था और उस छोटे-से बालक के हाथ में वह कौन-सा अस्त्र था, जिसके कारण पिता पर उसका इतना आतंक था? यह वही अस्त्र था जो निरस्त्र प्राणियों के हाथों में होता है। यह वही भय था जो निर्बल प्राणियों के सतानेवाले के हृदय में ईश्वर की प्रेरणा से उत्पन्न हो जाता है और यह वही आतंक था जो एक सच्चे भगवद्भक्त की दृढ़ता से अत्याचारियों के सामने उपस्थित होता है। इसी का नाम लोगों ने ‘सत्याग्रह' रख लिया। सत्याग्रही प्रह्लाद सदा पिता के सामने पुत्र ही के रूप में खड़े होते थे। प्रह्लाद पिता का वैसा ही सम्मान करते थे जैसा एक पितृभक्त पुत्र को पिता के;प्रति करना उचित है। प्रह्लाद अपने पिता के अत्याचारों का प्रतिवाद करके न तो कभी उनकी निन्दा करते थे और न अपने किसी आचरण से उनका अपमान ही होने देते थे। वह पुत्रधर्म का पूर्णरीत्या पालन करते थे और इसी कारण से उनकी अबोध दशा में उनके पिता के कठोर हृदय पर भी सत्याग्रह का प्रभाव पड़ता था और वह उनके सत्याग्रह के सामने सिर झुकाता था। एक दिन दैत्यराज अपने अन्तःपुर में गया हुआ था। महारानी कयाधू और हिरण्यकश्यपु दोनों ही अपने पुत्र प्रह्लाद के अनुपम शील एवं अलौकिक सौन्दर्य की प्रशंसा कर रहे थे। इतने में बालक प्रह्लाद भी साथी बालकों के साथ नाचते-कूदते न जाने किस ध्यान में मग्न हो वहाँ जा निकले, प्रह्लाद ने आने के साथ ही पिताजी के चरणों में सिर नवाया और दैत्यराज ने भी आशीर्वाद दे और सिर सूँघ कर उन्हें अपनी गोद में उठा लिया। दैत्यराज ने बड़े प्रेम के साथ पूछा 'बेटा प्रह्लाद ! तुम्हारी बोली तो बड़ी मधुर है, तुम्हारा हृदय भी बड़ा कोमल है किन्तु हमारे साथ जब तुम 'सत्याग्रह करने लगते निठुर हो जाते हो । इसका क्या कारण है ? तुम तो उस समय अपना पराया सब कुछ भूल जाते हो, यह क्यों ? "

प्रह्लाद– “पिताजी! मैंने तो आपसे कभी निठुराई नहीं की। आपसे जब-जब मैंने किसी पीड़ित के मुक्त करने की भिक्षा माँगी तब आपने दया करके अपनी उदारता दिखलायी किन्तु जब कभी आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, तब मैंने अपने मन में समझा कि मेरा पूर्वजन्म का कोई घोर पाप है जिससे मेरे हृदय को दीन-दुखियों के दमन का कष्ट सहन करना पड़ रहा है और मेरे जन्मदाता पूज्यपाद पिता भी प्रार्थना करने पर मेरे हार्दिक दुःख का अनुभव नहीं कर पाते हैं। तब, मैं अपने आपको, उस पूर्वजन्म के पाप से मुक्त करने के लिये दण्डित करता हूँ। इसके लिये मेरे पास दूसरा अधिकार ही क्या है? इसलिये मैं केवल अनशन करने लगता हूँ। इस प्रकार प्रायश्चित्त द्वारा मेरे पूर्वजन्म का पाप जब मार्जित हो जाता है, तब आप मेरी प्रार्थना को स्वीकार कर लेते हैं। इसमें पिताजी, मेरी कठोरता क्या हुई ?
हिरण्यकशिपु– “बेटा प्रह्लाद! तुम्हारी बातें तो, ऐसी होती हैं कि मानों कोई बड़ा चतुर सर्वशास्त्र का वेत्ता बोल रहा हो। अस्तु, हम चाहते हैं कि, तुम आज हमसे कुछ माँगो। बतलाओ, इस समय तुम क्या चाहते हो?”
प्रह्लाद– “पिताजी! आपकी कृपा से मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, किन्तु आपने माँगने की आज्ञा दी है, इसलिये मैं आपकी आज्ञा को टालना भी नहीं चाहता। यदि आप मुझे दें तो यही दें कि आज से किसी प्राणी को आपके साम्राज्य में कोई आततायी सताने न पावे और किसी को दण्ड देना ही हो तो उसके बदले मुझे दे दिया जावे।”
हिरण्यकश्यपु–“बेटा! तुम अभी अबोध बालक हो, तुम्हारा हृदय दयामय है, किन्तु शासन में दण्ड का विधान आवश्यक होता है। यदि प्रजा को यह मालूम हो जाय कि इस राजा के राज्य में किसी को दण्ड नहीं दिया जाता तो चोरों, डाकुओं और अन्यान्य अत्याचारियों के अत्याचार और अपराध इतने बढ़ जायँ कि फिर उनका संभालना कठिन हो जाय। अवश्य ही दया का भाव होना चाहिए, पर अपराधी को दण्ड देना भी तो उस पर दया करना है। दण्ड से शरीर शुद्ध हो जाता है। जो अपराधी राजदण्ड से बच जाते हैं, चाहे वे किसी भी कारण से बच जायँ वे यमदण्ड के भागी होते हैं। यमदण्ड राजदण्ड से अधिक कष्टदायी और अधिक काल के लिये होता है। सारांश यह कि राजा का धर्म है कि अपराधी को दण्ड दे। यदि राजा अपराधी को तो दण्ड न दे और उनके बदले निरपराध प्राणियों को दण्ड दे तो वह स्वयं अपराधी बनता और यमदण्ड का भागी होता है।”
प्रह्लाद– “पिताजी! आपका कथन यथार्थ है, किन्तु जो बेचारे अपराधी नहीं हैं, उन पर तो आप दया किया करें और अपने अधिकारी असुरों से कह दें कि वे निरपराध देवताओं को तथा उनके अनुयायियों को कभी सताया न करें।”
हिरण्यकश्यपु–“बेटा! जब तुम्हारा जन्म नहीं हुआ था तब की बात है। इसलिए तुमको पता नहीं है। देवताओं ने हमारी अनुपस्थिति में अकारण हमारे नगर पर आक्रमण कर सारी राजधानी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था और इतने अत्याचार किये थे कि जिनका वर्णन भी नहीं किया जा सकता। यहाँ तक कि तुम्हारे गर्भ में होने पर भी तुम्हारी माता को देवराज इन्द्र बलात्कार से हरण करके ले जा रहा था। यदि महर्षि नारद न मिल गये होते तो न जाने तुम्हारी माता की क्या दशा हुई होती और तुम्हारी क्या गति होती। अतएव देवता हमारे केवल साधारण शत्रु ही नहीं, आततायी शत्रु हैं। उनका वध करना ही धर्म और राजनीतिज्ञता है। उनके सिवा अब से अन्यान्य निरपराध प्राणियों को हमारे साम्राज्य में कोई भी सताने नहीं पावेगा। इस बात के लिये तुम निश्चय जानो।”
इतनी बात समाप्त होते-होते किसी आवश्यक कार्य के लिये एक राजदूत ने प्रार्थना की और दैत्यराज राजसभा में चले गये।

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