[भक्ति का भाव]प्रह्लाद के शारीरिक सौन्दर्य, अपूर्व तेज और विचित्र बालचरित्र की महिमा धीरे-धीरे सारे नगर ही में नहीं, प्रत्युत सारे साम्राज्य में कही और सुनी जाने लगी। उनकी शैशवकालीन मधुर हँसी, उनका मचलना और उनकी तोतली बोली के अस्फुट शब्दों एवं भावों को देखने और सुनने के लिये केवल दास-दासी, पुरजन-परिजन, सगे-सम्बन्धी ही नहीं, प्रत्युत अगणित प्रजाजन भी लालायित रहते और अपने आनन्द का सर्वोत्तम साधन समझते थे। दैत्य, दानव, असुर-वृन्द तथा उनकी प्रजाओं के न जाने कितने लोग यहाँ तक कि देवतागण भी वेष बदलकर उन परमभागवत के अपूर्व दर्शन के लिये जाते और दर्शन पाकर अपने आपको कृतकृत्य समझते थे। बालक प्रह्लाद में आदर्श बालकों के सारे उत्तम गुण थे। मुख पर अव्यक्त हँसी, शान्ति, सुन्दरता और विकसित पद्मपुष्प के समान प्रभा छायी रहती थी। रोना, क्रोध करना, जड़तापूर्ण चंचलता आदि बालकों के दुर्गुण तो छू तक नहीं गये थे। इन्हीं गुणों के कारण बालक प्रह्लाद ने अपनी अबोध बाल-अवस्था ही में आस्तिक-नास्तिक सारी प्रजा के, अपने असुर एवं सुरकुल के लोगों के हृदयों पर इतना प्रभाव जमा लिया था कि न जाने कितने लोग दिन-रात में दो एक बार बिना उन बालक प्रह्लाद के मुखारविन्द को देखे, अधीर-से हो जाते थे। इसी प्रकार उनका अबोध बालकाल बड़ी ही विलक्षण रीति से व्यतीत हुआ। लोग समझते थे कि बालक होनहार है, सीधा है, शान्त है और गम्भीर है। बालक राजकुमार है अतएव उसमें इन गुणों का होना अचरज की बात नहीं, किन्तु वास्तव में वहाँ बात कुछ और ही थी और उसके जानने वाले विरले ही थे। बालक प्रह्लाद अबोध अवस्था में भी वस्तुतः अबोध न थे। उनको महर्षि नारद के उपदेश ने, उस अवस्था में भी हरि-भक्ति में लीन और संसार-बन्धन से विहीन कर दिया था। उनका मन शान्त था और ज्ञानी के समान वे सदा गम्भीर रहते थे। इसी कारण उनमें अपने पराये का भाव नहीं था। वे सारे संसार को अपना और अपने स्वामी सर्वव्यापी भगवान् विष्णु का स्वरूप समझते थे तथा सबके प्रति समान प्रेम-भाव रखते थे। एक दिन भी किसी ने किसी मानुषी अथवा आसुरी प्रकृति के अधीन उनको नहीं देखा। जड़-चेतन, सभी चराचर, उनके प्रेम की वस्तुएँ थीं। समस्त फूल-पत्तों, पशुओं एवं पक्षियों की हँसी के साथ वे हँसते और उनके गाने के साथ गाते थे और अपनी नन्हीं-नन्हीं-सी तालियाँ बजाते थे। साधारण बालकों के समान उनकी चेष्टा कभी देखी नहीं जाती थी। वे न कभी किसी चीज को अपने हाथों पकड़ने की चेष्टा करते थे और न कभी चिन्ता एवं कष्ट का अनुभव करते थे। वे सदा प्रसन्न रहते थे। हाँ, उनको एक चिंता नहीं नहीं एक अभिलाषा अवश्य थी वह थी अपने नाथ को जानने उनको पहचानने और उनको पाने की।
जिस समय उनके संगी-साथी बालक चारों ओर खेलकूद और दौड़धूप करते थे। उस समय भी वे शान्तचित्त से एकान्त में बैठकर न जाने क्या सोचते और मन-ही-मन क्या मुसकराया करते थे। जिस समय प्रह्लाद के साथी बालक जोर-जोर से शोर मचाते, नाचते, कूदते और आपस में मारपिटौवल कर रोते-चिल्लाते थे। उस समय भी बालक प्रह्लाद की शान्ति भंग नहीं होती थी और वे अपने मानसिक गूढ़ आनंद में मग्न रहते थे। वे कभी स्वयं शोरगुल मचाने में सम्मिलित नहीं होते थे और ऐसे चुप बैठे रहते थे, मानो उनको न तो वह शोरगुल ही सुनायी पड़ता है और न बालकों के खेल-तमाशे ही दीख पड़ते हैं। अवश्य ही उनके हृदय में महर्षि नारद के उपदेशों के द्वारा भगवद्भक्ति की तरंगें हिलोरें मार रही थीं और वे सारे संसार को ही उस परमात्मा का रचा हुआ एक विचित्र खेल समझते तथा स्वयं उसी खेल में लीन रहते थे, इसलिये उनको अपने साथी बालकों के नकली खेल-तमाशे और शोरगुल दिखायी, और सुनाई नहीं पड़ते थे। उनकी ओर उनका खयाल ही नहीं था।
कभी-कभी प्रहलादके भाई-बन्धु और सगे-सम्बन्धियों के लड़के जो उनके साथ खेलने-कूदने के लिये रहते थे, बलात् उनको अपने साथ खेलने के लिये पकड़ ले जाते थे। उस समय वे उन बालकों से अपने को छुड़ाने की चेष्टा न कर ऐसी मधुरी हँसी हँसते थे कि उनको पकड़ ले जाने वाले वे सभी बालक मोहित होकर हँस पड़ते और प्रह्लाद को छोड़ अपने अन्यान्य साथियों के साथ खेलने-कूदने लगते थे। बालक प्रह्लाद की इन सब अद्भुत लीलाओं को देख-देख और सुन-सुनकर उनके ऊपर प्रतिक्षण दृष्टि रखने वाली उनकी जननी महारानी कयाधू को बारम्बार महर्षि नारदजी के तथा पुरोहित के वचन स्मरण हो आते थे, इससे वे जिस अपूर्व आनन्द का अनुभव करती थीं, उसको पुत्रवात्सल्य-रस की जानने वाली माताएँ ही अनुभव कर सकती हैं, दूसरे तो उसका अनुमान भी नहीं कर सकते।
एक दिन प्रातःकाल का समय था, भगवान् भास्कर की स्वर्णमयी किरणें चारों ओर फैल रही थीं, कमलिनी अपने मुखारविन्द को सम्पुटित करने लगी थीं और कमलदल विकसित होने लगे थे। चारों ओर प्राकृतिक तथा राजनिर्मित सांसारिक सुषमाएँ दिखलायी दे रही थीं। उस समय बालक प्रह्लाद अपने पितृनिर्मित नन्दन-वन से भी अधिक शोभायमान राजकीय उद्यान में जा पहुँचे। राजोद्यान में सुखद शीतल, मन्द एवं सुगन्धयुक्त समीर बह रहा था। तरह-तरह के मनोहर कलरव करते हुए पक्षिगण उड़ रहे थे और न जाने कितने प्रकार के आकार वाले मुखमन्दिरों से निकल-निकल कर निर्झरिणियों की तरल तरङ्गे अपनी छटा दिखला रही थीं। छोटे-छोटे सरोवरों में रंग-बिरंगे कमलपुष्पों पर तथा प्रातःकालीन पुष्पित नवीन पुष्पराजों पर चारों ओर भ्रमरवृन्द गूंजते हुए मँडरा रहे थे, मानों वे सारे-के-सारे मधुकर शनैः शनैः परमभागवत प्रह्लाद प्रह्लाद का बालचरित्र के गुणगान करते हुए अपने जीवन को सफल बना रहे थे। उसी आनन्दमय समय में, उसी आनन्दवन के स्थान में बालक प्रह्लाद, प्रसन्नमन चारों ओर देख रहे थे तथा मन्द-मन्द हँस रहे थे। मानों राजोद्यान की सारी प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक शोभाओं में पुष्पों और पुष्पपरागों, सरोवरों और निर्झरिणियों में तथा पक्षि-वृन्द एवं मधुकरवृन्द में वे अपने आराध्यदेव, अपने सर्वस्व, अपने हृदयधन भगवान् माधव की महिमा और उनकी अपूर्व लीला को देख-देखकर आनन्द की हँसी हँसते हुए उनकी मानसिक आराधना कर रहे थे। उसी समय बालक प्रह्लाद को खोजती हुई उनकी माता कयाधू भी वहाँ जा पहुँचीं और अपने बालक पुत्र की उस अद्भुत हँसी को देख कर, मन्द स्वर से और स्नेहभरे शब्दों में कहने लगीं “बेटा प्रह्लाद! यह क्या हो रहा है? यहाँ अकेले किससे हँस रहे हो?”
प्रह्लाद– “माँ! मैं अपने प्राणधन और सारे संसार के
सिरजनहार हरि की महिमा देख रहा हूँ एवं उन्हीं से हँस हूँ। उनकी लीलाओं की मानसी पूजा कर अपने अबोध जीवन के उद्धार के लिये उनकी सारी लीलाओं को और उनके प्रत्येक नाम को स्मरण कर रहा हूँ।”
माता– “मेरे जीवनाधार पुत्र प्रह्लाद! तुम जो कुछ कह रहे हो और कर रहे हो, यदि ठीक भी हो तो भी, तुम्हारे लिये यह उचित नहीं। बेटा! तुम अभी बालक हो, तुमको अभी अर्चा-पूजा की क्या आवश्यकता है। तुमको तो खेलना-कूदना और आनन्द में समय बिताना चाहिये, जिससे तुम्हारे पिताजी भी आनन्दित हों और मैं भी आनन्द का अनुभव करूँ।”
प्रह्लाद– “माताजी! तुम कैसी बातें कह रही हो। क्या हरि की भक्ति में भी कोई अवस्था की अपेक्षा है? यह तो बालपन ही से होनी चाहिए। माताजी, तुम तो अनजान-सी बन रही हो, भला, इससे बढ़कर अच्छा खेल संसार में और कौन-सा है और इससे अधिक सुख और किस काम में मिल सकता है? परम पिता परमात्मा की भक्ति में जो परमानन्द है वह किसी भी सांसारिक काम में नहीं है। यदि मेरे पिताजी मेरे आनन्द से सचमुच आनन्दित होते हैं, तो मेरी इस हरिभक्ति से, और मेरे इस परमानन्द से उनको निश्चय ही अपार आनन्द प्राप्त होगा।”
माता– “बेटा प्रह्लाद! तुम नहीं जानते। तुम्हारे पिताजी यदि यह जानेंगे कि तुम हरि की भक्ति करते हो, तो वे तुम्हारे ऊपर अप्रसन्न होंगे। क्योंकि वे हरि से शत्रुता रखते हैं। वे कहते हैं कि, 'भगवान् हरि ने ही देवताओं का पक्ष लेकर और वाराहरूप धर पाताल में हमारे भाई को मार डाला है।' इसलिये हे बेटा! मैं तुमसे विनती करती हूँ, तुम अपने पूज्यपाद पिताजी को प्रसन्न रखने के लिये केवल हरि की उपासना ही नहीं, बल्कि
उनका नाम लेना भी छोड़ दो।”
प्रह्लाद— “माँ! आज तो तुमने मुझे यह बड़े अचरज की बात सुनायी। क्या सचमुच पिताजी परमपिता परमेश्वर के साथ शत्रुता रखते हैं? भगवान् विष्णु कभी पक्षपाती नहीं हो सकते भला! जो देव, दानव, दैत्य, राक्षस आदि सभी के उत्पादक और सभी के परमपिता हैं, वे देवताओं का पक्ष लेकर हमारे चाचा को अकारण मारें, क्या ऐसा होना कभी सम्भव है? माताजी! तुम्हीं बतलाओ कि, तुम कभी हम और हमारे भाइयों के बीच पक्षपात कर किसी एक को जान से मार सकती हो? यदि नहीं तो तुम उन परमपिता भगवान् हरि पर विश्वास रक्खो। वे कभी भी न तो किसी का पक्षपात करते हैं और न किसी के साथ अन्याय। सम्भव है तुमको मालूम न हो। और यह भी सम्भव है कि पिताजी को भी मालूम न हो। उनके अनजान में चाचाजी ने अवश्य ही कोई ऐसा काम किया होगा जिसके लिये उस परम पिता परमात्मा को कृपापूर्वक अपने हाथों उनको मारना पड़ा होगा। इसलिये तुम पिताजी को समझा दो। वे भगवान् से शत्रुता न करें और उनकी भक्ति के परम आनन्द का अनुभव करें।”
माता— “बेटा प्रह्लाद! तुम न जाने क्या कहते हो? पुत्र का परमधर्म पिता की आज्ञा मानना है। जब तुम्हारे पिताजी विष्णु का नाम लेना पाप समझते हैं, उनकी पूजा करना राजद्रोह समझते हैं और अपने सारे साम्राज्य में इसके लिये ढिंढोरा पिटवा चुके हैं तथा उनकी आज्ञा का पालन सभी सुरासुर कर रहे हैं, तब तुम उनके पुत्र होकर उनकी आज्ञा का पालन क्यों नहीं करते? जब तक पुत्र अबोध या अज्ञान रहे, तबतक उसे पिता ही को सब कुछ और उनकी आज्ञा ही को ब्रह्मवाक्य मान कर उसी के अनुसार चलना चाहिए। क्योंकि संसार में पिता से बढ़कर पुत्र का कल्याण चाहने वाला दूसरा कोई नहीं होता। इसलिये बेटा! बहुत क्या कहूँ, तुम्हारे पिताजी जो कहें, तुमको वही करना चाहिए और जब तुमको मालूम हो चुका है कि, वे विष्णु को अपना शत्रु मानते हैं, तब तुमको स्वयं ही विष्णु का
नाम न लेना चाहिए।”
माता की बातों को सुन कर बालक प्रह्लाद, खिलखिला कर हँस पड़े और पेटभर हँस लेने के पश्चात् बोले— “माताजी! तुम नाहक डरती हो। जब पिताजी मुझे कहेंगे तब मैं उनको समझा लूँगा, किन्तु यह प्यारा हरि-नाम तो मुझसे कभी छूटने का नहीं। इसकी मधुरता की समता तुम्हारे अति स्वादिष्ट पकवान भी नहीं कर सकते। अरी माँ! एक बार तुम भी तो इस मीठे रस का स्वाद लो। कहो तो प्रेम से
‘हरे मुरारे मधुकैटभारे।' कयाधू ने समझ लिया कि इस समय इसको समझाना व्यर्थ है। यह बालहठ है। ज्यों-ज्यों इस रोग के छुड़ाने की चेष्टा की जायगी, त्यों-त्यों यह बढ़ता ही जायगा। अतएव इस समय इसकी चर्चा ही न की जाय तो ठीक है। माता ने कहा “बेटा! अब बहुत खेल-कूद चुके, कलेवा करने का समय हो गया, चलो तुम्हारे भाई लोग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।” माता के आज्ञानुसार, भगवद्भक्ति के आनन्द में मग्न नाचते-कूदते और हँसते हुए बालक प्रह्लाद उनके पीछे-पीछे हो लिये।