परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग12 - बालक प्रह्लाद को माता की शिक्षा Praveen kumrawat द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

परम भागवत प्रह्लाद जी - भाग12 - बालक प्रह्लाद को माता की शिक्षा

[भक्ति की प्रबलता]
जब से राजोद्यान में माता के साथ बालक प्रह्लाद की भक्ति-विषयिणी बातें हुई, तब से प्रह्लाद की भक्तिरस की धारा और भी अधिक वेग से प्रवाहित होने लगी, इससे माता कयाधू की चिन्ता दिनों दिन बढ़ने लगी। बालक प्रह्लाद संसार में जो कुछ देखते अथवा सुनते थे सभी में अपने हृदयेश्वर भगवान् हरि ही की भावना करने लगते थे और इसी आवेश में वे कभी उछल पड़ते, कभी नाच उठते और कभी-कभी गाने अथवा रोने लगते थे। दिनों दिन उनकी दशा लोगों को पागलों जैसी प्रतीत होने लगी और उनकी इस दशा की चर्चा चारों ओर होने लगी। लोग देखते कि, राजकुमार कभी तो निर्जन स्थान में घण्टों बैठे न जाने क्या सोचते हैं और कभी रास्ते चलते भी कूदते-नाचते और खिलखिला कर हँसने लगते हैं। यह समाचार धीरे-धीरे पिता हिरण्यकशिपु को मिला और पुत्र की अपने प्राणप्रिय पुत्र की यह दशा सुन और देखकर उसको भी बड़ी चिन्ता हुई। उसको बालक प्रह्लाद की भगवद्भक्ति का अभी तक पता नहीं लग पाया था, किन्तु उसकी उदासीन वृत्ति ही से उसे चिन्ता होने लगी। वह मन-ही-मन कहने लगा “यह राजवंश का कुमार होकर भी साहसी नहीं। इसके अन्तःकरण में उद्योग का लेश भी नहीं है! इस बालक को अपनी शारीरिक शक्ति बढ़ाने के लिये अभी से व्यायाम करना चाहिये। मृगया (शिकार) को जाना चाहिए और इसमें राजोचित आत्माभिमान होना चाहिए किन्तु मालूम नहीं क्यों इसमें राजकुमारों जैसे राजनीति के एक भी लक्षण नहीं दिख पड़ते।” अन्ततोगत्वा दैत्यराज ने अपनी स्त्री महारानी कयाधू से कहा कि “प्रिये! इस बालक को धीरे-धीरे तुम सँभालो। बालकाल में बालक पुत्र को शिक्षा देने का भार माता पर ही होता है। जब तक बालक गुरुकुल का अधिकारी नहीं हो जाता तब तक उसका श्रेष्ठ आचार्य उसकी माता होती है। प्रियतमे! क्या कारण है कि यह बालक इस प्रकार के स्वभाव का हो रहा है। बालकों में माता-पिता के गुण होने चाहिए किन्तु इसमें तो न तुम्हारे-से साहसी गुण हैं और न मुझ-से निर्भय एवं उग्र विचार ही हैं। अतः अब इस ओर तुम भली-भाँति ध्यान दो और समुचित शिक्षा देकर इसको अपनी कुलमर्यादा के अनुरूप बनाओ।” स्वामी की आज्ञा को तो पतिव्रता कयाधू ने शिरोधार्य किया, परन्तु पुत्र की भगवद्भक्ति की चर्चा पति के सामने बिल्कुल नहीं की और मन-ही-मन चिन्ता में डूबती हुई बालक प्रह्लाद की शिक्षा का उपाय सोचने लगी।
बालक प्रह्लाद की भगवद्भक्ति में दृढ़ता, महारानी कयाधू पहले ही से देख चुकी थीं, अतएव उनको इस बात का विश्वास तो नहीं था कि, पुत्र को शिक्षा देकर उसको भगवद्भक्ति की ओर से विमुख कर दैत्यकुलानुरूप राजकुमार को तामसी शिक्षा देने में वे सफल होंगी, किन्तु स्वामी की आज्ञा और पुरुषार्थ को अजेय शक्ति समझ कर उन्होंने प्रह्लाद को शिक्षा देने का विचार किया। महारानी ने सोचा कि यदि प्रह्लाद को मैं भगवद्भक्ति से सर्वथा विमुख होने की स्पष्टतया शिक्षा दूँगी तो उसके ऊपर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। सम्भव है कि वह इससे मेरी शिक्षा को ग्रहण न कर अवहेलना करने लगे। इसलिये उसको ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि जिसमें भगवद्भक्ति का विरोध होने पर भी उसका प्रतिपादन प्रतीत हो। इसी अभिप्राय से महारानी कयाधू एक दिन एकान्त में बालक प्रह्लाद को इस प्रकार शिक्षा देने लगीं।
महारानी कयाधू— “बेटा प्रह्लाद! उस दिन राजोद्यान में तुमने जो हरिभक्ति की चर्चा की थी और मैंने उसका विरोध किया था, वह तुम्हें याद है न? इसमें कोई सन्देह नहीं कि शास्त्रानुकूल किसी कार्य के किये जाने पर उसमें जैसी अधिक सफलता हो सकती है वैसी मनमाने ढंग से काम करने में नहीं हो सकती। तुमने अब तक जो हरिभक्ति की ओर अपने चित्त को लगाया है वह न तो शास्त्रानुकूल है और न गुरूपदिश्य मार्ग से ही वह कार्य किया गया है अतः मेरी समझ से तुम भूलते हो। संसार में माता के लिये पुत्र से अधिक प्यारी कोई दूसरी वस्तु नहीं और बेटा जिसको सबसे अधिक प्यार करे, उसका विरोध भी माता को नहीं करना चाहिए। इसलिये हे प्रह्लाद! इस समय मैं तुमको शास्त्रानुसार भगवद्भक्ति की शिक्षा देना चाहती हूँ और भगवद्भक्तों के उन लक्षणों को बतलाना चाहती हूँ जो महर्षि नारदजी ने कहे हैं। आशा है कि तुम ध्यानपूर्वक सुनोगे।”
प्रह्लाद— “माताजी! आपने सत्य ही कहा है कि शास्त्रानुकूल अथवा गुरूपदिश्य मार्ग से ही भक्तिसाधन में सफलता हो सकती है किन्तु गुरु तो वही हो सकता है जो स्वयमेव भक्ति करता हो। आप तो भगवद्भक्ति का नाम भी नहीं सुनना चाहतीं फिर आप मुझको भक्ति की शिक्षा कैसे दे सकेंगी?"
माता कयाधू— “बेटा ! तुम बातें तो बड़ी-बड़ी करते हो, किन्तु यह नहीं जानते कि तुम्हारे पिताजी के भय से हम क्या, न जाने कितने लोग ऐसे मिलेंगे, जो अन्तःकरण से हरि के परमभक्त होते हुए भी ऊपर से ‘हरिद्रोही' बने हुए हैं। अतएव हम लोगों के आचरण पर नहीं, बल्कि उपदेशों पर ही तुमको ध्यान देना चाहिये।”
प्रह्लाद— “अच्छा, अच्छा माताजी! अप्रसन्न मत होईये, कहिये मैं सुनता हूँ किन्तु शीघ्र ही अपना उपदेश समाप्त कर दीजिये, कहीं पिताजी न आ जाय।”
कयाधू— “बेटा! नारदजी ने कहा है 'जो सभी प्राणियों के हितचिन्तक हैं, ईर्ष्या, अहंकार आदि दुर्गुणों से रहित हैं, संयमी एवं सब प्रकार की इच्छाओं से रहित हैं, वे भगवद्भक्तों में उत्तम कहे जाते हैं। जो मन, वचन एवं कर्म से किसी प्राणी को पीड़ा नहीं देते और स्त्रियों की आसक्ति से रहित हैं, वे ही भगवद्भक्त हैं। जो मनुष्य श्रेष्ठ कथाओं के सुनने में मन लगाते हैं और कथावाचक पर जिनकी भक्ति होती है, वे भगवद्भक्त हैं। जो लोग अपने माता-पिता को गंगा और शिव के समान पूज्य मानते एवं उनकी आज्ञानुसार सेवा करते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो देवताओं की पूजा में रत रहते हैं और भगवान् हरि की पूजा को देखकर आनन्दित होते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो अपने वर्ण एवं आश्रम में रहनेवाले धर्मात्माओं की, विशेषकर यतियों की सेवा करते हैं और पराई निन्दा से सदा परांगमुख रहते हैं, वे ही भगवद्भक्त हैं। जो लोग सदा प्रिय वचन बोलते हैं, कभी भी किसी को कठोर वचन नहीं कहते तथा संसार में गुण को ग्रहण करते और दोषों की ओर ध्यान ही नहीं देते वे भगवद्भक्त हैं। जो सज्जन संसार में सभी प्राणियों को अपने ही समान समझते हैं और शत्रु तथा मित्र दोनों ही को समान भाव से देखते हैं अर्थात् शत्रु से भी मित्रभाव रखते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो जन, धर्मशास्त्र के वचनों में तथा धर्मशास्त्र के वक्ताओं के वचनों में विश्वास करते एवं उनका पालन करते हुए सज्जनों की सेवा करते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो स्वयं पुराणों की व्याख्या करते हैं, पुराणों को सुनते हैं तथा जो पुराणवक्ताओंके भक्त हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो जन गौओं और ब्राह्मणों की निरन्तर सेवा करते हैं तथा तीर्थयात्रा में परायण हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो लोग दूसरों की बढ़ती देख कर प्रसन्न होते हैं तथा सदा हरिनाम जपते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो मनुष्य, बाग-बगीचे लगाते, वृक्षों का आरोपण करते हैं, कूप-तालाब एवं सरोवर खुदवाते तथा बनवाते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो सज्जन सरोवर बनवाकर उसके समीप देव मन्दिर की रचना करते हैं और गायत्री को सदा जपते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो जन विष्णु के नामों को सुन कर रोमाञ्चित होकर पुलकित हो जाते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो मनुष्य तुलसीवन को देखकर प्रणाम करते हैं और तुलसी की माला गले में धारण करते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो जन तुलसीजी की सुगन्धि से प्रसन्न रहते और उनके मूल की रज को मस्तक पर चढ़ाते हुए, अपने आपको कृतकृत्य समझते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो मनुष्य अपने आश्रमधर्म का पालन करते हुए अतिथियों का यथोचित सत्कार करते हैं और वेदों के अर्थ के ज्ञाता एवं वक्ता हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो मनुष्य शिवजी के प्यारे एवं शिवजी पर आसक्तचित्त हैं तथा त्रिपुण्ड्र धारण करते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो जन भगवान् शम्भु के नामों का उच्चारण करते हैं तथा रुद्राक्ष की माला को धारण करते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो लोग बड़ी-बड़ी दक्षिणा से युक्त यज्ञों से शिवजी की पूजा करते हैं अथवा परमभक्ति से भगवान् विष्णु की पूजा करते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो सज्जन, शिवजी में और परमेश्वर में, विष्णुभगवान् और परमात्मा में समान वृत्ति से बर्तते हैं अर्थात् विष्णु और शिव में अभेद बुद्धि रखते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो जन, शिवजी को पूजते हैं और उन्हीं के पञ्चाक्षर मन्त्र को जपते एवं उनके ही ध्यान में परायण हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो विद्वान्, अपने पठित शास्त्रों को दूसरों को पढ़ाते हैं, ज्ञानदान करते हैं वे गुणीजन अपनी कीर्ति से प्रकाशित भगवद्भक्त हैं। जो सज्जन सदावर्त देते अर्थात् अन्नदान देते हैं और पौसला (पिआऊ) चलाते हैं तथा सदैव एकादशी का व्रत करते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो दानशील जन, गोदान और कन्यादान करते हैं तथा जो भगवदर्थ कर्म किया करते हैं, वे भगवद्भक्त हैं। जो सज्जन भगवान् में चित्त लगाते हैं तथा भगवद्भक्तों को देख कर प्रसन्न होते हैं और भगवान् के नामस्मरण में लगे रहते हैं वे भगवद्भक्त हैं। विशेष क्या कहें, बेटा! नारदजी ने अन्त में कहा है कि जिनमें मनुष्यों के श्रेष्ठ गुण विद्यमान हैं, वे सब भगवद्भक्त हैं।' अब तुमको इन लक्षणों में से भगवद्भक्त के उन लक्षणों को ग्रहण कर लेना चाहिए जो परस्पर विरोधी न हों। जैसे पिताजी को शिव के समान पूज्य मान कर उनकी आज्ञानुसार ही उनकी सेवा करना, शिवजी की पूजा-आराधना और उनके मन्त्र का जप-ध्यान करना, रुद्राक्ष धारण करना और उनके प्रसन्नार्थ बहु दक्षिणावाले यज्ञों को करना। इतना ही नहीं, विष्णुभक्ति एवं विष्णु-नाम जपने एवं वैष्णवों की सेवा-शुश्रूषा के अतिरिक्त तुम अन्यान्य सभी धर्मों का पालन कर सकते हो और भगवद्भक्त बन सकते हो, किन्तु विष्णु सम्बन्ध जोड़ने से पिता का विरोध होगा जो भगवद्भक्त के धर्म के सर्वथा विरुद्ध पड़ता है। अतएव मैं तुमसे यही कहती हूँ कि 'बेटा! अपने दोनों लोक बनाओ और पूज्यपाद पिता तथा परमपिता भगवान् शंकर की भक्ति करके भगवद्भक्त के उत्तम पद को ग्रहण करो। यही शास्त्रसम्मत मार्ग तुम्हारे लिये सरल और हमारे लिये सुखप्रद है।”
प्रहलाद— “माताजी! आपके भगवद्भक्त के लक्षण सचमुच बड़े उत्तम हैं और मैं भी भगवान् विष्णु से यही प्रार्थना करता हूँ कि वे मेरी पितृभक्ति सदा बनाये रक्खें और पिताजी के हृदय को ऐसा बदल दें जिससे अकारण शत्रुता का भाव मिटे और आपके कथनानुसार मेरे दोनों लोक बनें और आपको भी मेरे द्वारा कष्ट एवं चिन्ता न होकर परम सुख मिले।”

पुत्र पर अपने उपदेशों का कुछ भी प्रभाव पड़ते न देख माता को बड़ी चिन्ता हुई और वह सोचने लगीं कि अब मैं इसको किसी दूसरे दिन समझाऊँगी। इसकी विष्णु-प्रीति हटती नहीं और स्वामी के हृदय से विष्णुद्रोह हटनेवाला नहीं। अस्तु, उद्योग करने का विचार उन्होंने फिर भी नहीं त्यागा और विलम्ब होते देख, बालक प्रह्लाद को भोजन के लिये ले गयीं। पुत्र को भोजन कराकर स्वयं फिर अपनी चिन्ता में लग गयीं कि पुत्र को कैसे रास्ते पर लाया जाय।
जिस भगवद्भक्तिरूपी रसामृत को पाने के लिये लोग तप और योग करते-करते थक जाते हैं, जिस तत्त्व को समझने के लिये जीवनपर्यन्त बड़े-बड़े तपस्वी न जाने कौन-कौन-सी साधनाएँ किया करते हैं और जिस अलभ्य पदार्थ के पाने के लिये न जाने कितने योगीजन कितने ही जन्म बिताते और जप-योग की समाधि लगाते हैं, उसी अलभ्य पदार्थ को, उसी भगवद्भक्ति के रसामृत को जिस बालक प्रह्लाद ने अपनी इस छोटी-सी अवस्था में पा लिया है, उसको समझाने वाला और समझाबुझा कर उसके हाथों से, नहीं उसके हृदय से निकाल फेंकने वाला संसार में कौन है? अपने स्वार्थवश अथवा प्राणपति एवं प्राणाधिक प्रिय पुत्र के बीच सद्भाव बनाये रखने के लिये पतिव्रता एवं पुत्रवत्सला कयाधू भले ही जी तोड़ कर परिश्रम करती रहें, किन्तु बालक प्रह्लाद के हृदय से भगवद्भक्ति का दूर होना और उनके मुख से हरिनाम-कीर्तन की अमृतधारा का रुकना कष्टसाध्य नहीं सर्वथा असम्भव है।
अब प्रह्लाद का सारा समय भगवान् की कीर्ति गाने और उनके नामकीर्तन एवं चरणवन्दना में ही बीतने लगा। प्रह्लाद का जीवन इस छोटी-सी अवस्था में ही प्रेममय हो गया और सारा संसार उनको अपना ही कुटुम्ब-सा दिखलायी देने लगा। उनके मन में राजपुत्र होने का कुछ भी अभिमान न था। सादगी, सरलता, साधुता और पवित्रता के अतिरिक्त उनके हृदय में किसी भी विकार को स्थान ही न था। यह दृढ़ सिद्धान्त है कि बिना आधार के मन की अस्थिरता दूर नहीं हो सकती। प्रह्लादजी सब कुछ जानते थे, उनको सब तत्त्व ज्ञात थे, परन्तु अभी उनकी बुद्धि में कुछ चंचलता शेष थी, वह उसको दूरकर बुद्धि को एक परमात्मा में स्थिर करना चाहते थे, इसी विचार से प्रह्लाद अपने आराध्यदेव को निज हृदय-मन्दिर के बाहर देखने के लिये भी लालायित हुए और पिता से छिपा कर उन्होंने भगवान् हरि की एक मूर्ति रक्खी। उसी सुन्दर मूर्ति की वे उपासना करने लगे और उसी से उन्होंने अपना प्रेम बढ़ाया। इस प्रकार उन्होंने अपने चित्त को साधार उपासना में लगाया। मूर्ति के आधार को पाकर उनकी पवित्र भक्तिरूपी सुर-सरिता ऐसी उमड़ी कि फिर वह जीवनपर्यन्त बढ़ती ही गयी।