नमो अरिहंता - भाग 6 अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नमो अरिहंता - भाग 6

(6)

पुनर्जन्म

**

नौकरी छूट जाने से घर में मातम-सा छा गया था। हालाँकि पिता ऑन ड्यूटी मरे थे इसलिये वेतन अम्मा के नाम हो गया था, बाबूजी बहाल हो चुके थे, भाभी एक प्रायवेट स्कूल में लोअर डिवीजन टीचर हो गई थीं जिसके निकट भविष्य में सरकारी हो जाने की संभावना थी! और मंझला भाई मेडिकल के सेकंड ईयर में आ गया था तथा फर्स्ट ईयर में अव्वल आने के कारण उसे योग्यता वजीफा मिल गया था सो कोई ज्यादा आर्थिक प्रॉब्लम न थी। लेकिन उड़ती-उड़ती खबर के आधार पर मामाजी ने अम्मा से कानापूसी कर दी कि सेठ की लड़की के चक्कर में पड़ जाने से इन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा है।...

और यह बात आनंद को गहरे तक साल गयी थी! यह तो वही हुआ कि- माया मिली न राम सो इस बदनामी की वजह से, प्रीति से यदि थोड़ा बहुत लगाव था, सो भी पुँछ गया और उनके सिर पर एक बार फिर नौकरी का भूत सवार हो गया।

पुराने साथी मिलते, कहते, ‘प्रचारक संघ के लिये समर्पित होते हैं नौकरी-फोकरी का बंधन नहीं मानते। एक बार यह जन्म-जीवन संघ के लिये समर्पण कर चुकने के बाद भाईजी, आपकी यह भटकन समझ नहीं आती हमें, तो। जरूर आपकी दीक्षा में कहीं कोई कमी रह गई है।’

पर अब इन बातों पर आनंद कोई तवज्जह नहीं देते। वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर ही जीना चाहते थे। सो, उनका मन उड़ा-उड़ा-सा बना रहता।

फिर खोजते-खोजते आखिर एक दिन उन्हें बिजली विभाग की गेंग में काम मिल ही गया। तब उनकी तैनाती ग्वालियर से दूर लहार नामक एक कस्बाई डिवीजन (मध्यप्रदेश विद्युत मंडल का डिवीजन) में हुई थी। जनश्रुति के आधार पर लहार लाक्षागृह का अपभ्रंश है। कहा जाता है कि महाभारत के पांडव बंधु अपनी माँ कुंती और पत्नी द्रोपदी सहित दुर्योधन के षड्यंत्रपूर्वक बनवाये गये लाख के महल में दग्ध होने से बाल-बाल यहाँ बच निकले थे, यह वही ऐतिहासिक लहार है। लाक्षागृह वाली वह पुरानी गढ़ी यहाँ आज भी मौजूद है। पर आनंद का उससे कोई सरोकार न था। वे उस गढ़ी को देखने भी नहीं गये जिसमें स्टेट टाइम का राज परिवार आज भी विद्यमान है।

दरअसल, प्रदेश सरकार उन दिनों प्रत्येक गाँव को विद्युत लाइन से जोड़ने का सघन अभियान चला रही थी। कहते हैं-बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा था! इस तरह बी.ए. पास आनंद बिहारी को बतौर मजदूर 3 रुपये 33 पैसे रोजनदारी/मस्टर रोल पर रख लिया गया था। वे और उनके साथी अक्सर सुनसान जंगलों में लोडेड ट्रकों से जा उतरते और अपनी-अपनी कुदालें और तसले, फाँवड़े उठाकर गड्ढे खोदते हुए आगे बढ़ते जाते। उनकी ही गेंग का कोई दूसरा ग्रुप इन गड्ढों में ट्रकों से उतारे गये खम्भे गाड़ता जाता और कोई तीसरा ग्रुप तार खींचता जाता। इस तरह वे सब आगे बढ़ते-बढ़ते जब किसी गाँव तक पहुँच जाते तब फिर साइट बदल दी जाती।

आनंद बिहारी उन दिनों में भी सोमवार, गुरुवार और शनिवार का व्रत नियमित रूप से रखा करते। एक टाइम अपने कैरोसिन स्टोव पर वनस्पति घी के पराँठे बनाते और चाय के साथ खाकर तथा लंबी डकार लेकर निश्चिंत सो जाते। सोमवार को शिवजी, गुरुवार को बृहस्पतिजी, शनिवार को हनुमानजी का फोटो रखकर वे सूर्योदय तक नहा-धोकर पूजा-अर्चना कर डालते। और शेष दिनों में मानस के पाठ से काम चला लेते। पोस्ट ऑफिस की आवर्ती जमा योजना में उन्होंने पाँच-पाँच रुपये माहवार के दो खाते खोल रखे थे। और स्टेट बैंक की सेविंग स्कीम के अंतर्गत एक पासबुक बनवा रखी थी जिससे कि महीने में बचा पैसा उसमें डाल सकें तथा वक्त जरूरत निकाल सकें।...

पर जिंदगी अगर इसी तरह चलती जाती तो बिजली घर की परंपरा के अनुसार वे पढ़े-लिखे होने के कारण जल्दी ही दफ्तर में अटैच कर लिये जाते। फिर जब कभी डिपार्टमेंटल एग्जशम होता, वे उसे पास कर बाबूगीरी में निकल जाते। कि आगे चलकर आनंद बिहारी आसानी से शादी कर लेते। मकान बनवा लेते। बच्चों की परवरिश करते हुए चारों धाम की यात्रा के उपरांत बूढ़े और जर्जर होकर अपने अंत समय में अपनी चारपाई से उस कल्पित यान को ताक उठते जो कि उन्हें इतने सद्कर्मों के एवज स्वर्ग ले जाने को आने वाला होता। कुल मिलाकर वे एक औसत हिंदू बनकर अपनी इहलीला समेट ले जाते। पर उनके प्रभु को कुछ और ही मंजूर था।

उन दिनों राष्ट्र आपातकालीन स्थिति के भयानक दौर से गुजर रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आनंद मार्ग जैसे उग्रवादी संगठनों पर प्रतिबंध लग गया था। उनके कार्यालयों पर ताले पड़ गये थे। उनके प्रचार साहित्य को जब्त कर लिया गया था। कई एक अखबार बंद कर दिए गये थे। देश में एक सूत्र ‘दूर दृष्टि, कड़ी मेहनत, पक्का इरादा’ के ढोल-नगाड़े बज उठे थे। प्रधानमंत्री के 20 सूत्रीय और उनके यशस्वी पुत्र के 5 सूत्रीय कार्यक्रमों ने देश में विकास का बिगुल बजा दिया था। अनुशासनहीन, विद्रोही और बलवाई शक्तियों को जेलों में ठूँसा जा रहा था। और तमाम दक्षिणपंथी, वामपंथी नेता ही नहीं, नेहरू की टक्कर के जे.पी. जैसे धुरंधर नेताओं को सरकार ने भीतर कर दिया! गाँधीवादी तरीकों पर रोक लगादी! और बिनोवाजी तक ने इसे अनुशासन पर्व की संज्ञा दे डाली! तो बेचारे आनंद बिहारी की ही क्या अटकी पड़ी थी। वे तो यूं भी लश्कर से दूर प्रदेश के सीमांत क्षेत्र में गड्ढे खोद-खोदकर खम्भे गाड़ रहे थे। राजनीति और किसी आंदोलन से उनका लेन-देन था ही कब? वे तो बस यूं ही अपनी प्रकृति, राष्ट्रीय भावनावश शाखा में चले जाया करते थे, और एक नियमितता के कारण नगर प्रचारक बन गये थे। पर अब जबकि पुलिस बिना नाम का वारंट लिये संघियों के पीछे हाथ धोकर पड़ी थी, उन्हें थानों में ले जाकर मारपीट कर रही थी मुर्गा बनाकर अपमानित कर रही थी, तब आनंद का ऐसे संघ से क्या वास्ता! भय के मारे 6 महीने तक तो उन्होंने लश्कर की ओर रुख भी नहीं किया।

पर तत्कालीन सरकार आगे जाकर जिस तरह नसबंदी अभियान को लेकर अंधी हो गयी थी, कि उसने बूढ़ों और बाँझन तक को नहीं बख्शा! सिर्फ लक्ष्य और पूर्ति के पीछे पागल था सारा अमला! उसी भाँति जे.पी. आदि नेताओं और सर्व दलों के सत्याग्रह पर उन्हें जेलों में ठूँसने के बाद वर्दीधारियों ने संघियों की खोजबीन शुरू कर दी थी। फलतः आनंद बिहारी को एक रात साइट पर से ही गिरफ्तार कर लिया गया।

अचानक हुए इस वज्रपात से उनका मुंह रेत की तरह सूख गया। पेट में पानी हो गया, कि यह क्या आफत आ गई? लेकिन उससे बचना लाक्षागृह से निकल भागना नहीं था, दुर्योधन के प्रशासन में इतनी चुस्ती कहाँ थी? उसकी सेना, उसके दांडिक, उसके गुप्तचर, उसके षड्यंत्रकारी इतने पहुंचे हुए न थे। यहाँ इस धरपकड़ से बचना ठीक वैसे ही असंभव था जैसे यमदूतों से। क्योंकि पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक एक अतिवादी हिंदू संगठन के वे एक शीर्ष नगरीय नेता थे, जो अब मजदूरी के नाम पर प्रादेशिक सीमा पर देहाती जनता को सरकार के खिलाफ संगठित करने में जुटे थे। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि वे एक अत्यंत खतरनाक विप्लवकारी हैं। अतः उन्हें आसपास की जेलों में नहीं रखा जा सकता। लहार, सेंवढ़ा की उप-जेल तो क्या ग्वालियर की सेंट्रल जेल में भी नहीं। फलतः उन्हें रातों-रात अहमद नगर किले की उस ऐतिहासिक जेल में ले जाकर डाल दिया गया जो स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की मशहूर जेल रही आई है।

यह झटका सीधे-सादे आनंद बिहारी के लिये एक जबर्दस्त आघात् सिद्ध हुआ। उनके भविष्य के सारे सपने शीशे की तरह चूर हो गये। जन्म से संचयी और मितव्ययी आनंद बिहारी दुःखी और उदास हो गये। कि वे किस तरह अपने पाँव पर पाँव धरकर चल रहे थे। अपने धर्म में प्रवृत्त! अपनी जाति के प्रति प्रतिबद्ध! उन्होंने प्रेम तक को तज दिया कि वह काम आधारित है। वेदविहित रीति से अपनी ही जाति में हुए विवाह संस्कार द्वारा वे ऐंद्रिक भोगों को भोगते हुए भी पाप को प्राप्त नहीं होते। पर अब सारी दुनिया से उन्हें नफरत हो चली थी।

इस जेल में सारे राजनैतिक कैदी ही रखे गये थे। जेल में एक मंदिर भी था और वाचनालय भी। कभी-कभी यहाँ अखबार भी आ जाया करता। पर वे अन्य कैदियों से कुछ भिन्न थे। जो न कभी खाने-पीने को लेकर चिल्ल-पों मचाते और न राजनीतिक टीकाटिप्पणी करते! आनंद ज्यादातर मंदिर में बैठकर ध्यान किया करते। ‘कोऽहं को मम धर्म!’ और इस चिंतन में वे आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहना सीख रहे थे। उन्होंने माना कि विषय चिंतन से उनकी आसक्ति बढ़ गई थी। जिससे कामना उत्पन्न हुई और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध। तथा क्रोध से मूढ़ता पैदा हो गई। जिससे कि उनकी स्मृति में भ्रम पड़ गया और उनकी बुद्धि का नाश हो गया। कि वे अपनी स्थिति से गिर गये।

पर अब वे अपने मन को साध कर इस स्थिति से उबर सकते हैं। ध्यान के साथ ही उन्होंने स्वाध्याय भी आरंभ कर दिया था। पिछली सदी के उत्तरार्द्ध और इस सदी के आरंभिककाल में हुए नवजागरण के पुरोधाओं की जीवनियाँ, उनका दर्शन और सुधार आंदोलनों पर आधारित पुस्तकें उन्होंने एक-एक कर पढ़ डालीं। और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि धर्म और विचार की दृष्टि से यों तो अंतिम सत्य अद्वैतवाद ही माना गया है जो सभी धर्मों को समान और प्रेमपूर्ण दृष्टि से देख सकता है! किंतु भारत विभिन्न मत-मतान्तरों का देश है, यहाँ की सांप्रदायिक समस्यायें अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा कहीं अधिक जटिल व गुरुत्तर हैं, यहाँ का सांप्रदायिक संघर्ष उनकी कूपमंडूकता का प्रतीक है और यह सांप्रदायिकता व्यक्ति मात्र को ही संकीर्ण नहीं बनाती बल्कि समूचे राष्ट्र को बड़े स्तर पर विचलित करती है। यूरोप की बात अलग है! वहाँ राजनैतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का आधार है। किंतु भारत में तो राष्ट्रीय एकता उसकी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों का एकीकरण करके ही संभव हो सकती है। अव्वल, यहाँ धार्मिक एकता पर जोर दिया जाय! मतलब, एक ऐसा वर्ग लोगों के समक्ष रखा जाय जो कि बिना किसी संप्रदाय को हानि पहुँचाये, सभी कार्यों को आडंबर रहित कर धर्म का वास्तविक अर्थों में पालन करने का एक मंच प्रदान करे।...

कहना न होगा कि अब उन्हें संघ का हिंदू-हिंदुत्व, राष्ट्र-राष्ट्रीयता वाला विचार बहुत संकीर्ण लग उठा था। उन्हें डॉक्टर साहब, गुरुजी, देवरस, सब अदूरदर्शी लग उठे थे। संघ के क्रियाकलाप और फलसपे तथा वस्तुस्थिति का अंतर्विरोध उन्हें नजर आने लगा। काश! उन्होंने पहले ही पुनर्जागरण के इतिहास को पढ़ लिया होता! तो वे इस प्रतिबंधित दल में हर्गिज कदम न धरते। गोया, यह तो निरे सिरफिरे, मूढ़ों की जमात है! या कि जो इस राष्ट्र के दुश्मन हैं, उनका गढ़! क्योंकि राष्ट्र सिर्फ हिंदुओं का नहीं है! कि ये अतिवादी यदि इसी रफ्तार से बढ़ते गये तो परमवैभव के शिखर पर पहुँचने के बजाय यह देश एक दिन गृहयुद्ध की विभीषिका में जलकर खाक हो जाएगा।

आनंद बिहारी एक चोट खाये हुए व्यक्ति थे, और हो सकता है- ऐसे लोग इसी तरह सोचा करते हों! पर उनके व्यक्तित्व से एक बात तो साफ झलकती है कि उन्होंने वेदांती बुद्धि और इस्लामी देह पाई है। वे सहिष्णुता के ज्वलंत उदाहरण हैं, और एक हठी पूर्वाग्रही नहीं हैं। यह बात इससे साफ जाहिर है कि जब उन्होंने राहुल सांकृत्यायन और भगवत शरण उपाध्याय को पढ़ा तो वे मिथों के प्रति, सामंतीय और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के प्रति और धार्मिक आविष्कारों के प्रति और चौकन्ने हो गये। उनके मन में गीता के संदेश के प्रति तमाम शंकायें उभर आईं।

सबसे पहले उनका ध्यान गीताशास्त्र के अंतर्विरोधों पर गया। यथा-

1.कहा गया है कि मन को साधकर इंद्रियों को वश में करके निष्काम भाव से कार्य करते हुए परमपद ‘अव्यक्त अक्षर’ को प्राप्त किया जा सकता है। इस परमपद-अव्यक्त अक्षर ॐ का अंश ही जीवात्मा है। जो समस्त भूतों में व्याप्त है। किंतु आगे कहा गया है कि यही जीवात्मा इस प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इंद्रियों को आकर्षित करता है। तब प्रश्न यह उठता है कि मन को साधने से क्या होगा, जीवात्मा जो चाहेगा वही तो करेगा! और वह परमात्मा का अंश है। यानी परमात्मा चाहेगा तो ही परमपद प्राप्त होगा, मन को वश में करने या चाहने से नहीं।

2.कहा गया है कि कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि वह प्रकृति जनित गुणों के द्वारा परवश होने से कर्म के लिये बाध्य है। किंतु आगे कहा गया है कि जो आत्मा से ही आत्मा में रमण करने वाला है, आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्त्तव्य नहीं है अर्थात्-कर्ममुक्त हो जाता है!

3.कहा गया है कि जिस प्रकार सूक्ष्म आकाश सब ओर व्याप्त होते हुए भी लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार यह जीवात्मा भी समस्त शरीर में व्याप्त होकर लिप्त नहीं होता, किंतु आगे कहा गया है कि वायु गंध के स्थान से जैसे गंध को हर ले जाती है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इस मन सहित इंद्रियों को ग्रहण करके नये शरीर में ले जाता है अर्थात्-आत्मा सर्वाधिक लिप्त है!

और आनंद बिहारी गीताशास्त्र में उलझते चले गये। फिर तो उन्हें उसकी वैज्ञानिकता पर भी संदेह होने लगा। यथा-

1.कृष्ण कहते हैं कि अविनाशी ब्रह्म ही वेदों का जनक है। वेद से कर्म समुदाय उत्पन्न होता है। विहित कर्मों से यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञ से वर्षा होती है और वर्षा से अन्न तथा अन्न से संपूर्ण प्राणिमात्र उत्पन्न होते हैं। जबकि आज वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सर्वथा सिद्ध हो चुका है कि यज्ञ वर्षा का हेतु नहीं है। जीवमात्र की उत्पत्ति अन्न से न होकर शैवाल के रूप में, फिर अमीबा जैसे एक कोशीय प्राणियों के रूप में हुई है! और यह कि तब स्थूल शरीर से श्रेष्ठ इंद्रियाँ, इनसे श्रेष्ठ मन, मन से श्रेष्ठ बुद्धि और बुद्धि से भी अत्यंत श्रेष्ठतम जो आत्मा आदि है, उनका अस्तित्व ही कहाँ था? क्या यह चेतना कालांतर में इस भूत तत्व का ऐतिहासिक उत्पाद नहीं है?

2.वे कहते हैं कि एक ही सूर्य इस संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है और चंद्रमा समस्त नक्षत्रों का अधिपति है! तो आनंद बिहारी सोचते कि- लो! कृष्ण को भी ब्रह्मांड का यथोचित ज्ञान न था। और वे अपने मन से मन में ही कहते कि दरअसल, तब ब्रह्मांड ज्ञान पृथ्वी केंद्रित सिद्धांत पर आधारित था। और व्यास को इतना ही पता था कि सूर्य एक आकाशीय देव है, पिंड नहीं।और वह अपने सात घोड़ों के रथ पर सवार होकर नित्यप्रति इस भूमंडल का परिभ्रमण करता है कि इसी की किरणों में सूक्ष्म जल विद्यमान है, जो बादलों के रूप में यज्ञादि से बरसता है और यह कि चंद्रमा भी सूर्य की ही भाँति एक ज्योतिपुंज है।

3.अगर उस समय यह यथार्थ अंतरिक्ष ज्ञान प्रकाश में आया होता कि वहाँ शून्य है, भारहीनता है- तो कृष्ण जीवात्मा के समस्त शरीर में स्थित होने का उदाहरण महान् वायु के समस्त महाकाश में व्याप्त होने से नहीं देते। अगर व्यास को सौरमंडल के अंतरिक्ष में व्याप्त सौर वायु और पृथ्वी पर उपस्थित गैसमंडल का भेद ज्ञात होता तो ऐसा अपुष्ट साक्ष्य नहीं भरते!

निस्संदेह, उन्हें गीता सिद्धांत की शाश्वतता पर गहरा अविश्वास हो गया। यही नहीं, वे कृष्ण को एक महाअधिनायकवादी और अर्जुन को भयभीत करने वाला मानने लगे थे। यथा-

1.पार्थ को उन्होंने अपने भयंकर विकराल रूप को दिखाकर विवश किया कि युद्ध कर नहीं करेगा तो कायर कहलायेगा। और इस युद्ध में तेरी इसलिये जीत होगी, क्योंकि ये राजा लोग तो मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं। तब सम्मोहित और भयभीत अर्जुन को कहना पड़ा, कि हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है। अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।

2.और आनंद सोचते कि कृष्ण का यह मिथ्या संभाषण, ‘हे अर्जुन, कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्पों के आदि में मैं उनको फिर रचता हूँ मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु, ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य, 49 वायु देवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ, सभी योनियों में जितने भी शरीर धारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ। और मेरे अतिरिक्त जो जन सभी देवताओं के प्रति श्रद्धा भक्ति रखते हैं वे भक्ति के साथ व्यभिचार करते हैं। उन अज्ञानियों की मुक्ति नहीं होती और वे पुनर्जन्म को प्राप्त हुआ करते हैं’-आदि, सचमुच उन्हें एक महान् अधिनायकवादी सिद्ध कर देता है।

यकीन नहीं होता कि अंततः आनंद बिहारी इस मत पर दृढ़ हो गये थे कि गीताशास्त्र के प्रणेता व्यासजी पुरातन सामंतीय और वर्णाश्रम व्यवस्था के महान् पोषक थे! कि उन्होंने अपनी अनूठी कल्पना शक्ति से तात्कालिक तथाकथित ब्रह्मांड ज्ञान और अध्यात्म के विषय में प्रचलित ज्ञान को सांख्ययोग, कर्मयोग, संन्यास योग, ध्यान योग और ज्ञान-विज्ञान योग आदि के रंग में रंगकर संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान् की व्यापकता का कथन कर जगत् के हेतु के रूप में अव्यक्त अक्षर ‘ऊँ’ का आविष्कार स्थापित कर दिया था।

इस ‘ऊँ’ यानी परमधाम की प्राप्ति का एकमात्र साधन उन्होंने वर्णाश्रम धर्म का पालन करना बताया। और यहाँ तक विवश कर दिया कि ‘श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः’ अर्थात्-अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है! धर्म का तात्पर्य उस समय वर्णाश्रम धर्म से ही था। यानी उनके कृष्ण स्पष्ट कहते हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने स्वाभाविक कर्मों में लगे हुए मनुष्य परम् सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं! तात्पर्य यह हुआ कि इस व्यवस्था पर आँच न आये। तुम शूद्र हो तो बने रहो, तुम्हें अपने स्वाभाविक कर्म से यानी तीनों वर्णों की सेवा करते-करते स्वतः ही परमपद प्राप्त हो जायेगा। और अगर तू अहंकार वश भी अपना कर्म नहीं करने का निश्चय करेगा तो वह भी मिथ्या होगा, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबरदस्ती अपने धर्म में लगा देता।...

और आनंद विस्मित होते कि व्यास कितने कुशल कारीगर थे कि कैसे उन्होंने धृतराष्ट्र के सारथी संजय को दिव्यदृष्टि (दूर-दर्शन-विधि) देकर आध्यात्मिक भय-शस्त्र से एक फंतासी को गढ़कर अधिनायकवाद और वर्णाश्रम धर्म की नींव इतनी मजबूत कर दी कि वह सामंती व्यवस्था आज भी प्रत्येक हिंदू के रक्त के कण-कण में समाई हुई है।

आनंद विचारते कि व्यास महाराज ऐसा करने में इसलिये सक्षम हुए कि आदिकाल से यह पुख्ता धारणा रही आई है कि जहाँ विज्ञान खत्म होता है, अध्यात्म वहाँ से शुरू है। अध्यात्म यानी आत्मा! और इस खुशफहमी में कि मृत्यु शरीर की है, आत्मा की नहीं। आत्मसाधना का मूलाधार सिर्फ गीता का ज्ञान है, कर्म का आधार भी वही है। कर्मवेद विहित और वर्णाश्रम के पालन में ही निहित है, गीताशास्त्र देववाणी घोषित होकर कालजयी हो गया।

फिर उनका रोष कभी-कभी थमता और वे सोचने लग जाते कि ज्ञान की भी सीमा है। सत्य भी युग सापेक्ष है। व्यास का क्या दोष? ज्ञान का भी तो अपना एक दंभ होता है! और ज्ञानी अंततः ‘अहं ब्रह्मिष्ठ’ की घोषणा कर ही बैठता है बहुधा! कि यहाँ हमें बुद्ध से सीख लेनी होगी। कि जब वे अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहते हैं कि सत्य तो इस अनंत संसार में सर्वत्र बिखरा पड़ा है। जितना मैंने खोजा उतना ही नहीं। और आनंद को लगता है कि यही मूलमंत्र है! कि ईश्वर है, तो! पर किस रूप में, कोई नहीं जानता, कौन जान पाया? जिसने जाना, उसने कहा नहीं। कि उन्हें खुद जानना होगा इस संसार के रहस्य को, जन्म-मरण के हेतु को, कर्म-अकर्म के बंधन को, इंद्रियों, आत्मा आदि की सत्ता को, हरेक अभिव्यक्ति को! वह तो बिना मरे स्वर्ग सूझेगा नहीं!

और वे यहाँ आकर थम जाते।

अब वे अपने आप में मगन रहते थे। अपने अध्ययन में, चिंतन में। बंदीगण सोचते, यह कैसा आदमी है? अलग-थलग पड़ा रहता है। भीड़ में रहकर भी अके ला-सा रहता है। मानो अपने भीतर गहरा गोता लगा गया हो! डूब गया हो न इसे देश के हालात से मतलब है, न राजनीति से। लगता है- इसे गलती से राजनीतिक बंदी बना लिया गया है। यह बेचारा तो किसी प्रपंच में है ही नहीं! न तुम्हारे तीन में, न तेरह में!

और उनमें से कभी-कभी, कोई-कोई कह भी देता, ‘मि. आनंद बिहारी, आप तो बिल्कुल साधुमना हैं। आप तो बाहर का जीवन फेंककर अपने आप में बंद हो गये हैं। यह मानकर कि संसार असार है, उसे बहने दो, जैसा बहता है। आत्मधर्म यहाँ बंद होकर खोजंगे! राज्य के अधिनायकत्व, दमन, व्यक्ति के शोषण-उत्पीड़न से हमें क्या लेना-देना? कि समाज के हिंसा-द्वेष, मोह-माया, दुराचरण, छल-कपट से हम तो कोसों दूर राजनीति के भ्रष्टाचार, अपराध से क्या वास्ता हमारा! व्यक्ति की स्वतंत्रता-परतंत्रता वह जाने! आप को निबटायें तो साधना में बाधा पड़े।’ आदि-इत्यादि।

पर आनंद विचलित न होते, क्योंकि वे जानते थे कि या तो ये सोद्देश्य लोग हैं या दिग्भ्रमित। या तो भूखे हैं सत्ता के या किसी थोथे आदर्श के शिकार या किसी निहित विचार-स्वार्थ-सिद्धि के हेतु बना लिये गये हैं। और इनके इन प्रयासों से उस हिंसा से नहीं जूझा जा सकता जो मनुष्य को लील रही है। उस बैर से नहीं निबटा जा सकता जो मनुष्य को खा रहा है। उस अहंकार से लोहा लेने का कि जिसने अपने आतंक में मानवता को चौपट कर दिया है, इनके पास कोई उपाय नहीं है। ये तो खे़मेबाज लोग हैं। इनके तो सिर्फ झंडे बदलने हैं, डंडे नहीं।

और वे विचलित हो उठते, कि किस तरह समाज को अहिंसा की ओर ले जायें! समाज में अनवरत् चलने वाले शोषण, अपमान, जहालत और सत्ता की अंधाधुंधी से कैसे लोहा लें! सांप्रदायिक अन्याय का सामना किस हथियार से करें!

कि हजारों साल से मनुष्य ने बल की सत्ता का जो प्रयोग किया है, मनुष्य को मनुष्य का बंदी बना रखा है, वह पंगु और भयभीत मनुष्य कि जिसे वस्तुओं ने तृष्णा दी है, अपने आप में ही विभाजित हो गया है। वह एक टूटा हुआ और खंडित आदमी है और वो धर्मभीरु अपने व्यक्तिगत संसार में पूजा-पाठ, दान-पुण्य, दया आदि आत्मसंतोष के महज उपकरणों का सहारा लेकर आज किस तरह घिसट रहा है, यह मनुष्यता के लिये सोचनीय है।...

पर आनंद अपने मन की बात किसी पर उजागर नहीं करते थे। व्यर्थ विमर्श, व्यर्थ बहस, व्यर्थ वाद-प्रतिवाद से वे सदा दूर रहते। खुद पढ़ते, खुद सोचते और खुद में खोये रहते। कभी-कभी बहुत चिंता से नींद ही उड़ जाती और वे यूं ही बैठे-बैठे रात गुजार देते, तब आखिरी पहर में नींद लग जाती तो सुबह देर तक सोये रहते।...

पर कैदियों को तो जल्दी उठना पड़ता। राजनैतिक बंदियों को सश्रम कैद नहीं थी, तो भी जेल का नियम! और नियम सो नियम-घंटी बजी कि उठो।...

उन्हीं दिनों तिहाड़ जेल से कुछ कैदियों की बदली अहमद नगर जेल में हो आयी थी, क्योंकि वहाँ ज्यादा भीड़ इकट्ठी हो गई थी। पर सब जानते थे कि यह तो बहाना है! सरकार डर रही थी, इसलिये उसने सक्रिय कार्यकर्त्ताओं को दिल्ली से हटा दिया है। उन्हीं बंदियों में एक बंदी नेताजी खूबचंद जैन भी थे। संयोग से वे दानाओली, लश्कर-ग्वालियर के निवासी थे। और संयोग से पुराने आरएसऐसी भी! जो कि अब राजनैतिक उद्देश्य की खातिर जनसंघी हो गये थे। कि जनसंघियों पर सरकार की जरा कड़ी नजर थी, जैसे- कम्युनिस्टों पर! हालाँकि नक्सलवाड़ी आंदोलन की तरह जनसंघियों ने ऐसा कोई रक्तपाती उत्पात अभी मचाया नहीं था, तो भी आर.एस.एस. से इस दल (जो कि गाँधी की हत्या का जिम्मेदार ठहराया जाकर पहले भी प्रतिबंधित हो चुका था) का निकट संबंध होने से सरकार अत्यंत सावधान थी।

नेताजी को शुरू से ही शहर भर में ‘ऐमेले’ कहा जाता था। जीवन भर उनका एक पैर जेल में और दूसरा रेल में रहा। सन् 1945 के आसपास भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होंने जेल के भीतर और बाहर सब तरफ खूब धमैया दिया था। कमोबेश वे एक उग्रपंथी ऐलीमेंट कहे जाते थे। तब वे खूब कसकर पहलवानी किये हुए थे। गठा हुआ शरीर, बुलंद स्वर। हथेली पर काल धरे फिरते। किंतु धीरे-धीरे अध्ययन और चिंतन से वे फल से लदे वृक्ष की भाँति झुक गये। अब तो उम्र भी पक गई है और बाल भी! अब क्या बनेंगे एम.एल.ए. नेताजी! अब तो नई पौध आ गई है आनंद सरीखे नये खैलों (बछड़ों) की! पर परम् संतुष्ट हैं। स्वभाव बन गया है विद्रोह का इसलिये घर नहीं बैठ सकते डुकरों (वृद्धों) की तरह। यह नहीं कि पुश्तैनी घर की किसी कुठरिया (कमरा) या छपरिया (छप्पर) या टीन-बीन में खटिया डाल के बैठें और बीड़ी का पहला सुट्टा मारते ही खोंऽ-खोंऽ, खुल्ल-खुल्ल कर उठें।

टुकुर-टुकुर ताकते रहें बहुओं की तरफ कि अब देती हैं, अब देती हैं, अब देती हैं कुछ खाने को! और खंखार-खंखार कर एक दिन मूर्च्छा लेकर बछिया (गोदान) लगवालें, फिर घड़ी दो घड़ी बोल-भड़-भड़ाकर आँखें नटेर (स्वर्ग सिधार) जायें।

सो, अपने देश, अपने संघ के होने की वजह से नेताजी आनंद के भीतर कभी-कभी इस तरह हस्तक्षेप कर बैठते-

‘अरे भाई, आनंद बिहारी लाल! जागिये ब्रजराज कुँवर भोर भयो आँगना सारे कैदी जाग गये दाने चुंगन लागना’ आदि।

और जब रात्रि जागरण से त्रस्त आनंद कच्ची नींद आँखें मींजते रह जाते, तब वे पोपले मुँह वाले नेताजी गाते हुए से यों कहते, ‘4 से 5 के बीच देवता उठें,

5 से 6 के बीच मनुष्य उठें, और तीर्यंच (जानवर) उठें 6 से 7 के बीच। पर जो 7 के बाद उठे, सो राक्षस उठे.।

अरे उठो भाई! जीवन समय काटने के लिये नहीं, पाप काटने के लिये मिला है।’

और आनंद भड़-भड़ाकर उठ बैठते।

आनंद बचपन से ही नेताजी को भाईजी कहा करते थे। सभी आरएसऐसी उन्हें भाईजी ही कहा करते थे। वो तो मुहल्ले वालों ने और फिर शहरियों ने उनका नाम बिगाड़ दिया था-पहले नेताजी कह-कह कर, फिर ऐमेले कह-कहकर! जबकि उन्हें न कोई टिकट मिला था और न वे कोई चुनाव लड़े थे। अलबत्ता, दाल बाजार में उनका आढ़त का काम जरूर था। और ज्वाइंट फैमिली का भरपूर लाभ उठाया था नेताजी ने, कि वे धंधे की तरफ कम ही रुख करते। पहले पिता-चाचा ने और बाद में भाइयों ने सब कुछ संभाल लिया था। और नेताजी की जिंदगी तो निर्विघ्न अटलजी और राजमाता को ही समर्पित हो गई थी।

सो, उनकी दिनचर्या आज भी वही थी। साढ़े चार बजे उठकर शौचक्रिया से निवृत्त होकर कसरत-योगाभ्यास करना। फिर सादा-सा नाश्ता लेकर अखबारों में भिड़ जाना। फिर स्थान और काल के मान से दिनभर के क्रियाकलाप।...

पर यहाँ जेल में तो दिनभर अध्ययन और बहस-मुबाहिसों के सिवा और कुछ करने को था ही नहीं! तब इस रूटीन में बेशक न चाहते हुए भी, आनंद को कभी-कभार घिसटना ही पड़ जाता। एक दिन अपनी हिचक मिटाते हुए (कि जैन से जैन की पोल कैसे पूछें?) आनंद ने खासी चतुराई बरतते हुए उनसे पूछा, ‘भाई जी! ये धर्म क्या है?’

इतना कहकर आनंद मौन हो गये। नेताजी ने भी हाथ की पुस्तक नीचे धर दी। चश्मा उतार कर हाथ में पकड़ लिया।

रुख मिल गया तो आनंद ने बात आगे बढ़ायी, ‘क्या धर्म सिर्फ कुरुक्षेत्र है या सीता का परित्याग मात्र या कीट-पतंगों की रक्षा करना भर! कुछ समझ में नहीं आता-कितनी-कितनी व्यापक परिभाषायें दे-देकर, आदिकाल से ढोल पर ढोल पीट-पीटकर भी कोई शाश्वत मानक क्यों नहीं दे पाया धर्म?’

आनंद रुके तो नेताजी ने गंभीरता से कहा, ‘धर्म का अर्थ सिर्फ अहिंसा है जैसे, जीवन का अर्थ सिर्फ समय है!’

आनंद तैश में थे, ‘यानी सिर्फ जैन! और जैनागम में भी कपोल-कल्पित पुराणों सरीखी किताबें जिनमें बेसिर-पैर की कथायें भरी पड़ी हैं उन्हीं मिथकों को लेकर हरेक आख्यायिका उखाड़-पछाड़ करती हुई? अखाड़ा लगाती हुई! कृष्ण की मुक्ति नहीं हुई यह तो बहुत विचित्र बात है! राम.’

कुछ सोचकर आनंद थम गये। नेताजी ने उनके क्रोध को क्षमाभाव से जीतकर कहा, ‘आनंद! ये सांप्रदायिक बातें हैं! अपने नायक की श्रेष्ठता का षड्यंत्र। हाँ-तुमने ठीक ही कहा है- जैनागम के मुताबिक कृष्ण के लघुभ्राता नेमिनाथ को तो निर्वाण पद मिल गया, वे जैनियों के 21 वें तीर्थंकर हैं। किंतु कृष्ण का जीव अभी नर्क में है, तीसरे नर्क में! क्योंकि मुनि दीक्षा लेते ही उनकी मृत्यु हो गई थी। उनका जीवात्मा देह का बंध नहीं काट पाया था। किंतु आने वाले भव में वे 24 तीर्थंकरों में होंगे। और निर्वाण पद प्राप्त कर लेंगे।’

आनंद एक लंबी साँस लेकर रह गये।

परमशांत मुद्रा में नेताजी आगे बोले, ‘आनंद, तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि श्रीराम के साथ अंगद, हनुमान, सुग्रीव आदि तो मुनि दीक्षा के बाद अपने कर्मों को विलुप्त कर मोक्ष प्राप्त कर गये, किंतु सीता का जीव अभी भी तीसरे नर्क में है! उनके साथ रावण का भी जीव तीसरे नर्क में है। रावण आगामी काल के 24 तीर्थंकरों में तीर्थंकर होगा और सीता उसकी गणधर होगी, क्योंकि आर्यिका दीक्षा के उपरांत समाधि लेकर भी मरण ही होता है, मोक्ष नहीं मिलता। और लक्ष्मण का जीव भी तो तीसरे नर्क में पड़ा है! वे भी तो अगले भव के 24 तीर्थंकरों में से एक होंगे! अलबत्ता, 5 पांडवों में से तीन का मोक्ष हो गया, 2 बेचारे अभी भी नर्क में ही पड़े हैं।’

नेताजी हँसने लगे। आनंद ने भी मुस्कराकर कुछ यूं मुंडी मटकायी कि सब भाटों की उपज हैं-कथा-पुराण! बड़े-बड़े मनीषी तक अपने इष्ट की चाटुकारिता करते पाये गये हैं। खेमेबाज नहीं तो।

फिर वे उठ गये।

पर नेताजी की बातों में मजा आने लगा था। और वे कभी-कभी कोई-न-कोई प्रसंग लेकर बैठ जाया करते उनके पास। ‘भाईजी! ये तीर्थंकर और गणधर और मुनि वगैरह बार-बार मोक्ष को प्राप्त होते रहते हैं, प्रत्येक भव की एक अलग जमात आती-जाती रहती है तो स्वर्ग भी कुछ ज्यादा ही होंगे जैनियों के ?’

‘पूरे सोलह!’ नेताजी आँखें सिकोड़ कर कहते, फिर मुस्कराते, ‘शृंगार भी तो सोलह होते हैं। और नर्क भी तो पूरे सात होते हैं हमारे यहाँ! जैसे- सात समुंदर। और सात समुंदर पार इंग्लैंड! और इंग्लैंड भी तो स्वर्ग है न! पर इंग्लैंड तीसरा स्वर्ग हो सकता है, भाई! सोलहवाँ स्वर्ग तो अमेरिका होना चाहिये।...’

आनंद हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते।

फिर आगे बात चलती, नेताजी मूड में होते, ‘देखो-पत्थर भगवान् कैसे बन जाता है, पता है- तुम्हें?’

‘प्राण-प्रतिष्ठा से।’ आनंद मुस्कराते।

‘वैसे ही न, जैसे- कागज पर सरकार की मोहर लग जाय तो कीमती हो जाता है, मैं धारक को एक सौ रुपये देने का वचन देता हूँ-टी. स्वामीनाथन! है-ना!

भाई आनंद! ऐसे ही जब तंत्र-मंत्र की मोहर पंडित सरकार मूर्ति पर जड़ देती है तो पाषाण के भाग जाग जाते हैं। भगवान् बन जाता है वो।’

लेकिन कभी-कभी कुछ मुद्दों को लेकर वे अत्यंत गंभीर भी हो जाते थे। वे कहते ‘अहिंसा है जीवन और हिंसा है मृत्यु। नारे से, ग्रंथ से, धर्मांधता से नहीं, वह तो जीकर पहचानी जा सकती है। उसे खोकर डूब जायेंगे हम!’

‘पर भाईजी,’ आनंद उतावली में टोकते, उनकी कुशाग्रबुद्धि तर्क पर आमादा हो आती, ‘जो तब था, सो अब है! पशुबलि, युद्ध, राज्य-धन-यश की लिप्सा, मनुष्य द्वारा मनुष्य का हनन! पर इसे आप केवल मांस-मछली और अंडों को अखाद्य घोषित कर; मुँह पर कपड़ा बाँध कीट-पतंगों की और मोटे कपड़े से पानी छान सूक्ष्म जीवों की रक्षा मानकर यानी एक प्रचलित ढोंग अपनाकर अहिंसक नहीं हो सकते। अहिंसा तो जीने की कीमिया है, जिसे महावीर ने अपनी अतल गहराई में डूबकर जाना था और आज पूरा समुदाय उसी मूलमंत्र के विरुद्ध है.

देखो, कौन नहीं आया-राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, महावीर, मुहम्मद! कैसे-कैसे पैगंबरों और साधुमना लोगों की लंबी जमात आई। पर इस मनुष्य का दोहरा आचरण कहीं टूटा? वह महात्मा, महामानव, महापुरुष और तपोपूत के चरण छू-छूकर; मठ, मंदिर, संघ बनवा-बनवाकर और धर्मध्वजा चहुँओर फहरा-फहरा कर भी हिंसक जीवन के मार्ग पर अचूक दौड़ता रहा है’

‘बस! ठहरो मित्र! इसी बारीक रेखा को समझो,’ नेताजी भावुकता में आनंद के हाथ थाम लेते, ‘वह मनुष्य जो हिंसक जीवन के मार्ग पर अबूझ दौड़ रहा है, क्या जीवन की असली तर्ज, अहिंसक तर्ज को खोकर बचा रहेगा? बोलो, जहर का प्याला राणाजी ने भेजा, पी-पी मीरा हाँसी! कैसे? आनंद! ये त्याग, बलिदान, सहिष्णुता और क्षमा के उपकरण तो मनुष्य के हाथ न जाने कबके लग चुके हैं पर हमने इन्हें पंथ, जाति, कौम के नाम से स्वीकारा है; यही विडंबना है! त्याग तो भीतर की चीज है। आचार संहिता से कुछ नहीं होगा भाई! असली धर्म आत्मधर्म है, आनंद! जाति, वर्ग, लिंग और संप्रदाय तो कठघरे हैं! मनुष्य के जीवन की तर्ज नहीं है यह।’

आनंद निढाल हो जाते क्योंकि नेताजी को बोलने का रोग था। वे इस तरह की लंबी और उबाऊ स्पीचों के लिये जन्म से कुख्यात थे। भाईजी लोग उनसे बहस करते कतराते थे। यहाँ तक कि शाम को स्टेट बैंक के पीछे चाय की गुमटी पर अगर उन्हें किसी ने छेड़ दिया होता तो वह बंदा दस बजे से पहले मूँड (सिर) पटककर भी घर न पहुँच रहा होता। सुबह अगर नेताजी आपको सब्जी मंडी में मिल गये हैं, तो उस दिन चटनी-रोटी ही बदी है, समझो। तिस पर यहाँ तो आनंद को उनसे कोई छुड़ाने वाला भी न था! वे बेचारे उबासियाँ लेते-लेते सुनते.

‘गाँधी ने मनुष्य को इस खंडित जीवन से बचाने की कितनी अथक् साधना की! वे जानते थे कि समाज का जीवन यदि पशुबल से घिरा हुआ है तो व्यक्ति कितना ही मंदिर-मस्जिद में सिर पटक ले अपने आपको साबूत नहीं रख पायेगा।और तभी उन्होंने कितने अनूठे प्रयोग कर दिखाये! कि उनकी कष्ट सहिष्णुता ने विदेशियों के कठोरतम हृदय पिघला दिए, उनके त्याग ने हमारे लालच को रोक दिया, उनके संयम ने हमारी अफलातूनी पर बंदिशें लगा दीं। उन्होंने ठान लिया था कि आप बहक रहे हैं, तो मैं मर मिटूँगा। आपकी हिंसा का रास्ता अहिंसा की ओर मोड़ दूँगा।’

उन्होंने तैश में आनंद के कंधे झिंझोड़े, आनंद संभल गये। नेताजी का स्वर भावुक था अब, ‘पर इस देश से वह कृषकाय बूढ़ा मर गया, आनंद! उसी के उत्तराधिकारियों ने उसके परखच्चे उड़ा दिए। चिथड़ा-चिथड़ा कर दिया। अब आज तुम भीतर से सच्चे अहिंसक, सत्याग्रही, सहिष्णु होकर भी क्या इस तंत्र से पार जा सकते हो सिर्फ राजनीति नहीं, धर्मतंत्र और समाज से भी जूझ सकते हो, बोलो? मर गया ना गाँधी! उसकी जयन्तियाँ और शताब्दियाँ मनाने से क्या होगा? जिसने समाज को अहिंसक बनाने के लिये मरना सिखाया, उसे खुद ही मार डाला इस समाज ने! यह गाँधी की, एक अकेले व्यक्ति की मौत नहीं थी, यह इस खंडित मनुष्य के मरने की भविष्यवाणी है, भाई!’

ऐसे मौकों पर वातावरण चूँकि बहुत बोझिल हो जाता, आनंद चुपचाप उठ जाते, क्योंकि नेताजी हृदय से बोलते थे। उस वक्त कोई तर्क-वितर्क उन्हें रुला सकता था। मगर वे अगले दिन मौका हाथ आते ही कहते, ‘गाँधी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया है, भाईजी! आज शस्त्र लाचारी है, आधार नहीं। बदल दिया है हृदय अहिंसा के पुजारियों ने। सुकरात ने, मीरा ने, ईशु ने। जैसे व्यक्तिगत जीवन में तृष्णा हमारी लाचारी है, आकांक्षा नहीं। क्रोध-बैर बेकाबू हैं, चाहना नहीं। लोभ और स्वार्थ क्षणिक साथी हैं, स्थायी मित्र नहीं। उसी तरह सामाजिक जीवन में हिंसक औजार मनुष्य की पद्धति नहीं, उसका वहशीपन है और इस बुनियादी बात को गले उतारने में गाँधी कामयाब रहे। आज जो निशस्त्रीकरण की सुगबुगाहट है, वह अहिंसा के पुजारियों की ही देन है।’

नेताजी ध्यान से सुनते, आनंद प्रवचन शैली में बोलते हैं-वे महसूस करते, छोटे-छोटे वाक्यों में गुंफित है इनकी बात। मगर हड़बड़ाहट ये कि मन में जो कुछ है सब उगल दें एक-साथ! फिर पता नहीं मौका हाथ लगे, न लगे। इसलिये यों बोलते हैं, मानो ट्रेन छूटती हो और शायद, इनके भीतर अभी कोई गाँठ भी है, जो प्रहार-सा कर बैठते हैं, अकस्मात्! जैसे-

‘पर इस सत्य को नहीं नकार सकता कि महावीर के अनुयायी-जीव दया पालक, करुणा-प्रेम उपासक, संयमी, व्रती, त्यागी, साधक; धर्मालु होकर भी खंडित मनुष्य हैं कहने को वर्द्धमान (विकासशील) का मुक्ति मार्ग आज हर धर्म में समाहित है, पर हरेक को अपनी धर्म विधि में पक्का भरोसा है और यह भरोसा इतना दृढ़ है कि उसे दूसरे का विधि-विधान पाखंड प्रतीत होता है। जैसे, मुक्ति का एकमात्र सही पाठ उसी के पास है।’

और नेताजी उठ जाते। इसलिये नहीं कि ऊब गये हैं! और न यह कि उन्हें कोई बात बुरी लगी होती है, बल्कि इसलिये कि यह तो उन्हीं वाला रोग आनंद को भी लगता जा रहा है। फिर ये भी हमेशा भरी हुई तोप की तरह रहा करेंगे और इनसे भी लश्कर के लोग कन्नी काटते फिरेंगे।

बहरहाल, इस जेल जीवन में आनंद बिहारी के ज्ञान का विकास तो हुआ ही, साथ ही एक चमत्कार और हुआ और वह यह कि नेताजी की सफेद और लंबी दाढ़ी देखकर उनकी भी एक छोटी-सी काली चमकदार और अत्यंत घनी दाढ़ी निकल आयी।

इसे यों भी कह सकते हैं कि अब उन्होंने भी दाढ़ी रख ली थी या फिर शेव करना छोड़ दिया था। सो, आनंद बिहारी अब खासे गुरुगंभीर लग उठे थे। अब कोई भी उनकी गिनती महज छोकरों में नहीं कर सकता था। वे यूं भी एक गंभीर स्वभाव के तेजस्वी युवा थे जो अध्ययन में, चिंतन में, प्रवचन में सदा आत्मसाधना की थ्योरी खोजा करते।...

नेताजी से उन्हें कुछ और जैनशास्त्र पढ़ने को मिल गये थे। उनका स्वर ‘अहिंसा परमोधर्म’ ही था। पर यथार्थ में एक समुदाय विशेष द्वारा पाली जा रही अहिंसा का मिलान इनसे होता नहीं था। वे सोचते, तुम्हारी यह जीवदया, यह रक्षा तो भावी युग में ‘पारिस्थितिकी’ भी कर लेगा। क्योंकि मांसाहारी को चाहिये चार एकड़ जमीन, जबकि शाकाहारी अपना काम एक एकड़ में भी चला लेगा। आबादी के दबाव में मनुष्य को संतुलन बिठाना होगा तो खुद छोड़ देगा मांसाहार इसके लिये ढोंग की जरूरत नहीं है! और क्या तब हम संपूर्ण मानवजाति को अहिंसाधर्मी मान लेंगे? इतना सरल मार्ग अहिंसा का नहीं है।

आनंद खोये-खोये रहते।

बुद्ध एक भिखारी को देखकर, बूढ़े को देखकर, बीमार को देखकर, मुर्दा को देखकर संन्यासी हो गये। किंतु यह एक हथियार था! यदि संसार से विरक्त हुए होते तो संसार के कल्याण के लिये आजीवन लगे न रहते।...

कबीर ने भी आजीवन मृत्यु के गीत गाये, पर उनमें जीवन का बेहतर संदेश था। जीवन! जिसे कि प्रकृति ने अत्यंत सरलतम बनाया है- एक झरने की तरह सहज और अत्यंत प्रबलतम अभिव्यक्ति वाला, जो कि प्रकट होकर अपने गंतव्य तक जाये बिना नहीं रहता।उसी को मनुष्य ने स्वयं अत्यंत त्रासद बना लिया है।

अर्थात् बुद्ध की तरह कबीर भी मानवीयता के प्रति प्रतिबद्ध एक ऐसे कुशल कारीगर थे, जो अपनी कलाकारी से मनुष्य के दुःख के मूल को उखाड़ फेंकना चाहते थे, क्योंकि वे एक सच्चे सामाजिक कार्यकर्त्ता थे और धर्म-अध्यात्म-विचार उनके औजार थे।

लेकिन कभी-कभी आनंद माथा पीटते अपना-पंडितों-पुरोहितों, मीमांसाकारों और भक्तों की जय हो! धन्य हैं वे जिन्होने तत्व मीमांसा के इतने जटिल गणित बनाये, कि जो द्रव्य, पुद्गल, कर्म, कर्मगति, निर्जरा, संवर आदि पारिभाषिक शब्दावली के साथ हमारे सामने संसार, नर्क, स्वर्ग का बाकायदा व्याप प्रस्तुत करते हैं। मंदिर, मठ, गिरजा, गुरुद्वारे, मस्जिद, आश्रम आदि अनंत धर्म संस्थानों का द्वार खोलते हैं। आराधना के अलग-अलग प्रकार-पूजा, तंत्र-मंत्र, दान-धर्म, विधि-विधान ‘यहाँ दो, वहाँ लो’ के समाधान दर्शाते हैं। और पूछो कि- यह सब करके भी कितना आत्मधर्म हाथ लगा इस मनुष्य के ! तो शान से कहेंगे कि- हमारे भगवान् का झंडा सबसे ऊँचा तो उठा। अजी, राह बताने वालों को भगवान् मानकर लकीर के फकीर हैं हम तो। हमें कुछ नहीं खोजना, कुछ नहीं पाना। हमें तो अपने मालिक की जय-जयकार करके इस दुनिया को बहरा बनाना है.

इन्हीं आवेग-संवेगों में उन्होंने अपनी जेल यात्रा के 6-7 महीने काट लिये थे। इतिहास करवट बदल चुका था और लग रहा था कि जम्बूदीप का सूर्यास्त हो चुका है। यह एक अंधेरी विशाल गुफा कि- जिसमें एक ही अजगर ने अपनी श्वास दर श्वास में सारे जीव-जंतु अपने पेट के हवाले कर लिये थे। निस्संदेह, वह भारत की अतीत में वापसी थी। एक महाअधिनायकवादी व्यवस्था के काल के गाल में समा गया था सब कुछ!

हर ओर साम्राज्य था अंधकार का। अंधकार जनित विषम भय का। किसी को खबर नहीं कि कब होगा सूर्योदय पर आनंद के चाल-चलन, आनंद के साधुमना स्वभाव और आनंद की अराजनैतिक प्रकृति ने वहाँ के जेलर को खासा प्रभावित किया था। लिखा-पढ़ी कुछ थी नहीं उनके खिलाफ-मसलन, पक्का रिकार्ड कुछ था नहीं। सो, उन्हें आषाढ़ लगते ही छोड़ दिया गया। उनके अशुभ कर्म का बंध जो कट गया था!. और आपात्काल के विनाश से पूर्व ही वे उस गर्भ गृह से बाहर निकल आये।

पर अब वे विचार और व्यवहार की दृष्टि से पहले से आनंद बिहारी न रहे थे।

(क्रमशः)