सोई तकदीर की मलिकाएँ
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सुभाष बस का डंडा पकङ कर खङा खङा अपने भाग्य या दुर्भाग्य के बारे में सोच रहा था । किस्मत ने उसे प्रेम डगर की ओर पहुँचा दिया था । जयकौर राह चलते उसकी जिंदगी में आकर उसकी रूह में बस गयी थी । वे हर रोज खेत इकटठे जाते । इकट्ठा ही मिल कर चारा काटते । उनका गट्ठर बनाते और चारा काट कर बातें करते हुए गाँव की फिरनी तक इकट्ठे लौटते . वहां से लग अलग गर लौट आते । इससे ज्यादा लेने के बारे में उसने कभी सोचा ही नहीं । अपने उस रिश्ते को कोई नाम देने के बारे में कभी मन में ख्याल ही नहीं आया । न जयकौर ने इस बारे कभी कोई बात कही । फिर भी जयकौर के बियाह की बात सुनते ही वह बौरा गया था । रात की नींद और दिन का चैन कहीं खो गया था । यह पागलपन ही कहा जाएगा कि वह रात के कपङों मे ही बिना पैसों के बस में सवार हो गया और संधवा हवेली में जा पहुंचा । यह तो सरदार और उसका परिवार बहुत शरीफ था कि उन्होंने ज्यादा पूछताछ नहीं की । कोई और जाट होता तो सबसे पहले पूछते कि कौन हो । यहाँ क्यों आए हो । मार मार कर उसका मुँह टेढा कर देना था । गाँव से बाहर फिंकवा देते तो वह क्या कर लेता । उल्टे हवेली में उसे चाय रोटी भी मिली । जितना वह सोचता , उतना ही भोला सिंह और बसंत कौर के लिए उसके मन में आदर उमङता । इस दुनिया में कैसे कैसे लोग है । लोग इतने शरीफ और सज्जन हो सकते हैं , उसने कभी देखा सुना न था । सोचों में डूबते उतराते वह कम्मेआना आ पहुँचा ।
घर पहुँच कर उसने देखा कि माँ बुआ के घर से लौट आई थी । उसने माँ के पैरों को हाथ लगाया – मत्था टेकता हूं माँ ।
जीता रह जवानी मान । कहाँ से आ रहा है । मैं जब से आई हूँ , तुझे पूछ रही थी पर घर में किसी को पता ही नहीं था कि तूकहाँ गया है । तेरी भाभी बता रही थी कि तू सुबह लोटा लेकर जंगल पानी गया था फिर वापिस ही नहीं आया ।
सुभाष ने मानो यह सब सुना ही नहीं – माँ बुआ अब कैसी है । उसका हाल ठीक है न ।
तू आप ही पूछ ले । अंदर कमरे में लेटी है ।
बुआ भी साथ आई है । सच में .. । वह भीतर लपका ।
अंदर बुआ करमजीत दीवार का सहारा लेकर कंबल लपेटे बैठी थी ।
आ भतीज , आ गया तू ।
हाँ बुआ । तू कब आई ।
हम तो दोपहर में आ गये थे । आते ही तुझे पूछा ।
मुझे बुलवा लिया होता । मैं लेने आ जाता । सामान के साथ तुम दोनों बहुत परेशान हुई होंगी ।
परेशानी कैसी । तेरे फूफा जी छोङने आए थे ।
फूफा जी, वे अब कहाँ है । मुझे तो घर में कहीं दिखाई नहीं दिए ।
वे तो हमें यहाँ छोङ कर उल्टे पाँव ही लौट गये । चाय भी बहु ने बङी मुश्किल से पिलाई । घर में काम बहुत है । एक मिनट की भी फुर्सत नहीं । पहले तो मैं आधा काम संभाल लेती थी । इस बीमारी के चलते मुझसे कोई काम नहीं होता तो उन्हें ही सारा दिन खटना पङता है ।
बुआ , अब तू यहाँ आराम से रह । जब पूरी तरह से ठीक हो जाएगी तब जाना ।
जीते रहो बेटा । तुम्हीं लोगों का सहारा है । इसीलिए अपना झोला उठा कर चली आई ।
सुभाष वहाँ से उठ कर चौके में आ गया । सरोज चौके में आटा गूंथ रही थी – आ गया दिओरा । झूठ मत बोलना । जयकौर से मिलने गया था न ।
तू तो जानीजान है भाभी। अगला पिछला सब घर बैठे ही जानती है ।
जिस तरह से कई दिनों से लटबौरा हुआ घूम रहा था , कोई भी अंदाज लगा सकता है कि तेरे दिमाग में क्या चल रहा है ।
सुभाष हंस पङा – ये लटबौरा क्या हुआ भाभी । ये शब्द तो मैंने पहली बार सुना ।
शीशे में अपनी शक्ल देख आ , पता लग जाएगा ,लटबौरा किसे कहते हैं और वह जो सुबह पीतल का लोटा लेकर गया था उसे कहाँ दे आया ।
सुभाष को अचानक याद आया कि जब वह बस पर चढ रहा था , तब लोटा उसके हाथ में था । वहाँ बस अड्ढे पर जिंदू खङा था , तो लोटा उसे पकङा दिया था ।
अभी लेकर आता हूँ , भाभी । तू तब तक रोटी सेंक । मैं यूं गया और यूं आया । - वह बाहर की ओर चल दिया ।
सरोज ने पुकारा – रहने दे । अभी थका हारा आया है , लोटा कल सुबह आ जाएगा ।
पर सुभाष को यह सब सुनाई नहीं दिया । वह पैदल चलता हुआ दो गलियाँ छोङ जिंदू के घर जा पहुँचा । दरवाजे की सांकल बजाई तो दरवाजा उसकी माँ ने खोला ।
सतस्री काल चाची । सुबह जिंदू को एक लोटा पकङाया था , वह चाहिए था ।
अच्छा वह लोटा तुम्हारा था । ठहर , मैं अभी लेकर आती हूँ ।
वह औरत घर के भीतर गयी और चंद मिनटों में ही लोटा और लोटा में थोङा सा गुङ ले लौटी ।
लो बेटा तुम्हारा लोटा ।
घर में सब कैसे हैं । भरजाई कैसी है ।
सब मजे में हैं । माँ बुआ के यहाँ गयी थी । बुआ बीमार थी । आज ही कई दिन बाद वापस आई है । साथ बुआ भी आई है ।
करमजीत आई है । फिर मैं कल दोपहर में मिलने आऊँगी ।
जी चाची । मैं चलता हूँ । सतस्री काल ।
घर आकर उसने लोटा भाभी को पकङाया ।
इतनी जल्दी क्या थी लोटा लाने की । कल सुबह आ जाता । ये कहीं भागा जा रहा था ।
कल तक मैंने भूल जाना था कि लोटा किसे पकङाया है । अभी याद आ गया तो जाकर ले आया । वो चाची , जिंदू की माँ कह रही थी कि कल दोपहर में माँ और बुआ से मिलने आएगी ।
आएगी तो आ जाएगी । एक कप चाह ही तो पिलानी है । गरम पानी । पी लेगी और क्या ? चल तू हाथ मुँह धोकर आ । रोटी खा ले ।
सुभाष उठा और हैंडपंप पर हाथ मुँह धोने चला गया । हाथ मुँह धोकर वापिस आया तो सरोज ने थाली में दो फुल्के , मूँग साबुत की दाल की कटोरी के साथ धनिए पुदीने की चटनी रखी हुई थी । वह वहीं पटरे पर बैठ गया और रोटी खाने लगा ।
सरोज ने उसे कुरेदा – जयकौर कैसी है ? खुश हैं न अपनी ससुराल में ।
ठीक है भाभी पर खुश तो नहीं है ।
क्यों कुछ कहा क्या उसने और ससुराल में सब कैसे हैं ?
वह क्या कहेगी । उसका घर वाला उससे कम से कम बीस बाईस साल बङा होनै । घर में एक रौबदार सौकन है । सरदार की पहली घरवाली । एक नौकरानी है जो बचपन से ही उन्ही के घर में रहती है पर एक बात है ,इतने अमीर होने के बावजूद बङे शरीफ और भले लोग हैं । उस सरदारनी ने आप रोटी सेक कर मुझे खिलाई । जयकौर ने कहा कि इसे मैंने बुलाया है , खेत में काम करने के लिए तो बोले ठीक है ।
सरोज उसका मुँह देखती रह गयी ।
बाकी फिर ...