Shraap ek Rahashy - 29 books and stories free download online pdf in Hindi

श्राप एक रहस्य - 29

"सकुन्तला क्या तुम हो..? तुम यहाँ कैसे आयी..?"

"जैसे हर दिन तुम आते हो...?"

"लेकिन तुम यहाँ क्यों आयी हो। देखो यहां बहुत ख़तरा है।"

"खतरा....हम्म जानती हूं तुमसे बहुत ख़तरा है अब, इन दिनों तुम अपने ही लोगो को मार जो रहे हो।"

सकुन्तला का इतना बोलना था कि अखिलेश बर्मन के पास खड़े दिलेर साहू के कान ऊंचे हो गए, वे चार कदम पीछे हट गए।

"ये क्या बोल रही हो तुम..? लगता है पागलपन अभी तक उतरा नहीं तुम्हरा...मै भला क्यों मारूँगा अपने लोगों को..?"

"ये सवाल तो अपने भीतर के आत्मा से पूछना चाहिए तुम्हें, तुमने पहले अपने ही बेटे को मारा तुम्हें शायद सुकून चाहिए था जीवन में। उसके बाद अपने दोस्त चंदन मित्तल को मारा क्यों, क्योंकि दौलत के लिये। अब एक और दोस्त को मारने के लिए ले आये हो, कल शायद किसी और को ले आओ। लेकिन एक काम करो उस से पहले तुम आज मुझे ही मार दो, क्योंकि तुम इधर उधर से जितना भी दौलत इकट्ठा करोगे उन सब की आधी हक़दार मैं रहूंगी। इसलिए सबसे बड़ा फ़ायदा तुम्हें मुझे मारकर ही होगा।"

"देखो मैंने चंदन मित्तल को नहीं मारा, उसे घिनु ने मारा था।"

"और घिनु के सामने उसे पेश किसने किया था..?"

अब अखिलेश बर्मन की बोलती बंद हो गयी थी। वे अब अपना सर झुका लिए थे। ये वहीं वक़्त था, जब दिलेर साहू अपनी जान बचाकर यहां से भाग गये थे।

"तुम कैसे जानती हो ये सब..?''

"जैसे सिर्फ़ मैं ही जानती थी, की तुमने कुणाल को ख़ुद के ही हाथों से सीढ़ियों से नीचे धक्का दिया था। और ख़ुद को बचाने के लिए मुझे पागल करार दे दिया।"

"तो बताओ भला मैं क्या ही करता, मैं खो रहा था तुम्हें। कुणाल से प्रेम मुझे भी था, लेकिन उसकी वजह से मैं तुम्हें खोता जा रहा था। वैसे भी वो सामान्य नहीं था सकुन्तला, उसकी मौत तय थी। मैं नहीं भी मारता तो शायद घिनु उसे मार देता, वो कब से उसे तलाश रहा था। तुम नहीं जानती सकुन्तला अतीत के साथ हम बुरी तरह लिपटे हुए थे। वो कोई आम बच्चा नहीं था।"

"मैं सब जानती हूँ, जानती हूं घिनु उसके पीछे पड़ा था लेकिन घिनु तब तक उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता जब तक तुम उसका ख़्याल रखते। इतिहास ने तुम्हें उसकी हिफाज़त के लिए चुना था ना। और तुम जानते हो अगर अच्छाई अपने जगह पर अटल रहे तो बुराई की उसके आगे कोई औक़ात नही रहती। घिनु की ताकते बढ़ी कुणाल की मौत से। वो जैसा भी था हमारा बच्चा था अखिलेश, ये बात तुम क्यों नहीं समझते, ईश्वर ने हमें चुना था उसके लिए। फ़िर कब तक हमें उसका ख़्याल रखना पड़ता एक उम्र के बाद तो सब समझने ही लगता वो। फ़िर तो जिंदगी पड़ी थी ना हमारे पास एक दूसरे के लिए। लेकिन तुमने क्या किया इतिहास को दोहराया जिसकी वजह से अब सैकड़ो लोग मर रहे है। क्या तुम्हें ज़रा भी पछतावा नही है इन बातों का..?"

"पछ्तावा है.." लेकिन किसके लिए पछताऊं क्या तुम लौटोगी मेरे पास..? यक़ीन करो मेरा दिल मुझे हर दिन धिक्कारता रहा लेकिन अपने भीतर की कमज़ोरी को ढंकने के लिए मैंने बुराई का साथ दिया। तुम ही बताओ अब क्या करूँ मैं..?"

"वहीं जिसके तूम वफादार बने हो, उसे ही छलना होगा तुम्हें।"

"लेकिन कैसे..?"

"वो सब तुम्हें वे लोग बताएंगे।" ये बोलते हुए सकुन्तला जी ने अपने दाएं हाथ से एक तरफ़ इशारा किया।

अखिलेश बर्मन ने देखा वहां सोमनाथ चट्टोपाध्याय,लिली और एक कोई लड़की खड़ी थी असल में वो प्राची थी लेकिन अखिलेश जी उसे जानते नहीं थे। उनकी नज़र शर्म से नीची हो गयी। वे सोमनाथ चट्टोपाध्याय से नजर नहीं मिला पा रहे थे। कितना भरोषा किया था इस इंसान ने उनपर। अपनी पूरी दुनियां को दूर किसी देश में छोड़कर वे यहां आए थे ताकि इस मुशीबत से सबको बाहर निकाल सकें।

"भूल जाओ जो हुआ, अब सोचो क्या करना है..? अच्छाई के राह पर लौट आओगे या बुराई के इस गहरे कुएं में उतरोगे फैसला तुम्हारा होगा। लेकिन याद रखना अगर तुमने अच्छाई का साथ दिया तो तुम्हें वो सबकुछ वापस मिल जाएगा जो तुम चाहते हो। तुम्हारी पत्नी भी।" सोमनाथ चट्टोपाध्याय ने अखिलेश बर्मन की पीठ में हाथ रखते हुए कहा।

"जैसा आप कहेंगे अब मैं वैसा ही करूँगा, बहुत बड़ी ग़लती कर दी मैंने अब मुझे कैसे भी सब ठीक करना है।" अखिलेश बर्मन ने लगभग सोमनाथ चट्टोपाध्याय के पैरों में गिड़गिड़ाते हुए कहा।

"फ़िर ठीक है जैसा मैं कहता हूं वैसा करो।"

वे लोग आपस में काफ़ी देर तक बातें करते रहे औऱ फ़िर लिली,प्राची और सोमनाथ चट्टोपाध्याय वहीं अंधेरे एक कोने में छिप गए। अखिलेश बर्मन ने सकुन्तला जी के हाथों को एक मोटी रस्सी से बांध कर रखा था, और ऐसा व्यवहार कर रहे थे जैसे वे ख़ुद ही अपनी पत्नी को घिनु के लिए शिकार बनाकर लाये है। आधी रात बीत गयी थी....घिनु का कोई अता पता नहीं था। प्रज्ञा घिनु को लेकर रास्तों में थी लेकिन अब तक तो उसे लौट आना चाहिए था।

और तभी लिली ने देखा प्रज्ञा ठीक उसके सामने ही खड़ी थी। वे लोग लौट आये थे। घिनु भी इस वक़्त अखिलेश बर्मन के सामने खड़ा था औऱ दोनों में बातें हो रही थी।

"इस औरत को ही ख़त्म कर डालिये आज, इसने मेरा जीना हराम कर रखा है। वैसे भी मेरी सारी कमाई पर बिना मेहनत ये आधा हिस्सा अपना लिखवा रखी है।" बग़ैर चेहरे में कोई घबराहट लिए अखिलेश बर्मन बोलते जा रहे थे।

और घिनु सोच रहा था ये इंसान तो वाक़ई बहुत बड़ा कमीना निकला। इसे अपने परिवार से कोई मोह नहीं है। ख़ैर उसे क्या....उसे तो बस अपने शिकार से मतलब है। वैसे भी प्रज्ञा ने आज उसका बेमतलब ही समय बर्बाद किया एक भी इंसान को लेकर आ नहीं पाई वो।

घिनु ने देखा कुएं के दीवारों से चिपकी वो एक भोली भाली औरत थी। उसके हाथ बंधे थे और वो असहाय दृष्टि से इधर उधर देख रही थी। जैसे काश कोई आये और उसे बचा ले इस दानव से।

घिनु ने एक कुटिल मुस्कान छोड़ी और आहिस्ते आहिस्ते वो सकुन्तला जी के तरफ़ हाथ बढ़ाने लगा। उसके मुंह से वहीं घिनौना लार टपक रहा था, चेहरे पर वहीं बेशर्मी और आस पास वहीं कीड़ो की भनभनाहट। सकुन्तला जी ने डरकर आँखें बंद कर ली।

अभी घिनु सकुन्तला जी को बस छूने ही वाला था कि तभी कोई चीज़ उस से टकरा गई, और जैसे घिनु को अचानक ही एक ज़ोरदार करंट लगा हो, वो छिटककर काफ़ी दूर जा गिरा।

क्रमश :- Deva sonkar

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