सोई तकदीर की मलिकाएँ - 39 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 39

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

39

जब तक सुभाष ने हाथ मुंह धोए , तब तक जयकौर ने चाय बना ली और पीतल के तीन गिलासों में छान ली । चूल्हे के पास रखे छाबे में ( बांस की रोटियाँ रखने वाली छोटी टोकरी ) में दो तीन रोटियाँ पोने में लपेटी हुई रखी थी और पत्थर के कूंडे में थोङी सी ढक कर रखी चटनी । उसने दो रोटियों पर चटनी रखी और सुभाष को रोटी और गिलास भर चाय पकङा दी । सुभाष रोटी खाने लगा तो उसने रस्सी पर टंगा अपना तौलिया उठाया । साथ ही उसका कल का धोया हुआ सूट टंगा हुआ था । दोनों कपङों को बाँह पर टांगे टांगे वह नहाने चल पङी ।
बसंत कौर जब दोबारा आँगन में आई , सुभाष आधे से ज्यादा रोटी खा चुका था –
हाय मैं मर जाऊँ । ये तो रात की बची बासी रोटी थी , जो तू खा रहा है । ये भी न , बिना देखे तुझे रात की बासी रोटियां थमा गई ।
सुभाष ने रोटी उलट पलट कर देखी , उसे रोटी में कोई खराबी नजर नहीं आई ।
कोई न सरदारनी । ये तो ताजा से भी ताजा रोटियाँ हैं । मैंने तो इतनी मीठी रोटी जिंदगी में पहली बार खाई हैं । मुझे तो ये कहीं से बासी नीं लगी और इस करारी चटनी के सात तो रोटी खाने का मजा ही आ गया ।
चल जितनी खा ली , खा ली । अब ये बाकी बची रोटी एक तरफ रख दे । ताजा रोटी बना रही हूँ , वह खाना । उसने गरम तवे पर रोटी डालते हुए कहा । और तुरंत थाली में रख कर दो रोटी उसकी ओर बढा दी । नरम गरम रोटी खा कर , चाय पीकर सुभाष तृप्त हो गया । अब वह क्या करे । बैठा रहे या जाय ।
केसर को रोटी खिला कर बसंत कौर ने अपनी थाली परोसी और लोटे में लस्सी लेकर ऊपर चली । तब तक जयकौर नहा कर आ गई थी । नहा कर गीले बालों में ओस में नहाए जंगली फूल की तरह खिल आई थी वह । बालों को तौलिए से रगङ कर पौंछते हुए उसने बाल झटके और पीठ पीछे डाल लिए ।
रोटी खा ली तूने ?
हां रोटी तो खा ली । सरदारनी ने गरम गरम रोटियाँ सेंक कर खिलाई पर अब मुझे वापिस जाना होगा । पता नहीं किस झोंक में घर से निकला और बस में सवार हो गया था । एक नशा सा मन पर छाया हुआ था । कब बस आई और कब मैं बस में चढा , मुझे कुछ याद नहीं । रात के पहने कपङे पहने पहने ही यहाँ तक आ गया । घर में किसी को बताया भी नहीं । थोङी देर और घर न पहुँचा तो घर वाले ढूंढने निकल पङेंगे । हर तरफ हल्ला मच जाएगा ।
ऐसे कैसे ?
ऐसा ही हुआ । वह तो शुक्र कर ,फूफा जी ने थोङा सामान मंगवाया था , उसमें से बचे पचास रूपए जेब में पङे थे । तो टिकट खरीद ली वरना पता नहीं कहाँ उतरता ।
पर तू चला गया तो मैं जिंदा कैसे रहूँगी । मेरा तो मन ही नहीं लग रहा । तू आ गया तो मन को बङा सुकून मिला था ।
मेरा ही कौन सा दिल लग रहा है । देख तो रही है , कैसे दीवानों की तरह बस में बैठा और यहाँ चला आया । ओ सुन तेरा सरदार मेरे आने से नाराज तो नहीं होगा ।
नाराज क्यों होगा , देखता नहीं मैंने तेरे हमेशा रहने का पक्का इंतजाम कर दिया है ।
हाँ देखा , पर तूने बिना मेरी मर्जी जाने ऐसे कैसे कह दिया । यहाँ तेरी ससुराल में रह कर मैं क्या करूँगा ।
वो तो अचानक सरदार के सामने तुझे घबराए हुए देख कर मुझे कुछ सूझा ही नहीं । एकदम मुंह से जो निकला , कह दिया पर अब लगता है कि जो कहा , ठीक कहा । रांझा भी तो हीर की भैंसें चराने के लिए हीर की ससुराल में रह गया था ।
हीर तो हर रोज रांझे के लिए चूरी बना कर ले आती थी तू लाएगी मेरे लिए चूरी बना कर । खिलाएगी अपने हाथ से ।
क्यों नहीं लाऊँगी । तू यहाँ रह तो सही फिर देख । मैं तेरे लिए सारे हद बन्ने पार कर जाऊँगी बल्कि अब अगर तूने मना कर दिया तो हमारे लिए मुश्किल हो सकती है ।
चल ठीक है । मैं एक बार घर जा आता हूँ । अपने दो चार कपङे तो ले आऊँ और भाई भाभी को बता तो दूँ ।
हूँ ...।
पर मेरे पास टिकट के लिए पैसे नहीं हैं ।
जयकौर भीतर गई । थैले में से एक रूमाल निकाला । उसमें लगी गाँठ खोली और सौ सौ के दो नोट निकाल कर सुभाष की ओर बढा दिए ।
इतने ... सारे ..। एकसाथ ...।
ज्यादा नहीं है । तुझे जाना है और वापस भी आना है । देख वादाखिलाफी मत करना । कल हर हाल में वापिस आ जाना । मैं इंतजार करूँगी ।
सुभाष को अब अपने आप को कंट्रोल करना मुश्किल हो गया । उसने बाँह बढाई और जयकौर को अपनी ओर खींच लिया । जयकौर अदृश्य डोर में बंधी उसकी ओर खिंची चली आई । सुभाष ने जयकौर को अपने सीने से सटा लिया । उसका चेहरा ऊपर उठाया और एक चुंबन उसके माथे पर अंकित कर दिया । जयकौर ने अपनी आँखें बंद ली मानो इस पल का भरपूर आनंद उठाना चाह रही हो । तभी एक बूंद आँसू उसकी आँख से टपका और जयकौर के गालों पर जा टिका । जयकौर ने उस टपके आँसू को अपने गालों से हटाने का कोई प्रयास नहीं किया । सुभाष कमरे से बाहर निकला । मेन गेट से बाहर निकलते हुए बस अड्डे की ओर चल दिया ।
रास्ते में वह सोचता जा रहा था कि जिंदगी भी कितने रंग दिखाती है । तीन चार महीने पहले तक इस जयकौर से उसका कोई लेना देना न था । आम पङोसी की तरह वे कभी मिलते भी तो कन्नी काट कर निकल जाते । कभी बात की भी होगी तो मतलब और जरूरत भर । चार महीने पहले एक दिन जयकौर दिन के दूसरे पहर में अचानक उसके घर आई थी । उसे अपने पशुओं के लिए चारा लाने खेत जाना था और अकेले इतना दूर जाने की उसकी हिम्मत न हो रही थी । उस दिन वे पहली बार उस खेत जाती पगडंडी पर एक साथ चले थे । पहली बार उन्होंने बात की थी । पहली बार उन्होंने मिल कर बरसीम काटी थी । पहली बार चारा बांधते हुए उनकी ऊंगलियां आपस में छू गई थी । कितनी देर तक उसके हाथों में झरनाहट होती रही थी । मन को पहली बार कोई अलग सा अहसास हुआ था । उस रात पहली बार वह सारी रात सो नहीं पाया था । बार बार जयकौर का चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम घूम जाता । उसकी छोटी छोटी बेसिरपैर की बातें कानों में मिश्री घोलने लगती । फिर मुलाकाते हर रोज होने लगी । जिस रोज न मिल पाते ,लगता कुछ खो गया । अभी तो वे सपने पूरी तरह से देखे भी नहीं थे कि जयकौर की शादी यूं अचानक हो गई । और आज वह बिना सोचे समझे दीवानों की तरह जयकौर की ससुराल जा धमका ।
बस अड्डे पर फरीदकोट की बस जाने को तैयार खङी थी । वह लपक कर बस में सवार हो गया । यहाँ संधवा में बिताए चार घंटे उसे किसी ख्वाब जैसे लग रहे थे ।

 

बाकी फिर ...