प्रेमचन्द की परंपरा पुनर्जीवित : केबीएल पाण्डेय
प्रस्तुति राज बोहरे
'प्रेमचंद का कथा साहित्य सहज ही स्पष्ट कर देता है कि वे सर्वहारा वर्ग के पैरोकार हैं।उनका लेख "महाजनी सभ्यता" उनके विचारों को प्रकट करता है । वे समाज के आगे चलने वाली मशाल के रूप में साहित्य की अवधारणा रखते थे ।" यह विचार डॉक्टर के. बी. एल. पाण्डेय ने विगत 8 अक्टूबर को प्रेमचंद के निर्वाण दिवस पर दतिया में मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की इकाई ने ' प्रेमचंद के बहाने' शीर्षक से आयोजित एक गोष्ठी में व्यक्त किए ।
शुरुआत में कथाकार राज बोहरे ने कहा कि कमोवेश आज भी किसान उन्ही परिस्थितियों में जी रहा है जो प्रेमचंद के जमाने मे थी। उन्होंने गोदान,गबन,रंगभूमि,क्रमा भूमि उंपन्यास सहित प्रेमचन्द के कहानी समग्र 'मानसरोवर' का उल्लेख करते हुए प्रेमचन्द के विशाल रचना संसार को भारतीय गांवों का मुक्कमल मन्जरनामा बताया। इस अवसर पर शैलेंद्र बुधौलिया ने ' पूस की रात' कहानी का पाठ किया। जिस पर बात करते हुए रामभरोसे मिश्र ने प्रेमचंद की इस कहानी के दृश्यों और सम्वादों को हिंदुस्तानी भाषा के अद्वितीय सम्वाद कहा । आनंद मोहन सक्सेना ने 'पूस की रात' कहानी पर बात आरंभ करते हुए प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' के बारे में कहा 'नमक का दारोगा उस युग मे सामान्यतः मिल जाते थे जिनका इस समय कतई अभाव है। दरोगा जैसे चरित्र कहानी के माध्यम से आने का सम्भवतः बड़ा लाभ यह था कि कहानी के पाठक भी ऐसे चरित्र के रूप में इंसान बनने और ऐसे चरित्रों को आदर्श मान के सत्य के प्रति निष्ठा बनाए रखने की प्रेरणा लेते थे ।' बात को आगे बढ़ाते हुए श्रीराम शर्मा एडवोकेड ने प्रेमचंद की कहानी 'पंच परमेश्वर' को याद करते हुए कहा कि 'अगर हम सबके मन में पंच परमेश्वर में आई यह बात घर कर जाए कि 'बिगाड़ के डर से ईमान की बात ही नही कहोगे ?' तो आधे मुकदमे व अहंकार समाप्त हो जायें, हमारे गांव और समाज से पक्षपात , अन्याय और चुप रह कर सहने की प्रवृत्ति दूर हो जाएगी।' डॉक्टर विशाल वर्मा ने प्रेमचन्द के उपन्यास कर्मभूमि को प्रेमचन्द का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास बताया। प्रोफेसर रामकिशोर नीखरा और संस्कृतज्ञ डॉक्टर रामेश्वर गुप्त ने भी प्रेमचंद की विभिन्न कहानियों को याद किया। इस गोष्ठी का मूल वक्तव्य डॉक्टर केबीएल पांडेय ने दिया । पांडेय ने कहा कि संभव है उनके सृजित किए गए चरित्र समाज में मौजूद न हो , लेकिन वे एक यथार्थवादी आदर्श के पोषक थे और इस नाते ऐसे चरित्रों की कल्पना करते थे, जो समाज का सत्य, समाज की ईमानदारी, निष्ठा और आपसी प्रेम को बनाए रखें। पंच परमेश्वर और नमक का दारोगा के चरित्रों को हम अगर आज के गांव में प्रतिष्ठित करें तो भारत का बिगड़ता सामाजिक परिवेश पुनः एक हो सकता है । प्रेमचंद की कहानी "सद्गति ' का उल्लेख करते हुए डॉक्टर पांडेय ने उसे ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक मूक विद्रोह की संज्ञा दी । नीरज जैन ने ' ठाकुर का कुआं ' व 'बड़े घर की बेटी' कहानियों का जिक्र करते हुए कहा कि 'इन कहानियों में तात्कालिक समाज की स्थितियां परिलक्षित होती हैं
पूरी चर्चा को राज बोहरे के ऊपन्यास आड़ा वक्त की तरफ मोड़ते हुए
गद्य साहित्य में कहानियों का इतिहास लगभग 100 वर्ष पुराना है हिंदी साहित्य में जो स्थान मुंशी प्रेमचंद को मिला वहां तक का सफर अभी तक किसी कहानीकार द्वारा तय नहीं किया जा सका।। जाहिर सी बात है इन 100 वर्षों में कहानी की विधा में आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं । इन परिवर्तनों के साथ साहित्यकार अपने लेखन को निरंतर माँझते आ रहे हैं । राजनाराय बोहरे प्रेमचंद की यथार्थवादी शैली का अनुसरण करते हुए अपने पात्रों के मनोविज्ञान से पाठकों पर गहरा असर छोड़ते हैं। उनकी किस्सागोई उन विषयों को यथार्थ के गहरे तल तक पहुंचाती है, सतह पर तैरता पाठक विषय के तल पर जा डूबता है और प्रसाद लेकर वह कहानी उसके मस्तिष्क में लगातार मंथन करती रहती है। प्रेमचन्द के उपन्यास के पढ़ने के बाद पाठक लंबे समय तक उसके असर से उभर नहीं पाता और स्मृतियों में अनिश्चितकाल तक वह कथा अंकित हो जाती है। कोई भी लेखन तब तक प्रभावित नहीं करता जब तक उसमें कुशल गठन न हो। घटनाओं का जीवंत संप्रेषण ना हो संवादों में एकता ना हो पाठक को विचार मन करने की क्षमता ना हो भाषा शैली, आंचलिकता , संप्रेषणीयता ,विचार हो या सिद्धांत यह कथा शिल्प में एक ताकतवर रचना शिल्प है।
पुराने युग का किसान हर परिस्थिति में अपनी जमीन को बचा कर रखता था। वह रोटी रोजगार की तरह रोज अपने खेत पर जाकर जमीन पर हाथ फेरता था। उसे अगर कील, कांटे और जमीन के अंदर छेवला बढ़ता हुआ दिखता, तो वह उन्हें सफाई करता था। अपनी जमीन को मां की तरह मानते किसान ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि एक दिन उसे यह जमीन बेचना पड़ सकती है। लेकिन नई पीढ़ी अलग है, यह नई पीढ़ी बाजार से संचालित है -वह खेत हो या खलिहान, घर हो या दुकान; अच्छे दाम मिल जाने पर वह उसे तुरंत सूरत बेच देने में कोई कोताही नहीं करती ना कोई संकोच । उसके सामने संकट खड़ा होता है और जब ऐसा ऐसी नई पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी के सामने आती है, तो जन्म होता है आडा वक्त जैसे उपन्यास का । इस उपन्यास में बुंदेलखंड और मालवा के सरहद पर बोली जाने वाली बोली का उपयोग किया गया है। कुछ शब्द बुंदेली हैं, तो कुछ शब्द मालवीय, कुछ शब्द दोनों भाषाओं के नहीं है । इस कहानी इस उपन्यास की एक और विशेषता है डी क्लास हो जाने का द्वंद्व! जुगल किशोर एक किसान का बेटा है वह मजदूर से ऊपर ही है।फिर कई वर्षों के अकाल के बाद जब वह मजदूरी करने निकलता है तो उसका इस तरह डी क्लास हो ना उसके पिता को नहीं सुहाता । वह हर संभव कोशिश करते हैं कि जुगल मजदूरी करने नहीं जाए। हालांकि जुगल भी ज्यादा दिन मजदूरी नहीं करता, वह भी विद्रोही करता है और वापस लौट आता है। धीरे-धीरे अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करता हुआ जुगल अपने परिवार को अपने हिसाब से चलाता है और फिर एक बड़े किसान के रूप में अपना स्थान बना लेता है । लेकिन वह अपनी जमीन अपने खेत बेचने की कल्पना भी नहीं करता । उसका एक तकिया कलाम बहाना हो जाता है कि जमीन तो आड़े वक्त के लिए होती है उपन्यास का वर्णन है। स्वरूप एक जानलेवा बीमारी का शिकार हो जाता है और अंत में वह प्राण भी छोड़ देता है, लेकिन दादा अपनी इज्जत पर अड़े रहते हैं । वे बड़े भोंकक्के हैं कि यह क्या हुआ उनकी जीत भी रह गई और उनकी जिद के चलते छोटे भाई को आखिर अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। मानव मनोविज्ञान की कई परतों को पलट ता हुआ, आधुनिक बाजार और समाज में खेती-किसानी और जमीन के महत्व को समझाता हुआ, खेती के पुराने तरीकों को पुनर स्मृति के सहारे बताता हुआ यह उपन्यास आज हिंदी के पाठक को बहुत प्रभावित करता है।
गोष्ठी के अंत में आभार प्रदर्शन करते हुए अनिल तिवारी ने प्रेमचंद के झांसी प्रवास के कुछ संस्मरण और झांसी प्रवास के समय रानी लक्ष्मीबाई और हर दौल पर लिखी गई कहानियों को याद किया।
प्रस्तुति राजनारायण बोहरे
ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी दतिया 475661