Satya na Prayogo - 12 books and stories free download online pdf in Hindi सत्य ना प्रयोगों - भाग 12 (3) 921 2.2k आगे की कहानी 'सभ्य' पोशाक में... अन्नाहार पर मेरी श्रद्धा दिन पर दिन बढ़ती गई। सॉल्ट की पुस्तक ने आहार के विषय में अधिक पुस्तकें पढ़ने की मेरी जिज्ञासा को तीव्र बना दिया। जितनी पुस्तकें मुझे मिलीं, मैंने खरीद ली और पढ़ डाली। उनमें हावर्ड विलियम्स की 'आहार-नीति' नामक पुस्तक में अलग-अलग युगों के ज्ञानियों, अवतारों और पैगंबरों के आहार का और आहार-विषयक उनके विचारों का वर्णन किया गया है। पाइथागोरस, ईसा मसीह इत्यादि को उसने केवल अन्नाहारी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। डॉक्टर मिसेस एना किंग्सफर्ड की 'उत्तम आहार की रीति' नामक पुस्तक भी आकर्षक थी। साथ ही, डॉ. एलिन्सन के आरोग्य-विषयक लेखों ने भी इसमें अच्छी मदद की। वे दवा के बदले आहार के हेरफर से ही रोगी को नीरोग करने की पद्धति का समर्थन करते थे। डॉ. एलिन्सन स्वयं अन्नाहारी थे और बीमारों को केवल अन्नाहार की सलाह देते थे। इन पुस्तकों के अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि मेरे जीवन में आहार-विषयक प्रयोगों ने महत्व का स्थान प्राप्त कर लिया। आरंभ में इन प्रयोगों में आरोग्य की दृष्टि मुख्य थी। बाद में धार्मिक दृष्टि सर्वोपरि बनी।इस बीच मेरे मित्र को तो मेरी चिंता बनी ही रही। उन्होंने प्रेमवश यह माना कि अगर मैं मांस नहीं खाऊँगा तो कमजोर हो जाऊँगा। यही नहीं, बल्कि मैं बेवकूफ बना रहूँगा क्योंकि अंग्रेजों के समाज में घुलमिल ही न सकूँगा। वे जानते थे कि मैं अन्नाहार-विषयक पुस्तकें पढ़ता रहता हूँ। उन्हें डर था कि इन पुस्तकों के पढ़ने से मैं भ्रमित चित्त बन जाऊँगा, प्रयोगों में मेरा जीवन व्यर्थ चला जाएगा। मुझे जो करना है, उसे मैं भूल जाऊँगा और 'पोथी-पंडित' बन बैठूँगा। इस विचार से उन्होंने मुझे सुधारने का एक आखिरी प्रयत्न किया। उन्होंने मुझे नाटक दिखाने के लिए न्योता। वहाँ जाने से पहले मुझे उनके साथ हॉबर्न भोजन-गृह में भोजन करना था। मेरी दृष्टि में यह गृह एक महल था। विक्टोरिया होटल छोड़ने के बाद ऐसे गृह में जाने का मेरा यह पहला अनुभव था। विक्टोरिया होटल का अनुभव तो निकम्मा था, क्योंकि ऐसा मानना होगा कि वहाँ मैं बेहोशी की हालत में था। सैकड़ों के बीच हम दो मित्र एक मेज के सामने बैठे। मित्र ने पहली प्लेट मँगाई। वह 'सूप' की थी। मैं परेशान हुआ। मित्र से क्या पूछता? मैंने परोसनेवाले को अपने पास बुलाया। मित्र समझ गए। चिढ़ कर पूछा, 'क्या है?'मैंने धीरे से संकोचपूर्वक कहा, 'मैं जानना चाहता हूँ कि इसमे मांस है या नहीं।''ऐसे गृह में यह जंगलीपन नहीं चल सकता। अगर तुम्हें अब भी किच-किच करनी हो तो तुम बाहर जाकर किसी छोटे से भोजन-गृह में खा लो और बाहर मेरी राह देखो।'मैं इस प्रस्ताव से खुश होकर उठा और दूसरे भोजनलय की खोज में निकला। पास ही एक अन्नाहारवाला भोजन-गृह था। पर वह तो बंद हो चुका था। मुझे समझ न पड़ा कि अब क्या करना चाहिए। मैं भूखा रहा। हम नाटक देखने गए। मित्र ने उक्त घटना के बारे में एक शब्द भी मुँह से न निकाला। मेरे पास तो कहने को था ही क्या?लेकिन यह हमारे बीच का अंतिम मित्र-युद्ध था। न हमारा संबंध टूटा, न उसमें कटुता आई। उनके सारे प्रयत्नों के मूल में रहे प्रेम को मैं पहचान सका था। इस कारण विचार और आचार की भिन्नता रहते हुए भी उनके प्रति मेरा आदर बढ़ गया। पर मैंने सोचा कि मुझे उनका डर दूर करना चाहिए। मैंने निश्चय किया कि मैं जंगली नहीं रहूँगा। सभ्यता के लक्षण ग्रहण करूँगा और दूसरे प्रकार के समाज में समरस होने योग्य बनकर अपनी अन्नाहार की अपनी विचित्रता को छिपा लूँगा।मैंने 'सभ्यता' सीखने के लिए अपनी सामर्थ्य से परे का और छिछला रास्ता पकड़ा।विलायती होने पर भी बंबई के कटे-सिले कपड़े अच्छे अंग्रेज समाज में शोभा नहीं देगे, इस विचार से मैंने 'आर्मी और नेवी' के स्टोर में कपड़े सिलवाए। उन्नीस शिलिंग की (उस जमाने के लिहाज से तो यह कीमत बहुत ही कही जाएगी) 'चिमनी' टोपी सिर पर पहनी। इतने से संतोष न हुआ तो बॉण्ड स्ट्रीट, जहाँ शौकीन लोगों के कपड़े सिलते थे, दस पौंड पर बत्ती रख कर शाम की पोशाक सिलवाई। भोले और बादशाही दिलवाले बड़े भाई से मैंने दोनो जेबों में लटकने लायक सोने की एक बढ़िया चेन मँगवाई और वह मिल भी गई। बँधी-बँधाई टाई पहनना शिष्टाचार में शुमार न था, इसलिए टाई बाँधने की कला हस्तगत की। देश में आईना हजामत के दिन ही देखने को मिलता था, पर यहाँ तो बड़े आईने के सामने खड़े रहकर ठीक से टाई बाँधने में और बालों में सीधी माँग निकालने में रोज लगभग दस मिनट तो बरबाद होते ही थे। बाल मुलायम नहीं थे, इसलिए उन्हें अच्छी तरह मुड़े हुए रखने के लिए ब्रश (झाड़ू ही समझिए!) के साथ रोज लड़ाई चलती थी। और टोपी पहनते तथा निकालने समय हाथ तो मानो माँग को सहेजने के लिए सिर पर पहुँच ही जाता था। और बीच-बीच में, समाज में बैठे-बैठे, माँग पर हाथ फिराकर बालों को व्यवस्थित रखने की एक और सभ्य क्रिया बराबर ही रहती थी।पर इतनी टीमटाप ही काफी न थी। अकेली सभ्य पोशाक से सभ्य थोड़े ही बना जा सकता था? मैंने सभ्यता के दूसरे कई बाहरी गुण भी जान लिए थे और मैं उन्हें सीखना चाहता था। सभ्य पुरुष को नाचना जानना चाहिए। उसे फ्रेंच अच्छी तरह जान लेनी चाहिए, क्योंकि फ्रेंच इंग्लैंड के पड़ोसी फ्रांस की भाषा थी, और यूरोप की राष्ट्रभाषा भी थी। और, मुझे यूरोप में घूमने की इच्छा थी। इसके अलावा, सभ्य पुरुष को लच्छेदार भाषण करना भी आना चाहिए। मैंने नृत्य सीखने का निश्चय किया। एक सत्र में भरती हुआ। एक सत्र के करीब तीन पौंड जमा किए। कोई तीन हफ्तों में करीब छह सबक सीखे होगे। पैर ठीक से तालबद्ध पड़ते न थे। पियानो बजता था, पर क्या कह रहा है, कुछ समझ में न आता था।'एक, दो, एक' चलता, पर उनके बीच का अंतर तो बाजा ही बताता था, जो मेरे लिए अगम्य था। तो अब क्या किया जाए? अब तो बाबाजी की बिल्लीवाला किस्सा हुआ। चूहों को भगाने के लिए बिल्ली, बिल्ली के लिए गाय, यों बाबाजी का परिवार बढ़ा, उसी तरह मेरे लोभ का परिवार बढ़ा। वायलिन बजाना सीख लूँ तो सुर और ताल का खयाल हो जाय। तीन पौंड वायलिन खरीदने मे गँवाए और कुछ उसकी शिक्षा के लिए भी दिए। भाषण करना सीखने के लिए एक तीसरे शिक्षक का घर खोजा। उन्हें भी एक गिन्नी तो भेंट की ही। बेल 'स्टैंडर्ड एलोक्युशनिस्ट' पुस्तक खरीदी। पिट का एक भाषण शुरू किया।इन बेल साहब ने मेरे कान ने बेल (घंटी) बजाई। मैं जागा।मुझे कौन इंग्लैंड में जीवन बिताना है? लच्छेदार भाषण करना सीखकर मैं क्या करूँगा? नाच-नाचकर मैं सभ्य कैसे बनूँगा? वायलिन तो देश में भी सीखा जा सकता है। मै तो विद्यार्थी हूँ। मुझें विद्या-धन बढ़ाना चाहिए। मुझे अपने पेशे से संबंध रखनेवाली तैयारी करनी चाहिए। मै अपने सदाचार से सभ्य समझा जाऊँ तो ठीक है, नहीं तो मुझे यह लोभ छोड़ना चाहिए।इन विचारो की धुन में मैंने उपर्युक्त आशय के उद्गारोंवाला पत्र भाषण-शिक्षक को भेज दिया। उनसे मैंने दो या तीन पाठ ही पढ़े थे। नृत्य-शिक्षिका को भी ऐसा ही पत्र लिखा। वायलिन शिक्षिका के घर वायलिन लेकर पहुँचा। उन्हें जिस दाम भी बिके, बेच डालने की इजाजत दे दी। उनके साथ कुछ मित्रता का सा संबंध हो गया था। इस कारण मैंने उनसे अपने मोह की चर्चा की। नाच आदि के जंजाल में से निकल जाने की मेरी बात उन्होंने पसंद की।_सत्य ना प्रयोगों ‹ पिछला प्रकरणसत्य ना प्रयोगों - भाग 11 › अगला प्रकरणसत्य ना प्रयोगों - भाग 13 - अंतिम भाग Download Our App अन्य रसप्रद विकल्प हिंदी लघुकथा हिंदी आध्यात्मिक कथा हिंदी फिक्शन कहानी हिंदी प्रेरक कथा हिंदी क्लासिक कहानियां हिंदी बाल कथाएँ हिंदी हास्य कथाएं हिंदी पत्रिका हिंदी कविता हिंदी यात्रा विशेष हिंदी महिला विशेष हिंदी नाटक हिंदी प्रेम कथाएँ हिंदी जासूसी कहानी हिंदी सामाजिक कहानियां हिंदी रोमांचक कहानियाँ हिंदी मानवीय विज्ञान हिंदी मनोविज्ञान हिंदी स्वास्थ्य हिंदी जीवनी हिंदी पकाने की विधि हिंदी पत्र हिंदी डरावनी कहानी हिंदी फिल्म समीक्षा हिंदी पौराणिक कथा हिंदी पुस्तक समीक्षाएं हिंदी थ्रिलर हिंदी कल्पित-विज्ञान हिंदी व्यापार हिंदी खेल हिंदी जानवरों हिंदी ज्योतिष शास्त्र हिंदी विज्ञान हिंदी कुछ भी Miss Chhoti फॉलो उपन्यास Miss Chhoti द्वारा हिंदी आध्यात्मिक कथा कुल प्रकरण : 13 शेयर करे आपको पसंद आएंगी सत्य ना प्रयोगों - भाग 1 द्वारा Miss Chhoti सत्य ना प्रयोगों - भाग 2 द्वारा Miss Chhoti सत्य ना प्रयोगों - भाग 3 द्वारा Miss Chhoti सत्य ना प्रयोगों - भाग 4 द्वारा Miss Chhoti सत्य ना प्रयोगों - भाग 5 द्वारा Miss Chhoti सत्य ना प्रयोगों - भाग 6 द्वारा Miss Chhoti सत्य ना प्रयोगों - भाग 7 द्वारा Miss Chhoti सत्य ना प्रयोगों - भाग 8 द्वारा Miss Chhoti सत्य ना प्रयोगों - भाग 9 द्वारा Miss Chhoti सत्य ना प्रयोगों - भाग 10 द्वारा Miss Chhoti NEW REALESED Horror Stories भुतिया एक्स्प्रेस अनलिमिटेड कहाणीया - 29 Jaydeep Jhomte Motivational Stories सोने के कंगन - भाग - ७ Ratna Pandey Drama Shyambabu And SeX - 1 Swatigrover Fiction Stories अमावस्या में खिला चाँद - 7 Lajpat Rai Garg Fiction Stories साथिया - 81 डॉ. शैलजा श्रीवास्तव Fiction Stories सुरासुर Sorry zone Love Stories अरेंज मैरिज वाला प्यार - 5 Komal Patel Love Stories अर्धांगिनी-अपरिभाषित प्रेम... - एपिसोड 1 रितेश एम. भटनागर... शब्दकार Travel stories टोरंटो (कनाडा) यात्रा संस्मरण Manoj kumar shukla Moral Stories कंचन मृग - 26. उदय सिंह शय्या पर उठ बैठे Dr. Suryapal Singh