Satya na Prayogo - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

सत्य ना प्रयोगों - भाग 3

आगे की कहानी....

हिंदू-संसार में विवाह कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं। वर-कन्या के माता-पिता विवाह के पीछे बरबाद होते हैं, धन लुटाते हैं और समय लुटाते हैं। महीनों पहले से तैयारियाँ होती हैं। कपड़े बनते है, गहने बनते है, जातिभोज के खर्च के हिसाब बनते हैं, पकवानों के प्रकारों की होड़ बदी जाती है। औरतें, गला हो चाहे न हो तो भी गाने गा-गाकर अपनी आवाज बैठा लेती हैं, बीमार भी पड़ती हैं। पड़ोसियों की शांति में खलल पहुँचाती हैं। बेचारे पड़ोसी भी अपने यहाँ प्रसंग आने पर यही सब करते हैं, इसलिए शोरगुल, जूठन, दूसरी गंदगियाँ, सब कुछ उदासीन भाव से सह लेते है। ऐसा झमेला तीन बार करने के बदले एक बार ही कर लिया जाए, तो कितना अच्छा हो? खर्च कम होने पर भी विवाह ठाढ़ से हो सकता है, क्योंकि तीन विवाह एक साथ करने पर पैसा खुले हाथों खर्चा जा सकता है। पिताजी और काकाजी बूढ़े थे। हम उनके आखिरी लड़के ठहरे। इसलिए उनके मन में हमारे विवाह रचाने का आनंद लूटने की वृत्ति भी रही होगी। इन और ऐसे दूसरे विचारों से ये तीनों विवाह एक साथ करने का निश्चय किया गया, और सामग्री जुटाने का काम तो, जैसा कि मैं कह चुका हूँ महीनों पहले से शुरू हो चुका था।

हम भाइयों को तो सिर्फ तैयारियों से ही पता चला कि विवाह होनेवाले हैं। उस समय मन में अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने, बाजे बजने, वर यात्रा के समय घोड़े पर चढ़ने, बढ़िया भोजन मिलने, एक नई बालिका के साथ विनोद करने आदि की अभिलाषा के सिवा दूसरी कोई खास बात रही हो, इसका मुझे कोई स्मरण नहीं है। विषय-भोग की वृत्ति तो बाद में आई। वह कैसे आई, इसका वर्णन कर सकता हूँ, पर पाठक ऐसी जिज्ञासा न रखें। मैं अपनी शरम पर परदा डालना चाहता हूँ। जो कुछ बतलाने लायक है, वह इसके आगे आएगा। किंतु इस चीज के विवाह का उस केंद्र बिंदु से बहुत ही थोड़ा संबंध है, जिसे मैंने अपनी निगाह के सामने रखा है।

हम दो भाइयों को राजकोट से पोरबंदर ले जाया गया। वहाँ हल्दी चढ़ाने आदि की विधि हुई, वह मनोरंजन होते हुए भी उसकी चर्चा छोड़ देने लायक है। पिताजी दीवान थे, फिर भी थे तो नौकर ही; तिस पर राज-प्रिय थे, इसलिए अधिक पराधीन रहे। ठाकुर साहब ने आखिरी घड़ी तक उन्हें छोड़ा नहीं। अंत में जब छोड़ा तो विवाह के दो दिन पहले ही रवाना किया। उन्हें पहुँचाने के लिए खास डाक बैठाई गई। पर विधाता ने कुछ और ही सोचा था। राजकोट से पोरबंदर साठ कोस है। बैलगाड़ी से पाँच दिन का रास्ता था। पिताजी तीन दिन में पहुँचे। आखिरी में तांगा उलट गया। पिताजी को कड़ी चोट आई। हाथ पर पट्टी, पीठ पर पट्टी। विवाह-विषयक उनका और हमारा आनंद आधा चला गया। फिर भी विवाह तो हुए ही। लिखे मुहूर्त कहीं टल सकते है? मैं तो विवाह के बाल-उल्लास में पिताजी का दुख भूल गया!

मै पितृ-भक्त तो था ही, पर विषय-भक्त भी वैसा ही था न? यहाँ विषय का मतलब इंद्रिय का विषय नहीं है, बल्कि भोग-मात्र है। माता-पिता की भक्ति के लिए सब सुखों का त्याग करना चाहिए, यह ज्ञान तो आगे चलकर मिलनेवाला था। तिस पर भी मानो मुझे भोगेच्छा को दंड ही भुगतना हो, इस तरह मेरे जीवन में एक विपरीत घटना घटी, जो मुझे आज तक अखरती है। जब-जब निष्कुलानंद का 'त्याग न टके रे वैराग बिना, करिए कोटि उपाय जी' गाता हूँ या सुनता हूँ, तब-तब वह विपरीत और कड़वी घटना मुझे याद आती है और शरमाती है।

पिताजी ने शरीर से पीड़ा भोगते हुए भी बाहर से प्रसन्न दीखने का प्रयत्न किया और विवाह में पूरी तरह योग दिया। पिताजी किस-किस प्रसंग में कहाँ-कहाँ बैठे थे, इसकी याद मुझे आज भी जैसी की वैसी बनी है। बाल-विवाह की चर्चा करते हुए पिताजी के कार्य की जो टीका मैंने आज की है, वह मेरे मन में उस समय थोड़े ही की थी? तब तो सब कुछ योग्य और मनपसंद ही लगा था। विवाह का शौक था और पिताजी जो कर रहे ठीक ही कर रहे है, ऐसा लगता था। इसलिए उस समय के स्मरण ताजे है।

मंडप में बैठे, फेरे फिरे, कंसार खाया-खिलाया, और तभी से वर-वधू साथ में रहने लगे। वह पहली रात! दो निर्दोष बालक अनजाने संसार-सागर में कूद पड़े। भाभी ने सिखलाया कि मुझे पहली रात में कैसा बरताव करना चाहिए। धर्मपत्नी को किसने सिखलाया, सो पूछने की बात मुझे याद नहीं। पूछने की इच्छा तक नहीं होती। पाठक यह जान लें कि हम दोनों एक-दूसरे से डरते थे, ऐसा भास मुझे है। एक-दूसरे से शरमाते तो थे ही। बातें कैसे करना, क्या करना, सो मैं क्या जानूँ? प्राप्त सिखापन भी क्या मदद करती? लेकिन क्या इस संबंध में कुछ सिखाना जरूरी होता है? यहाँ संस्कार बलवान है, वहाँ सिखावन सब गैर-जरूरी बन जाती है। धीरे-धीरे हम एक-दूसरे को पहचानने लगे, बोलने लगे। हम दोनों बराबरी की उमर के थे। पर मैंने तो पति की सत्ता चलाना शुरू कर दिया।

जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, उन दिनो निबंधों की छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ - पैसे-पैसे या पाई-पाई की, सो तो कुछ याद नही - निकलती थीं। उनमे दंपती-प्रेम, कमखर्ची, बालविवाह आदि विषयो की चर्चा रहती थी। उनमें से कुछ निबंध मेरे हाथ मे पड़ते और मैं उन्हें पढ़ जाता। मेरी यह आदत तो थी कि पढ़े हुए में से जो पसंद न आए उसे भूल जाना और जो पसंद आए उस पर अमल करना। मैंने पढ़ा था कि एकपत्नी-व्रत पालना पति का धर्म है। बात हृदय में रम गई। सत्य का शौक तो था ही इसलिए पत्नी को धोखा तो दे ही नहीं सकता था। इसी से यह भी समझ में आया कि दूसरी स्त्री के साथ संबंध नहीं रहना चाहिए। छोटी उमर में एकपत्नी-व्रत के भंग की संभावना कम ही रहती है।

पर इन सद्विचारो का एक बुरा परिणाम निकला। अगर मुझे एक-पत्नी-व्रत पालना है, तो पत्नी को एक-पति-व्रत पालना चाहिए। इस विचार के कारण मैं ईर्ष्यालु पति बन गया। 'पालना चाहिए' में से मैं 'पलवाना चाहिए' के विचार पर पहुँचा। और अगर पलवाना है तो मुझे पत्नी की निगरनी रखनी चाहिए। मेरे लिए पत्नी की पवित्रता में शंका करने का कोई कारण नहीं था। पर ईर्ष्या कारण क्यों देखने लगी? मुझे हमेशा यह जानना ही चाहिए कि मेरी स्त्री कहाँ जाती है। इसलिए मेरी अनुमति के बिना वह कहीं जा ही नहीं सकती। यह चीज हमारे बीच दुखद झगड़े की जड़ बन गई। बिना अनुमति के कहीं भी न जा सकना तो एक तरह की कैद ही हुई। पर कस्तूरबाई ऐसी कैद सहन करनेवाली थी ही नहीं। जहाँ इच्छा होती वहाँ मुझसे बिना पूछे जरूर जाती।

मै जितना दबाव डालता, वह उतना अधिक स्वतंत्रता से काम लेती, और मैं अधिक चिढ़ता। इससे हम बालकों के बीच बोलचाल का बंद होना एक मामूली चीज बन गई। कस्तूरबाई ने जो स्वतंत्रता बरती, उसे मैं निर्दोष मानता हूँ। जिस बालिका के मन में पाप नहीं है, वह देव-दर्शन के लिए जाने पर या किसी से मिलने जाने पर दबाव क्यों सहन करें? अगर मैं उस पर दबाव डालता हूँ, तो वह मुझ पर क्यों न डाले? ...यह तो अब मुझे समझ में आ रहा है। उस समय तो मुझे अपना पतित्व सिद्ध करना था। लेकिन पाठक यह न मानें कि हमारे गृहजीवन में कहीं भी मिठास नहीं थी। मेरी वक्रता की जड़ प्रेम में थी। मैं अपनी पत्नी को आदर्श पत्नी बनाना चाहता था। मेरी यह भावना थी कि वह स्वच्छ बने, स्वच्छ रहे, मैं सीखूँ सो सीखे, मैं पढ़ूँ सो पढ़े और हम दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें।

_सत्य ना प्रयोगों

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