सोई तकदीर की मलिकाएँ - 34 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 34

 

सोई तकदीर की मलिकाएँ

 

34

 

पूरे पाँच दिन अस्पताल में धक्के खाने और जी भर पैसे लुटाने के बाद जब डाक्टर को लगा कि अब निचोङने के लिए मरीज और उसके घर वालों के पास कुछ नहीं बचा तो उसने मरीज को घर ले जाने की इजाजत दे दी । डाक्टर की बात सुन कर परिवार ने सुख की सांस ही ली थी । इन पाँच दिन रात तो घर के दोनों मर्द सुभाष समेत घर और अस्पताल के बीच चक्करघिन्नी बने हुए थे । बुढिया बच्चों को संभालती संभालती अलग हलकान हुई पङी थी । सुरजीत को अब भी हर शाम हलका हलका बुखार हो जाता था । पूरा बदन दर्द से फोङा हुआ हुआ था । यहाँ इंजैक्शन और गोलियां खाकर उसकी आँख लग जाती । वह थोङा सो लेती पर घर जाने के नाम पर वह भी खुश हो गई । घर में न दवा का इंतजाम होना था और न पथ्य मिलने की उम्मीद थी पर एक घर के नाम पर चारदिवारी और सिर पर छत तो थी । वह घर नाम की जगह जहाँ उसका अपना कुछ नहीं था । घर पति का था । बच्चे पति के थे । वह सिर्फ खटने के लिए थी । सुबह के पाँच बजे से लेकर रात को सबके सो जाने तक सबके लिए खटना उसकी नियति थी । सबके सो जाने के बाद भी उसे पति का बिस्तर गर्माना होता । कहने को वह उसका घर था , घर जहाँ उसके तीन छोटे छोटे बच्चे  थे , एक पति कहलाने लायक आदमी था जो मालिक ज्यादा था , पति कम । और थी एक बूढी सास जो दिन रात उसके मरने की दुआ मांगा करती ताकि बेटे के लिए कोई कमसिन नई लङकी ब्याह कर दुल्हन बना कर ले आए ।

सुभाष और सुभाष की माँ भी खुश थे कि अब वे अपने गाँव लौट सकेंगे ।

इस तरह  सुभाष की बुआ को छुट्टी मिल गई थी और वह अस्पताल से घर आ गई थी । अभी इलाज लंबा चलना था । अभी समय पर दवाई देने और देखभाल की जरूरत थी । अपनी बीमारी के चलते वह काफी कमजोर हो गयी थी । उठ कर बैठने के लिए भी उसे किसी सहारे की जरूरत पङती । दो कदम चलने में ही सांस फूल फूल जाती । उसकी माँ को अभी कम से कम चार सात दिन और वहीं रहना पङना था पर सुभाष का मन भीतर ही भीतर बेचैनी महसूस कर रहा था । कारण तो वह खुद नहीं जानता था पर मन में बेचैनी थी तो थी । वह उस घबराहट को समझने की कोशिश कर रहा था । घबराहट का कारण ढूंढ रहा था पर कोई कारण लाख सिर पटकने पर भी समझ में न आता था । रात सारी रात उसकी करवटें बदलते बीती । आखिर हार कर वह दिन निकलते ही माँ के पास जा पहुँचा – माँ , अब घर चलें । हमें यहाँ आए हुए पाँच छ दिन हो चले ।

बुआ ने सुन लिया – चन्ना , बुआ के पास क्या पाँच दिन बहुत ज्यादा होते हैं ? आराम से रहो । यह तुम्हारा ही घर है । यहाँ क्या परेशानी है ? अभी मुझे पूरी तरह से ठीक तो हो लेने दो । जब ठीक होकर तुझे अपने हाथ से गाजर का हलवा और चूरी बना कर खिला लूँगी , तब विदा करूँगी । समझे ।

परेशानी तो क्या होगी बुआ । पर मैं अब घर जाना चाहता हूँ । फसल की गुङाई , निराई का समय है । इस समय यदि फसल को संभाला न गया तो अब तक की सारी मेहनत और पैसा बर्बाद हो जाएगा । और तुम बहुत जल्दी ठीक हो जाओगी । फिर मैं दोबारा आकर तेरे हाथ की बनी मक्की की रोटियां और साग खा कर जाऊँगा । कमलजीत का मन तो नहीं था उसे भेजने का पर उसका हठ देख कर वह चुप लगा गई । थोङी देर में उसने दोबारा पूछा – भाभी तो अभी रहेगी न ।

हाँ , मैं अभी तेरे पास ही हूँ । तू चिंता मत कर ।

बिशनी ने आलू उबाले । छील कर फटाफट परौंठे बनाए । दही के साथ दो परौंठे खाकर माँ और बुआ के पैर छू कर सुभाष चल पङा । कीतू उसे बस अड्डे तक साइकिल से छोङ गया । बस चल पङी तो सुभाष को जयकौर बङी शिद्दत से याद आई ।

इधर जयकौर के साथ उसके दिन अच्छे से बीत रहे था । वह करीब दस बजे खेत के लिए निकलता । थोङा आगे पीछे जयकौर भी घर से निकल पङती । रास्ते में किसी पेङ के नीचे सुभाष इंतजार करता मिलता । दूर से ही जयकौर को आते देख कर सुभाष का दिल जोर जोर से धङक उठता । जयकौर पास आते ही दुपट्टे का पल्ला खोल कर कुछ न कुछ खाने के लिए लाया हुआ सामान उसके आगे कर देती । दोनों मिल कर खाते और बातें करते हुए खेतों की ओर चल पङते । पहले दोनों सुभाष की भैंसों के लिए चारा काटते फिर जयकौर अपनी रानो और उसकी कटरियों के लिए । घंटे भर में दोनों गट्ठर तैयार हो जाते पर उनका वापिस जाने का मन न होता । अब वे खेत की निराई करने लगते ।  आखिर बेमन से घर लौटते । अगले दिन थोङा जल्दी खेत जाने का वादा लेकर ।

शुभाष बुआ के घर जाना नहीं चाहता था । वह तो कमलजीत को अकेले जाना मुश्किल लगता था । ऊपर से बीमार ननद के साथ अस्पताल में रहना , घर से सामान लाने ले जाने के लिए कोई लङका तो साथ होना ही चाहिए , इसलिए वह जबरदस्ती सुभाष को अपने साथ ले गयी थी । सुभाष ने सोचा था , माँ को वहाँ छोङ कर वह अगले ही दिन लौट आएगा । पर वहाँ जाकर उसे लगा कि वह अगर साथ न आता तो माँ को अकेले सब संभालना कितना मुश्किल होता । वह पूरा दिन घर से अस्पताल और अस्पताल से घर के चक्कर लगाता । कभी रोटी ला रहा तो कभी चाय दूध । यहाँ आकर डाक्टरों से सम्पर्क रखता । रात में माँ के साथ  अस्पताल में रहता । फूफा उसके आ जाने से थोङा निश्चिंत हो गये थे । इस सब में उसे घर और जयकौर के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली थी पर बुआ के घर आ जाने पर वह घर लौटने के लिए बेचैन हो उठा था ।

बस उसकी सारी बेचैनी के बावजूद अपनी रफ्तार से चलती रही । सङकों से कच्चे रास्ते , कच्चे रास्तों से पगडंडियाँ पार करती ढाई घंटे बाद बस कम्मेआना पहुँची । वह लपक कर बस से उतरा । अपना थैला कंधे पर लादे वह पैदल ही घर की ओर चल पङा । इस समय मन में तरह तरह कल्पनाएँ चल रही थी । घर जाते ही वह नहाएगा । फिर खेत चल पङेगा । जयकौर को संदेश भेजेगा । नहीं उसके आने की खबर पाते ही वह खुद ब खुद निकल पङेगी । वे दिल खोल कर मन की बातें कहेंगे सुनेगे ।  वह उसके कंधे पर सिर टिका देगी । शायद रोने भी लग जाए । वह कान पकङ कर कसम खाएगा कि अब कभी इतने दिन के लिए उसे छोङ कर नहीं जाएगा । अपनी सोच में डूबे चलते हुए उसे ठोकर लगी तो वह नींद से जागा । सामने कुछ ही कदम पर उसकी गली दिखाई देने लगी थी ।

 

 

बाकी फिर ...