ममता की परीक्षा - 119 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 119



"मैं ये कहना चाहता था कि हम ठहरे गाँव वाले, भले पढ़े लिखे दरोगा बन गए लेकिन संस्कार तो हमें अपने ग्रामीण दादाजी और पिताजी से ही मिला है जिन्होंने हमें बहुत अच्छे संस्कार देते हुए जीवन के लिए आवश्यक नसीहतें भी सिखाई और समझाई थीं। बहुत सारी नसीहतों में से एक नसीहत यह भी थी कि 'चाहे जितना भी पुण्य मिलता हो, लेकिन हवन के नाम पर अपना हाथ कभी मत जलाना'। अब अगर आपको इसका मतलब समझ में आ गया हो तो आप जरूर समझ गए होंगे कि मैंने इस केस में आगे बढ़ने का निश्चय क्यों नहीं किया।"
अपनी बात कहने के बाद विजय कुछ पल के लिए रुका।

उसके रुकते ही बड़ी देर से खामोश बिरजू बोल पड़ा, "बात तो तुम ठीक कह रहे हो साहब। हमारे बाबूजी आज भी हमको यही बात सिखाते हैं कि पुण्य का अर्थात किसी की मदद करने का कोई मौका न छोड़ो। मतलब हर जरूरतमंद की मदद करो, लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रखना आज के युग में बहुत जरूरी है कि किसी की मदद के चक्कर में हम अपना ही कोई बड़ा नुकसान न कर लें।.. खैर पूरी बात सुनकर अब हम तुम्हारी बात समझ गए हैं कि तुम उस समय हमारी मदद काहें नाहीं किये।.. अब जाने दो इन सब बातों को और हमें ये समझाओ कि अब हमको आगे क्या करना चाहिए इस केस को फिर से खुलवाने के लिए।"

अमर भी तुरंत ही उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोला, "हाँ बिरजू ! तुम ठीक कह रहे हो। अब तो हमें यही पता चल जाये कि इसके लिए पहल कहाँ से करनी है तो बसंती को न्याय दिलाने की दिशा में कुछ काम आगे बढ़े। अब और सब्र नहीं हो रहा। उन दरिंदों को सजा दिलाने में अब घड़ी भर भी देर नहीं होनी चाहिए।"
उन दोनों की बात सुनकर विजय हल्का सा कहकहा लगाते हुए बोला, "कमाल की बातें कर रहे हो तुम दोनों !"
और फिर अमर की तरफ देखते हुए बोला, "तुम तो पढ़े लिखे और समझदार शहरी बाबू लग रहे हो और बातें ऐसे कर रहे हो जैसे धनिया मिर्च रखी है,बस कुंच दो और बन गई चटनी।... बरखुरदार ये चटनी बनाने जैसा आसान काम नहीं है कि ये फाइल खोला, अदालत में पेश किया और अगले दिन सब अपराधी अंदर। इसकी एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम अदालत के आदेश से इस केस को खुलवा सकते हैं और अपराधी को सजा दिलवा सकते हैं।"
फिर मेज की दराज से एक छोटा सा कागज लेकर उसपर कुछ लिखने के बाद दरोगा ने वह कागज सेठ जमनादास की तरफ बढ़ाते हुए कहा, "ये बसंती रेप केस क्रमांक है। आप इसे अपने वकील को दीजियेगा। आगे की प्रक्रिया आपको वही बताएगा।... और हाँ, उसको बता दीजियेगा कि इस मुकदमे से संबंधित सब जानकारी मैं उसे मुहैया कराऊँगा..हालाँकि नियमतः ये गैरकानूनी है लेकिन इंसानियत की खातिर व उन बदमाशों को सजा दिलाने की खातिर इतना करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं। मैं आपके वकील की पूरी मदद करूँगा यह जानते हुए भी कि उसकी जीत में मेरी हार छिपी हुई है लेकिन यह केस मैं हारना ही पसंद करूँगा।"
कहने के बाद वह उठ खड़ा हुआ।

कुछ देर बाद उसने ऊँची आवाज में रामसिंह को आवाज लगाई, "रामसिंह, गाड़ी बाहर निकालो। हमें शहर जाना है पुलिस हेडक्वार्टर में।"

इसके बाद वह जमनादास, अमर और बिरजू की तरफ मुड़कर बोला,"अब आप लोग जा सकते हैं। मुझे भी शहर जाना है।"

दरोगा विजय के जाते ही तीनों थाने से निकलकर बाहर गाड़ी के पास आए।
कुछ देर की खामोशी के बाद सेठ जमनादास बोले, "ये काम इतना आसान नहीं लग रहा है अमर बेटा ! ..लेकिन कोई बात नहीं। हमें भी मुश्किल काम करने में ही बड़ा मजा आता है। तुम चिंता मत करो, मैं सब संभाल लूँगा।" कहते हुए वह कार में ड्राइविंग सीट की तरफ बढ़ने लगे।

अमर ने एक नजर उनकी तरफ देखा और फिर हाथ में बंधी घड़ी में समय देखते हुए बोला, "सेठ जी ! बारह बजने वाले हैं और अभी दिन बहुत बाकी है। घर पर वापस जाकर भी क्या करना है ? यहाँ से शहर नजदीक ही है। आप वह पर्ची मुझे दे दीजिए। शहर में मेरा एक परिचित वकील है। उस केस नंबर के जरिये मैं वकील से मिलकर यह केस फिर से खुलवाने की कोशिश करता हूँ।"
"सही कह रहे हो बेटा ! अब हमें वाकई और देर नहीं करना चाहिए, लेकिन शहर तुम अकेले क्यों जाओगे ? क्या मैं नहीं चल सकता शहर ?.. हम सब जाएँगे शहर।.. चलो बैठो गाड़ी में।" एक तरह से जमनादास ने बड़े प्यार भरे शब्दों में उसे आदेश ही दे दिया।

झिझकते हुए अमर बोला, "अरे नहीं नहीं, मेरे कहने का यय मतलब नहीं था। दरअसल हम नहीं चाहते हैं कि आप हमारे लिए अपना कीमती वक्त जाया करें। हम यह काम कर लेंगे। क्यों बिरजू ? ..ठीक कहा ना ?" कहते हुए उसने बगल में खड़े बिरजू को कोहनी मारते हुए उससे पूछ लिया।

उसकी कोहनी का स्पर्श महसूस करते ही बिरजू बोल पड़ा, "हाँ, हाँ भैया ! सही कह रहे हो आप। सेठजी को अपने काम में उलझाकर और अधिक परेशान करना भी उचित नहीं लगता। इस काम में पता नहीं कितना दिन लगेगा और फिर सेठजी को रजनी भउजी का भी तो ख्याल रखना है।" मसखरे अंदाज में उसके मुँह से निकले अंतिम वाक्य ने सबके चेहरे पर मुस्कान ला दिया।

अमर का दिल अंदर से बल्लियों उछलने लगा लेकिन प्रकट में चेहरे पर कठोरता के भाव लाते हुए बिरजू को प्यार से डांट लगाई, "बिरजू ! कितनी बार बोला है, कम बोला करो ! कभी कभी बहुत फालतू की बातें बोल जाते हो।"

"क्या भैया ! आपको भले रजनी भाभी की चिंता न होती हो, लेकिन मुझे तो रहेगी ही न। ठीक है अब आगे से नहीं बोलूँगा। लो हो गया मैं.. खामोश !" कहते हुए उसने अपने एक हाथ की तर्जनी उँगली बड़ी मासूमियत से अपने होठों पर रख लिया और खामोश हो गया।
अब अमर खुद को हँसने से नहीं रोक सका।

अचानक जमनादास जी की आवाज उसके कानों में पड़ी और उसकी हँसी रुक गई। वह कह रहे थे, "शहर में सबसे बड़े वकील मेरे परिचित हैं जिनका केस जीतने का एक रिकॉर्ड रहा है। मुझे नहीं लगता कोई दूसरा वकील हमें न्याय दिला सकता है। अगर कहीं गोपाल की बीवी ने हमसे पहले उस वकील को पकड़ लिया तो हमारा केस जीतना मुश्किल हो जाएगा।.. इसलिए मेरी बात मानो और सब लोग गाड़ी में बैठ जाओ। लोहा लोहे को काटता है यह मानते हुए हमें वकील भी उसी अनुपात में दमदार करना होगा जैसा दमदार अपराधी है, और वो तुम्हारा परिचित वकील मुझे नहीं लगता कि इतना पहुँचा हुआ या काबिल वकील होगा।"
"जी बिल्कुल सही कह रहे हैं आप, लेकिन आप किस वकील की बात कर रहे हैं जिसने एक भी मुकदमा नहीं हारा है और जिसकी सेवा लेने की बात आप कह रहे हैं।" अमर ने शालीनता से पूछ लिया। शायद जमनादास की बात अब उसकी समझ में आ गई थी।

"अमर बेटा ! यकीन मानो, वह बड़ा ही खुर्राट और काइंया वकील है। वकील बंसीलाल का नाम तो सुना होगा तुमने। वही वकील बंसीलाल जिसका रुतबा किसी जज से कम नहीं। दर्जनों जूनियर वकील उसके मार्गदर्शन में काम करते हैं और उसके साथ कुछ दिन रहने के बाद अपना स्वतंत्र केस लेने लगते हैं। एक नंबर का बेईमान इंसान है वकील बंसीलाल लेकिन अपना काम वह बड़ी ईमानदारी से करता है। एक बार अगर उसने हमारा केस अपने हाथ में ले लिया तो समझो हमारी जीत पक्की, क्योंकि जीतने के लिए वह साम, दाम, दंड और भेद जैसे हर उपाय का प्रयोग करता है। दुर्भाग्य से आज की यही सच्चाई है कि न्याय खरीदना पड़ता है और सीधे सादे वकील न्याय नहीं खरीद सकते। ऐसे खुर्राट व धुरंधर वकील ही न्याय की बोली लगवाते हैं और अपने मुंहमांगे दामों पर न्याय रईसों के लिए उपलब्ध करवाते हैं। एक तरह से तुम इन्हें न्याय के रखवालों और रईसों के बीच की कड़ी या फिर आसान देसी भाषा में न्याय के दलाल भी कह सकते हो।" कहते हुए सेठ जमनादास ड्राइविंग सीट पर बैठ गए।

दूसरी तरफ से अमर और बिरजू के कार में बैठते ही कार थाने के प्रांगण से निकलकर कच्ची सड़क पर आ गई और धीरे धीरे हिचकोले खाती शहर की तरफ बढ़ने लगी।

क्रमशः