ममता की परीक्षा - 120 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 120



कुछ देर तक ऊबड़खाबड़ कच्चे रास्ते पर हिचकोले खाते चलने के बाद कार बाईं तरफ मुड़कर मुख्य सड़क पर आ गई और तेजी से शहर की तरफ भागने लगी।

अचानक बिरजू को जैसे कुछ याद आया हो, बगल में बैठे अमर को उसने दोनों कंधे पकड़ कर बुरी तरह झिंझोड़ दिया।

नागवारी के भाव चेहरे पर लिए अमर ने बिरजू की तरफ देखा।

उसकी नाराजगी को महसूस करके तत्काल अपने दोनों कान पकड़ते हुए बिरजू बोल पड़ा, "माफ कर दो भैया ! दरअसल मुझे एक बात याद आ गई थी, तो सोचा आपको बता दूँ।"

उसकी मासूम अदा को देखकर अमर उस तनाव की स्थिति में भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सका। बोला, "चल चल ! अब नौटंकी बंद कर और बता क्या कहना चाहता था ?"

"वो भैया, मुझे ऐसा लग रहा है कि वह वकील जिसने उन दरिंदों की तरफ से बहस की थी और उनको बाइज्जत रिहा करवाया था उसका नाम भी बंसीलाल ही था शायद। अगर ये वही हुआ तो क्या वह हमारा केस लेने के लिए तैयार हो जाएगा ? मुझे तो आशंका हो रही है।" बिरजू ने पूरी बात बताई।

कार चलाते हुए भी सेठ जमनादास उनकी बातचीत ध्यान से सुन रहे थे।
अमर अभी कुछ जवाब देता कि उससे पहले जमनादास जी बोल पड़े, "बेटा ! अगर यह वही बंसीलाल है जिसने पहले भी इस केस में वकील की भूमिका निभाई है तो समझो हमारे लिए काम और आसान हो गया है, क्योंकि मैं जिस बंसीलाल वकील को जानता हूँ वह एक नंबर का पैसे का लालची है और पैसा दिखाकर उसे अपनी तरफ कर लेने में कोई मुश्किल नहीं आएगी। उसको इस केस की जानकारी होना भी हमारे लिए फायदेमंद होगा, और फिर ये जानकारी भी तो उसके ही पास है न कि उन जानवरों को छुड़ाने के लिए उसने कैसे कैसे और कहाँ से जुगाड़ भिड़ाया था, किसकी मदद ली थी। जबकि किसी नए वकील के लिए यह सब पता कर पाना बहुत मुश्किल काम साबित होनेवाला है।" यह सब कहते हुए भी वह बड़ी कुशलता से कार चलाते रहे।

अमर भी उनकी बात से सहमत नजर आ रहा था, लेकिन वह न जाने क्या सोच रहा था। चिंता की परछाईं उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रही थी। वह किसी गहन विचार में मग्न दिख रहा था।
दरअसल कार के शहर की तरफ बढ़ते ही रजनी ने उसके ख्यालों में दस्तक दे दी थी।
'रजनी ! उसका प्यार, उसका सब कुछ ! उसके प्यार की खातिर वह उसे खोजते हुए यहाँ इतनी दूर किसी अंजान, सुनसान गाँव में आ गई थी और उसे देखकर खुशी जाहिर करने के बदले वह उससे जिस बेरुखी से पेश आया था कहीं उसे बुरा न लगा हो.. और फिर उसका वह कहना 'मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ '.. क्या सच होगा ? अगर सच में ऐसा है तो उसे तो जरा भी मानसिक कष्ट नहीं होना चाहिए और अगर मेरी वजह से उसे कोई तकलीफ हुई तो मैं वाकई अपने आपको माफ नहीं कर पाऊँगा। सही मायने में अगर देखा जाय तो इस पूरी कहानी में अगर कोई बेदाग और बेगुनाह है तो वह एकमात्र रजनी ही है जिसे बिना किसी गुनाह के ही सजा भुगतनी पड़ रही है।'

अपने ख्यालों में खोया हुआ अमर अचानक कार की गति कम होते व उसे मुख्य सड़क पर बायीं तरफ चलते देखकर चौंक पड़ा। जब तक वह कुछ समझता उससे पहले ही कार एक विशाल दोमंजिला भवन के बड़े से गेट के सामने खड़ी हो गई जिसपर एक बड़ा सा फलक शान से मुस्कुरा रहा था 'रमा मोहन भंडारी महिला कल्याण आश्रम '।

अमर के चेहरे की चमक बढ़ गई थी, जबकि बिरजू के चेहरे पर मूर्खों जैसे भाव थे। वह ऐसा जता रहा था, जैसे वह कुछ समझने का प्रयास कर रहा हो लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आ रहा हो।

कार से उतरकर जमनादास जी बड़े गेट में ही बीच में स्थित छोटे से गेट से अंदर दाखिल हुए और उनके पीछे पीछे अमर तथा बिरजू ने भी उनका अनुसरण किया।
जमनादास सीधे आगे बढ़ते हुए ऊपर जानेवाली सीढ़ियों के करीब बने उस कमरे की तरफ मुड़ गए जिसपर एक शानदार नेमप्लेट लगा हुआ था 'साधना गोपाल अग्रवाल - संचालिका '।

संयोग से दरवाजा खुला हुआ था।
दरवाजे के समीप पहुँचते हुए जमनादास जी का दिल जोरों से धड़कने लगा था। ऐसा लग रहा था जैसे दिल अभी पसलियाँ तोड़कर बाहर निकल आएगा। अच्छी और बुरी दोनों तरह की बातें उनके मनोमस्तिष्क में उथलपुथल किये हुए थी।
'इतने दिनों बाद मुझे सामने देखकर साधना की कैसी प्रतिक्रिया होगी ? क्या वह मुझे ही दोषी समझ रही होगी ? क्या वह मुझे माफ़ कर चुकी होगी या कर देगी ? ' जैसे ढेरों सवाल उनके मन में उमड़घुमड़ रहे थे लेकिन अंततः 'जो भी हो, अब साधना का सामना तो करना ही पड़ेगा और तभी उसके मन की थाह लगेगी कि उसके मन में मेरे लिए क्या है ? अगर नाराज हुई तो उसके कदमों में गिरकर मैं अपने गुनाहों की माफी माँग लूँगा लेकिन किसी भी तरह से अपनी बेटी की खुशियों पर आँच नहीं आने दूँगा।'
कुछ ही पलों में ढेर सारे विचार उनके मन में आते चले गए लेकिन अंततः वह रजनी की खुशियों के लिए कुछ भी करने के लिए मन ही मन खुद को तैयार कर चुके थे। कमरे के दरवाजे के सामने जमनादास जी एक पल को ठिठके, लेकिन उनके बगल से होते हुए अमर ने सीधे कमरे में प्रवेश किया और उसके पीछे पीछे बिरजू भी अंदर कमरे में पहुँचकर उस बड़ी सी मेज के पीछे पहुँच गया जहाँ साधना कुर्सी पर बैठी किसी फाइल में खोई हुई थी।

सफेद साड़ी में लिपटी साधना के गोल खूबसूरत चेहरे पर सुनहरा चश्मा उसके व्यक्तित्व को एक अनोखी गरिमा प्रदान कर रहा था। बालों में कुछ लटें सफेद होकर उसके अनुभव का प्रमाण दे रही थीं।
अमर जाकर साधना के पैरों में झुका और फिर उसके गले से लिपट गया। अचानक अमर को अपने आगोश में पाकर साधना धन्य हो उठी। उसकी आँखों से अविरल गंगा जमुना बह निकली। भावुक होकर उसने अमर को अपने सीने से भींच लिया और उसपर स्नेहिल ममता की बौछार कर दी। पलकें अमर की भी भीग गई थीं। कुछ देर उसके सीने से लगा वह माँ के पावन स्पर्श का अनुभव करता रहा और फिर अपने हाथों से उसके बहते आँसू पोंछते हुए फफक पड़ा, "मत रो माँ ! अब मैं आ गया हूँ। अब मैं तुमको छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगा। बहुत दिन रह लिया तुमसे दूर होकर, तुम्हारी ममता की छाँव से वंचित रहकर.. लेकिन अब नहीं,.. अब और नहीं माँ ! ...
तुम्हारे एक एक आँसू मुझे इस दुनिया में खुद को काबिल बनाने के लिए प्रेरित करते रहे, ताकि किसी दिन इस काबिल बन सकूँ कि इस निष्ठुर समाज से, अपने आपको रहनुमा बतानेवाले काले दिल वाले सफेदपोशों से और तुम से नाइंसाफी करनेवाले हर एक इंसान से चुन चुन कर इंतकाम ले सकूँ, तुम्हारे अपमान का बदला ले सकूँ और पूरी दुनिया को ये बता सकूँ कि वह फिर कभी किसी साधना के सब्र की इतनी परीक्षा न ले कि उसका इंतकाम लेने के लिए उसके बेटे को शराफत का चोला ओढ़कर अपनी माँ के गुनाहगारों से उन्हीं की तर्ज़ पर बदला लेने के लिए एक गुनहगार बनना पड़े।... देखो माँ, आज मैं अपने लक्ष्य के कितने करीब हूँ।"
अपने आँसू पोंछते हुए अमर की नजर अचानक सामने खड़े बिरजू पर पड़ी। उसकी तरफ साधना का ध्यान आकृष्ट करते हुए वह बोला, "देखो माँ ! देखो तो यह तुमसे मिलने कौन आया है ?"

उसके इतना कहते ही बिरजू आगे बढ़कर साधना के चरण स्पर्श करने लगा लेकिन झुकने से पहले ही उसे दोनों कंधों से पकड़कर ढेरों आशीर्वाद देते हुए साधना बोल पड़ी, "मैंने पहचाना नहीं बेटा ! ये लड़का कौन है ?"

"अरे, नहीं पहचाना माँ ? ये अपना बिरजू है, रामलाल काका का बेटा !" अमर ने बताया।

"अच्छा ! ..इतना बड़ा हो गया है ? ..कैसे पहचानती ? जब मैं घर छोड़ कर आई थी यह मुश्किल से दो तीन साल का रहा होगा।"
फ़िर बिरजू से मुखातिब होते हुए बोली, "बेटा ! बहुत याद आती है तुम्हारे पापा रामलाल भाईसाहब की !.. वो कैसे हैं ? सब ठीक तो है न ?"

और अभी कुछ ही देर पहले दरवाजे से अंदर दाखिल हो चुके जमनादास अमर की बातें सुनकर किसी अनजानी आशंका से भयभीत हो गए। चिंता की परछाइयाँ उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थीं। वह मन ही मन अमर के इरादे को भाँप कर काँप उठे थे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि अमर के किस रूप पर भरोसा करना चाहिए। अभी कुछ देर पहले कार में बैठे अमर पर या अभी अभी साधना की गोद में सिमट कर इंतकाम लेने की बात करनेवाले अमर पर ?

क्रमशः