राज बोहरे का कथा साहित्य
प्रथम पुस्तक
गोस्टा तथा अन्य कहानियाँ
Dr के बी एल पाण्डेय
बौद्धिक विविधता और सामाजिक-सांस्कृतिक अनुभवों में व्यावहारिक संलग्नता से समग्र रूप में विकसित राजनारायण बोहरे का व्यक्तित्व उनके रचनात्मक लेखन में भी प्रतिबिम्बित होता है। उनकी सूक्ष्म दृष्टि सामान्य या विशिष्ट किसी घटना या प्रसंग को बचकर नहीं निकलने देती। वह उसे अनुभूति के स्तर पर ग्रहण और विश्लेषित करते हैं और उसे अतर्क्य न रहने देकर उसके आशयों की टोह लेते हैं। यही कारण है कि इन कहानियों में अनुभवों का विशद आयतन भी है और संवेदना के घनत्व का संकेन्द्रण भी ।
गाँव, कस्बों और नगरों के मध्य वर्गीय जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक पक्षों के यथार्थ पर आधारित इन कहानियों में विकास के नामआत्मीयता और बढ़ता सर्वदनहानता ('उम्मीद'), अराजक और भ्रष्ट व्यवस्था की कुरूप विसंगतियाँ ('हड़तालें जारी हैं', 'हड़ताल') समय के दबाव से नए और पुराने के बीच चलती द्वन्द्वात्मकता ('समयसाक्षी') । अभावग्रस्तता के आर्थिक संकट ('कुपच', 'जमील चच्चा'), जातीय और वर्गीय व्यवस्था का बदलता स्वरूप ('गोस्टा', 'समय साक्षी') और व्यक्तिगत प्रेम-प्रसंग के निराशान्त ('मृग छलना') जैसे प्रश्न अपनी पूरी पृष्ठभूमि और पूरे सन्दर्भों के साथ चित्रित हैं। 'अपनी ख़ातिर' में बेमेल विवाह के विरोध में नायिका की सजगता है तो 'मलंगी' में प्रतीकात्मक रूप से बोधात्मक निष्कर्ष है। साथ ही इन कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ का दूसरा पक्ष भी है जिसमें बिखरते सम्बन्धों और निराशाजनक स्थितियों के बाद भी उनमें कहीं आत्मीय संस्पर्श बचे रहते हैं। यही 'उम्मीद' बनते हैं और 'उजास' के प्रति हमें आशावान बनाते हैं। इन कहानियों में निहित करुणा स्वयं ही संयोजकता का कार्य करती हैं।
Dr के बी एल पाण्डेय
पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय दतिया मप्र
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द्वितीय
बाली का बेटा
इस उपन्यास में किशोरावस्था के
अंगद ही नायक के पद आसीन मिलेंगे ... । संक्षेप कथा ये है कि राम के बुरे दिनों में यानी वनवास के दौरान सीता का अपहरण हो जाता है, तब हनुमान द्वारा राम की सुग्रीव से मित्रता कराई जाती है। दोनों एक-दूसरे की सहायता का वचन देते हैं। उसी क्रम में सुग्रीव अपनी पत्नी प्राप्त करने बाली को ललकारता है तो राम उसकी सहायता कर बाली का वध कर देते हैं। बाली मरने से पूर्व अपने पुत्र अंगद का हाथ राम के हाथ में सौंप जाता है। तब राम उसे पुत्रवत् मान किष्किंधा का युवराज बनवा देते हैं। सीता की खोज में जो टुकड़ी दक्षिण दिशा में जाती है उसका नेतृत्व अंगद द्वारा ही किया जाता है जिसमें हनुमान लंका जाकर न सिर्फ सीता को खोज लेते हैं बल्कि लंकादहन भी कर देते हैं।
अंगद पराक्रमी, कुशाग्र बुद्धि और नीति-निपुण हैं, इसका पता हमें तब लगता है। जब वे राम की ओर से रावण दरबार में शांति दूत बनकर जाते । रावण द्वारा शांतिवार्ता विफल कर दिये जाने पर दोनों सेनाओं में युद्ध ठन जाता है। यहाँ भी अंगद किसी से पीछे नहीं रहता। मगर भावुक कर देने वाला और मार्मिक प्रसंग तो तब उपस्थित होता है जब राम के राज्याभिषेक के बाद अयोध्या में अंगद, हनुमान, जामवंत, सुग्रीव आदि की विदाई की बेला आती है। सब लोक खुशी-खुशी जा रहे हैं, पर अंगद जाना नहीं चाहता। राम से वह कहता है कि मरते वक्त पिता ने तो मुझे आपको ही सौंप दिया था। मै अयोध्या में आपकी शरण में रहकर घर के छोटे-से-छोटे कार्य भी करने को तैयार हूँ, मुझे अपने पास ही रख लीजिये !
पर राम चाहते हैं कि सुग्रीव के बाद किष्किंधा पर अंगद का ही राज्याधिकार हो । यही न्यायोचित है और इसी में उनके वचन की रक्षा भी वे अंगद को हठपूर्वक वापस भेज देते हैं। यकीन है वह दृश्य आप लोगों को भी भावविभोर कर देगा
"विमान उठा तो अंगद को लग रहा था कि कोई उन्हें कैद में भेज रहा है, उनका शरीर वापस जा रहा है प्राण तो अध्योध्या में ही रह गया। अंगद फूट-फूट कर रोते हुए दूर होता अयोध्या नगर देख रहे थे और उनका विमान किष्किंधा की ओर उड़ा जा रहा है।"
ए.असफल
कथाकार ,आलोचक
सम्पादक किस्सा कोताह ग्वालियर
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तृतीय
मुखबिर
चम्बल की दस्यु समस्या अभी तक प्रायः सत्यकथाओं अथवा अखबारी रिपोर्टों के द्वारा सिर्फ प्राथमिकी और विवेचना के रूप में दहशत का रोमांच रचती रही है 'भुखबिर' उपन्यास पहली बार उसे समग्र सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रचनात्मक संश्लिष्टता के साथ प्रस्तुत करता है। आज भी जातियों और जनजातियों के ऐसे उपेक्षित और अगम्य क्षेत्र हैं जो विकास की गर्योक्तियों और संदर्भ सूचियों से सत्यापन के सवाल करते हैं। जीवन यहाँ आज और अभी में जीता है, भविष्य से सर्वथा अनजान, अपरिचित। अगर भविष्य की कोई कल्पना है भी तो सिर्फ आशंका और संकट की। डाकुओं और व्यवस्था के आतंकों के बीच इस समाज की नियति मुखबिरी के लिए मजबूर है। मुखबिरी इस उपन्यास की ही त्रासदी नहीं है बल्कि आज के समाज की वह व्यापक विडम्बना है, जहाँ अस्मिता और अस्तित्व की विवशताएँ अथवा षड्यन्त्रों की साधनाएँ एक व्यापक मुखबिर चरित्र में बदल रही हैं।
चीजों को भली-बुरी और पवित्र - अपवित्र जैसी तर्कहीन निरपेक्षताओं में न देखकर राजनारायण पात्रों की पूरी आत्मकथा की खोज करते हैं। इसलिए वह अपराध को दण्डसंहिता की व्यवस्थाओं में ही न समझकर उन्हें पूरी सामाजिकता और मनोविज्ञान में परिभाषित करते हैं।
'मुखबिर' सिर्फ आतंक के पर्याय दस्यु विशेष और उसके उन्मूलन का प्रकरण नहीं है। वह हमारे विविध और बहुल समाज के एक खण्ड का ऐसा उपाख्यान है जिसे पढ़कर हम ज्ञाता के रूप में समृद्ध भी होते हैं और मनुष्य के रूप में अधिक संवेदनशील भी।
डॉ के बी एल पाण्डेय
पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय दतिया मप्र 475661
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चतुर्थ
अस्थान
लेखक इस ऊपन्यास मे युवक धरनीधर की कहानी लिख रहा है, जिसे अपनी पुरानी जिन्दगी बार-बार याद आती है कि पढ़े-लिखे युवक के सामने कौन सी स्थितियाँ आ जाती हैं कि वह सीधा और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता ही नहीं, सर्पीली गलियों में फँसकर भूलता-भटकता झूठा वेष बनाकर कोई फर्जी मनमुखी बाबा बन अस्थान के दरवाजे पर आ खड़ा होता है। अगर जोगिया कपड़े और कमण्डल लेकर निकल जाए तो वह भीख तो माँग सकता है, लेकिन बिना प्रपंच किये, बिना अस्थान बनाये, उसको स्वामी नहीं माना जा सकता। उधर घर से परेशान होकर वैरागी हुए ओमदास को कितने-कितने तप करने के लिए कहाँ के आश्रमों में शरण लेनी पड़ती है, उपन्यास इन बातों और फर्जी अस्थान आश्रमों की असलियतों पर खुलकर बोलता है। उन सम्प्रदायहीन आधुनिक सुविधाभोगी बाबाओं की असलियतों का राज़ समाज में खुल तो चुका है, लेकिन वे पेचदार तरकीबें क्या हैं, राजनारायण ने पेश कर दी हैं और यह भी कि आज के वैज्ञानिक युग में हमारे देश को किस कदर अन्धविश्वासों, कर्मकाण्डों और बाबाओं ने घेर लिया है।
लेखक ने यहाँ ब्रज और बुन्देलखण्ड के लोकजीवन से जुड़े त्योहार और गीत चुने हैं, उनकी लोकगीतों पर अच्छी पकड़ है। स्त्रियाँ गाने-बजाने और नाचने के लिए कीर्तनों, कथाओं और सत्संगों से पुरुषों के मुक़ाबले बड़ी संख्या में जुड़ती हैं और ये स्त्री-समूह बाबाओं को स्थापित करने में ख़ासे सहायक होते हैं। सैकड़ों भक्तिनें उनकी सेवाओं में लग जाती हैं। बात यह भी है कि सन्त और भगवान नारी के लिए पर पुरुष नहीं माने गये। अत: यहाँ उनको बाहर निकलने का अवसर और आजादी मिलती है।
राजनारायण ने यहाँ ऐसे कटु सत्यों की स्थापना की है जिनको लोग जानते तो हैं, मगर मानते नहीं। यह उपन्यास अपनी रवानी में आपको अपने साथ-साथ लिये चलेगा यानी अपना साथ छोड़ने नहीं देगा। राजनारायण की शोधवृत्ति और कलम यहाँ अपना लोहा मनवाती है।
मेरी ओर से बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!!
- मैत्रेयी पुष्पा
सुप्रसिद्ध कथाकार
नई दिल्ली
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