ममता की परीक्षा - 116 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 116



तेज कदमों से अमर चौराहे की तरफ बढ़ता जा रहा था।
बिरजू उसकी बात मानकर वापस घर पर लौट आया था। लगभग दस मिनट में अमर चौराहे पर पहुँच गया। वहाँ से शहर की तरफ जानेवाली कच्ची सड़क पर वह दायीं तरफ मुड़ गया। सड़क सुनसान थी। इक्का दुक्का बाइक वाले शहर की दिशा में भागे जा रहे थे।

उन सबसे बेखबर अमर निकल पड़ा पैदल ही शहर की तरफ। अभी कुछ कदम ही आगे बढ़ा होगा कि पीछे से कार के हॉर्न की आवाज सुनकर चौंक पड़ा। पलट कर पीछे देखा। कार का दरवाजा खोलकर बिरजू निचे उतर रहा था। मंद मंद मुस्कान उसके चेहरे पर झलक रही थी। उसे देखकर अमर के चेहरे पर नागवारी के भाव उभर आए।
"मैंने तुमको कहा था न बिरजू घर पर ही रुकना ! फिर ?"

"फिर क्या भैया ! यहाँ आ गया तो आप डाँट रहे हो और वहाँ रुक रहा था तो रजनी भाभी ने डाँटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ ?" कहते हुए बिरजू ने अजीब सा मुँह बनाया था जिसे देखकर अनायास ही अमर के चेहरे पर मुस्कान फैल गई।
तब तक जमनादास जी भी कार से उतर कर बाहर आ चुके थे।
"बेटा ! पहले ही देर हो चुकी है। अब से पैदल चलकर पता नहीं कब पहुँचोगे, ..और फिर पता नहीं तब तक दरोगा थाने पर रहेगा भी कि नहीं क्या भरोसा ? कार से हम कुछ ही देर में पहुँच जाएँगे और थानेदार भी समय से मिल जाएगा।.. और फिर बेटा ! हम कोई गैर थोड़े न हैं।" जमनादास ने स्वर में मिठास घोलते हुए अमर को समझाने का प्रयास किया।

लगभग आधा घंटे बाद जमनादास की कार थाने के बाहर रुकी। दरोगा विजय यादव अभी अभी थाने में पहुँचकर अपनी कुर्सी पर बैठा ही था कि थाने में किसी कार के रुकने की आवाज सुनकर चौंक पड़ा। उसकी जानकारी के मुताबिक आसपास के नजदीकी इलाके में किसी के पास कोई कार नहीं थी।.. फिर कौन हो सकता है ? कहीं बड़े साहब तो नहीं अचानक आ गए ? यह ख्याल आते ही वह हड़बड़ी में अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और तेज कदमों से थाने के मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

थाने के प्रांगण में चमचमाती विदेशी गाड़ी देखकर उसकी जान में जान आई। 'यह कमिश्नर साहब की गाड़ी तो हो ही नहीं सकती' मन में इत्मीनान कर उसने चैन की साँस ली।

फिर भी 'इतनी महँगी विदेशी गाड़ी में कोई आसपास का रहनेवाला तो होगा नहीं, और कोई शहरी रईस यहाँ अकारण ही तो आएगा नहीं। जरूर कोई बात है' उसके मन में ये विचार अभी उमड़ घुमड़ ही रहे थे कि कार प्रांगण में खड़ी कर शेठ जमनादास कार से बाहर निकले।

बिरजू और अमर कार की दूसरी तरफ वाले दरवाजे से बाहर निकले। अगले ही पल तीनों एक साथ थाने की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे।

बिरजू को पहचानकर उसने इत्मीनान की साँस ली। अब उसे पूरा माजरा समझ में आ गया था, लेकिन गाँव के इस सीधे सादे ग्रामीण के लिए ये रईस सा दिखनेवाला शख्स भला क्यों आया होगा ?' उसने इसका जवाब तलाशने की कोशिश की लेकिन फिर कुछ न समझ पाने की सूरत में वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया।

उसके पीछे पीछे जमनादास, अमर और बिरजू भी उसकी मेज के करीब पहुँच गए। जमनादास एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। दरोगा से नजरें मिलते ही बिरजू ने उसका अभिवादन किया। हौले से एक तरफ सिर झुकाते हुए बदले में उसने अपनी सवालिया नजरें बिरजू पर गड़ा दीं।

बिरजू ने अमर का परिचय कराते हुए कहा, "दरोगा साहब ! ये मेरे बड़े भैया अमर हैं। जब बसंती का हादसा हुआ था तब ये यहाँ नहीं आये थे। ये बसंती के केस में हुए फैसले से सहमत नहीं हैं, इसलिए आपसे मिलने आये हैं। हम वह फाइल फिर से खुलवाना चाहते हैं।"
इस दौरान जमनादास और अमर खामोशी से उसकी बात सुनते रहे।

बिरजू की बातें सुनकर एक पल को तो दरोगा विजय ने चौंकने का शानदार अभिनय किया लेकिन अगले ही पल उसकी मुखमुद्रा बदल गई। ऐसा लग रहा था मानो यह पहले से पता हो कि एक न एक दिन बिरजू किसी के साथ फिर से आएगा और इस केस की फाइल फिर से खुलवायेगा।
लापरवाही भरे अंदाज में उसने बिरजू को जवाब दिया, "बरखुरदार ! ये फाइल तुम्हारे अलमारी में रखी धोती नहीं है कि जब मन चाहा इस्तेमाल किया और जब मन चाहा उसे रख दिया। जाओ मियाँ, हमारा और अपना वक्त बेकार में जाया न करो। हमें और भी बहुत काम है।"

अब बिरजू के पास कोई जवाब नहीं था। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या जवाब दे, तभी अमर ने स्वर में अपेक्षाकृत नरमी लाते हुए दरोगा से कहा, "देखिये, दरोगा साहब ! आप समझ सकते हैं कि कितना संवेदनशील मामला है यह। क्या आप नहीं चाहते कि उस लडक़ी के असली गुनहगारों को उनके किये की सजा मिल पाए ?"

मेज के पार कुर्सी पर बैठा विजय लापरवाही से पहलू बदलते हुए बोला, "अमां यार काहें हमारा भेजा खा रहे हो सुबह सुबह तुम सब ? हम क्या इहाँ तुमको जज के ऊपर वाला नजर आ रहे हैं ? अरे जो होना था इस केस में फैसला हो गया। तुमको ऊपर की अदालत में अपील करने का समय मिला था अब तो वह भी खत्म हो गया। अब आप लोग जाओ हियां से ....!" कहते हुए वह उठा और दरवाजे के बाहर जाकर एक कोने में पिच से पान की पीक थूककर उल्टे हाथ से होंठ पोंछता हुआ वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया।

"का हुआ ? अब काहें तुम सब हियाँ बैठे हुए हो ?" उसने अबकी कठोरता से अपनी बात दुहराई। अब अमर को भी सूझ नहीं रहा था कि किसी अड़ियल बैल की तरह अड़े इस दरोगा को वह आखिर मनाए भी तो कैसे ? असमंजस के भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहे थे।

अब जमनादास जी से न रहा गया। अपनी जेब से अपना एक विजिटिंग कार्ड निकालकर दरोगा विजय के सामने मेज पर रखते हुए उसी के लहजे में बोले, "बरखुरदार ! अभी जो इन लड़कों ने कहा है न, उस केस की फाइल तो खुलेगी,.. और जरूर खुलेगी। तुम बस इतना बता दो कि तुम हमें सहयोग कर रहे हो कि नहीं।"
तब तक विजय ने मेज पर से वह कार्ड उठाकर देख लिया था 'जमनादास ....मैनेजिंग डायरेक्टर, जमना ग्रुप ऑफ कम्पनीज ' अब उसके चेहरे के भाव बदल गए थे।

अपनी कुर्सी से उठकर चहलकदमी करते हुए वह जमनादास से मुखातिब होते हुए बोला, "तो आप सेठ जमनादास जी हैं, जमना ग्रुप ऑफ कंपनीज के मालिक ...तब तो आप सेठ गोपालदास अग्रवाल जी को भी अवश्य जानते होंगे ?" एक सवाल लिए हुए उसकी निगाहें सेठ जमनादास के चेहरे पर टिक गई।

"बिल्कुल जानता हूँ... लेकिन उनका इस केस से क्या ताल्लुक है ? तुम कहना क्या चाहते हो ? खुलकर बोलो। नहीं तो अब तुम जब हमें जान ही गए हो तो यह भी जान गए होंगे तुम कि मैं क्या क्या कर सकता हूँ।" यह वाक्य सेठ जमनादास ने जिस अंदाज में कहा, सुनकर अमर और बिरजू सिहर गए लेकिन दरोगा पर क्या फर्क पड़ना था ? वह पूर्ववत मुस्कुराता खड़ा रहा।

क्रमशः