ममता की परीक्षा - 115 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 115



कहते हुए जमनादास की आँखों में उम्मीद की हल्की सी किरण दिखाई दी।

बगल में ही खड़े अमर की तरफ मुड़ते हुए बोले, "बेटा ! मैं तुम्हारी माँ का गुनहगार तो हूँ ही, तुम्हारे मासूम बचपन का हत्यारा भी मैं ही हूँ। सेठ गोपालदास अग्रवाल का चश्मोचिराग, जिसके आगे पीछे नौकरों की फौज होनी चाहिए थी, जिसके सिर पर माँ और पिता के सम्मिलित स्नेह की बारिश होनी चाहिए थी, अग्रवाल इंडस्ट्रीज के हजारों कर्मचारियों की दिल से निकली दुआएं जिसका जीवन सुखद करनेवाली थी उसका बचपन यहाँ गरीबी और अभावों में बीता इस सबका कारण मैं ही हूँ। ...काश, उस दिन गोपाल को मैं अपने संग शहर न ले गया होता।
उस दिन जब आखिरी बार मास्टर जी हताश निराश लुटे पिटे से मेरे घर से निकले थे तब से लेकर आजतक मैं खुद का सामना आईने में भी नहीं कर सका हूँ। गिर गया था मैं खुद की नजरों से और आज तो अपनी बेटी की नजरों से भी गिर गया हूँ, इतना गिर चुका हूँ कि अब मेरी जिंदा रहने की इच्छा खत्म होते जा रही है। ... मुझे हक तो नहीं है, लेकिन फिर भी तुमसे हाथ जोड़कर मेरी विनती है कि रजनी को अपना लो !
रजनी भोली है, मासूम है और हर तरह से तुम्हारे लायक है अमर बाबू ! मेरे गुनाहों की सजा मेरी बच्ची न भुगते तुमसे यही निवेदन है अमर बाबू !" कहते हुए जमनादास अमर के कदमों में झुक गए थे लेकिन तुरंत ही पीछे हटते हुए अमर ने उनको झुकने से पहले ही थाम लिया था अपनी बाहों में।

इस भावुक माहौल में अमर की आँखें भी नम हो गई थीं। धीरे से बोला, "सेठजी, कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली ....ये कहावत झूठ नहीं, सच है। अब आप सामने ही देख लीजिए। कहाँ आप और कहाँ मैं ? हमारा क्या मेल ? न शानोशौकत न हैसियत न रुतबा ! ये तो वर्तमान है। जो गुजर गया वह भी चीख चीख कर हमें यही अनुभव करा रहा है, हमें अहसास करा रहा है कि हमें शादी ब्याह या रिश्तेदारी भावनाओं में बहकर नहीं बल्कि काफी सोचसमझकर करनी चाहिए। भावनाओं में बहकर होने वाली शादी का वही भविष्य होता है जो मेरी माँ का हुआ... जमाने के दस्तूर और उँच नीच की बेड़ियों से पार पाना आसान नहीं।.. मुझ जैसे संतान का दुर्भाग्य तो देखिये जिसके पिता तो हैं लेकिन उनकी शक्ल नहीं देखी जबकि जीवन के पच्चीस बसंत देख चुका हूँ। सेठजी, यह रजनी के जीवन का सवाल है। आप भावनाओं में बहकर फैसला न करें।"
कहने के बाद उसने एक नजर रजनी की तरफ देखा जिसका चेहरा आँसुओं से तरबतर था। वह अधिक देर तक उसकी इस हालत को नहीं देख सका और उसकी तरफ से नजर घूमा लिया।

अगले ही पल सेठ जमनादास जी को देखते हुए वह बोला, "आप बैठिए, रजनी को सँभालिये ! मुझे एक जरुरी काम से जाना है। कब से तैयार होकर बैठा हूँ।"

इतनी देर से ख़ामोश खड़ा बिरजू बोल पड़ा, "हाँ भैया, जल्दी चलिए ! देर हो गई तो क्या पता वह दरोगा मिलेगा भी कि नहीं।"

दरोगा से मिलने की बात सुनते ही जमनादास जी बोल पड़े "दरोगा ? दरोगा से मिलना है ?.. क्यों ?"

चौधरी रामलाल ने जल्दी जल्दी जमनादास जी को संक्षेप में बसंती की आत्महत्या के बारे में बता दिया।
पूरी बात सुनकर जमनादास जी बोले, "अमर बेटा ! तुम भले चाहे जो सोचो, लेकिन मेरा मानना है इंसान और इंसानियत से बढ़कर धन संपत्ति नहीं हो सकती...!"

उनकी बात सुनकर गमजदा दिख रहा अमर अनायास ही मुस्कुरा पड़ा। कोई और वक्त होता तो शायद वह ठहाका लगाने से भी नहीं रोक सकता था खुद को ....लेकिन मात्र मुस्कुरा कर ही रह गया और जमनादास की बात बीच में ही काटते हुए बोला, "मैं आपको और आपके विचार को अच्छी तरह जानता हूँ सेठ जी !"

हतप्रभ जमनादास जी गिड़गिड़ा उठे, "नहीं नहीं बेटा ! तुम्हें शायद कोई गलतफहमी हो रही है।"
"कोई गलतफहमी नहीं हुई है अमर को पापा !" खामोशी को चीरती गूँजनेवाली आवाज अबकी रजनी की थी।
"अमर सही कह रहा है। जिस इंसान को अपनी बेटी की जिंदगी से दूर चले जाने के लिए आप पचास लाख रुपयों से भरा बैग दे रहे थे, आप चाहते हैं कि वह इंसान आपको इंसानियत का देवता कुबूल कर ले ? वाह, पापा वाह !.. लेकिन गलती आपकी भी नहीं है। आपको क्या पता कि मुझे ड्राइवर श्याम अंकल ने वह तस्वीर दिखा दी है जिसमें आप ने अमर को पचास लाख रुपये देने की पेशकश के साथ ही बड़े प्यार से गायब करा देने की धमकी भी दे डाली थी। श्याम अंकल ने मुझे सब कुछ सही सही बता दिया है और इस वाकये ने मेरे दिल में अमर के लिए सम्मान और प्यार और बढ़ा दिया है। अमर की जगह आपकी तरह कोई इंसानियत का पुजारी होता तो वह आपकी बैग लेकर अवश्य आपकी बात मान लेता और आपको सलाम करता, लेकिन वह और कोई नहीं, वह तो अमर था ..जिसने पचास लाख की भारीभरकम रकम की लालच व आपकी धमकी के आगे भी घुटने नहीं टेके।" कहते हुए रजनी क्रोध से तमतमा गई थी।
चौधरी रामलाल ने बीचबचाव करते हुए रजनी को समझाया, "रजनी बेटी ! तुम पढ़ी लिखी समझदार हो। तुम्हें अपने पापा से इस लहजे में बात नहीं करनी चाहिए। उन्होंने जो भी किया तुम्हारी बेहतरी के लिए किया।"

"अच्छा, ..तो अंकल आप भी समझते हैं कि हमारे बीच पैसे की दीवार खड़ी करना मेरी बेहतरी के लिए था ?" रजनी चौधरी रामलाल से मुखातिब होते हुए बोली, "यदि आपके इसी तर्क को सही मान लिया जाय तो फिर अमर की माताजी साधना जी के साथ अन्याय कहाँ हुआ ? यहाँ भी तो अमर के पापा की बेहतरी ही चाही होगी अमर के दादा ने।..नहीं अंकल नहीं ! दो प्रेमियों को रोकने के लिए की जानेवाली इन घटिया हरकतों को कभी भी अपनी संतान की बेहतरी का नाम देकर उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। इसे स्वार्थ वश अपने दंभ व रईसी तथा ताकत का भौंडा प्रदर्शन अवश्य कहा जा सकता है जो मेरे पापा ने किया है।.. चलिए, एक पल को मान भी लेते हैं कि ये हमारी बेहतरी के लिए था, लेकिन कैसे ?.. मैं तो अमर के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती ...!"

चौधरी रामलाल के पास रजनी के तर्कों का कोई जवाब नहीं था लेकिन फिर भी उन्हें रजनी का जमनादास से इस लहजे में बात करना नागवार गुजरा था। उसे समझाने का प्रयास करते हुए उन्होंने कहा, "बेटा, अभी तुम बहुत छोटी हो ! उम्र ही क्या है तुम्हारी ? जब तुम बड़े होकर माँ बाप बनोगे तब तुम्हें ..."

जमनादास ने उन्हें बीच में ही रोकते हुए कहा, "इन्हें मत रोकिए भाईसाहब ! मैं इन दोनों का ही गुनहगार हूँ और दिल से चाहता हूँ कि दोनों मुझे बोलकर अपने दिल की भड़ास निकाल लें।"

फिर अमर की तरफ घूमते हुए बातों का रुख दूसरी तरफ मोड़ने का प्रयास करते हुए बोले, "अमर बेटा ! चलो, कहीं बातों ही बातों में ये वक्त न बित जाए ?"

"आप कहाँ परेशान होइएगा ? मैं बिरजू के साथ जाकर यह काम कर लूँगा। बसंती मेरी भी बहन थी और मैं उसको इंसाफ दिलाने के लिए अकेले ही काफी हूँ।" कहने के साथ ही अमर चल पड़ा बिरजू का हाथ थामकर चौराहे की तरफ।

उसे जाते देखकर जमनादास के चेहरे पर दर्द की हल्की सी परछाईं तैर गई। एक और प्रयास करते हुए जोर से बोले, "बेटा, ठीक है ! जैसी तुम्हारी मर्जी ! तुम जैसा चाहो करो। मैं तुम्हारे काम के बीच में कुछ नहीं बोलूँगा। बस मुझे अपने साथ रहने दो। कम से कम आने जाने में तो आसानी हो जाएगी मेरी कार की वजह से। पैदल इतनी दूर कैसे जाओगे ? पहले ही इतनी देर हो चुकी है।"

अमर के साथ चलते हुए बिरजू जमनादास की बात सुनकर ठिठक गया। अमर का हाथ पकड़कर उसे रुकने का इशारा करते हुए बोला, "भैया ! सेठ जी सही तो कह रहे हैं। उनकी कार से फटाफट जाकर आ जाएँगे.. और वैसे भी आज पता नहीं क्यों मुझे थकान सी महसूस हो रही है। इतना दूर मुझसे नहीं चला जायेगा भैया।" कहते हुए बिरजू ने बुरा सा मुँह बनाया।

उसका हाथ झटकते हुए अमर ने कहा, "हाँ !.. बहुत दूर है यहाँ से थाना और तू थक जाएगा। एक काम कर तू वापस चले जा। मैं फटाफट जाकर आता हूँ.. और तू यहाँ रहेगा तो रजनी का भी मन लगा रहेगा।..नहीं तो अकेली बोर होती रहेगी।"
कहने के साथ ही अमर बिरजू से हाथ छुड़ाकर तेज कदमों से चौराहे की तरफ बढ़ गया।

क्रमशः