ममता की परीक्षा - 114 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 114



आँखों से छलक पड़े आँसू अपनी हथेली से पोंछ कर सुर्ख हो चुके नजरों से जमनादास को घूरते हूए रजनी सर्द स्वर में बोली, "ओह, तो ये है पूरी कहानी। अब समझी कि आपको पैसे का गुरुर क्यों है ? प्यार के लिए आपके दिल में जगह क्यों नहीं है ? दो प्यार करनेवालों को आप कामयाबी से अलग कर चुके हो, और जब किसी का कोई एक दाँव कामयाब हो जाता है तो वह इंसान हमेशा उसी दाँव को आजमाता है। आपने भी वही किया। पहले अमर के बाबूजी और साधना को अलग करके दो प्रेमियों के बीच एक मजबूत दीवार खड़ी करने में कामयाब हो चुके हैं आप...और इसीलिए ..बस इसीलिए अब आपने वही चाल मेरे और अमर के बीच दुहराने की कोशिश की। आपने सोचा होगा कि जिस तरह अमर के मम्मी पापा को अलग अलग करके अपने मकसद में कामयाब हो गए, अमर और रजनी को भी इसी तरह अलग अलग किया जा सकता है... लेकिन आप शायद भूल गए कि इस पूरे ब्रम्हांड को चलानेवाली कोई एक महान शक्ति भी है जिसे लोग विभिन्न नामों से पुकारते हैं। अपनी अपनी जानकारी के अनुसार उसे जानने का दंभ भरते हैं, लेकिन असल में उसकी माया कोई नहीं जानता। वह किसी को नजर नहीं आता है लेकिन उसकी नजरों से कुछ भी छिपा हुआ नहीं रहता। वह सबके कर्मों के अनुसार सबके साथ इंसाफ करता है। कहते भी हैं न कि 'ऊपर वाले के यहाँ देर है अँधेर नहीं ...! देखा आपने, सचमुच उसके यहाँ देर है लेकिन अंधेर नहीं ! जिस तरह आपने साधना और गोपाल को अलग थलग कर दिया था और जब साधना ने बिना पति के अमर को जन्म दिया था तब साधना के पिता के दिलोदिमाग पर क्या गुजरी होगी वही अहसास कराने के लिए आज उस परम शक्तिमान ने आपको साधना के पिता की जगह पर और मुझे साधना की जगह पर लाकर खड़ा कर दिया है। अब तो आपको बखूबी अहसास हो रहा होगा कि जब किसी की कुँवारी बेटी माँ बनती है तब उसके दिलोदिमाग पर क्या बीतती है ? हालाँकि साधना और गोपाल के मामले में तो दोनों शादीशुदा थे यानी समाज में मान्यताप्राप्त, लेकिन आपके पास तो संतोष व्यक्त करने के लिए वह बहाना भी नहीं है।.. अभी तो मेरी शादी भी नहीं हुई है। मुझे गर्व है अमर की माताजी साधना जी पर जिन्होंने आपके लाख जुल्मोसितम सहते हुए भी हँसते हँसते ममता की परीक्षा दी और अपने जीवन में सफल रहीं। पूरी जिंदगी उन्होंने आँसुओं के साथ काट दी होगी, लेकिन उनके ये आँसू व्यर्थ नहीं जाएँगे। उनके आँसुओं की एक एक बूँद का हिसाब आपको देना होगा।... सुना आपने ! उनके आँसुओं के एक एक बूँद का हिसाब आपको ही देना होगा क्योंकि उनकी बसी बसाई दुनिया यदि कोई उजाड़ने वाला था, तो वो आप थे पापा ! छि .......मुझे तो आपको पापा कहते हुए भी घृणा हो रही है।"
कहते हुए आक्रोश के बीच ही वह बिलख पड़ी, " मैं भी कितनी अभागी हूँ कि मैं ऐसे बाप की बेटी हूँ जिसके हाथ उसके मित्र की मित्रता के खून से रंगे हुए हैं। एक विश्वासघाती मित्र की बेटी हूँ मैं जिसने अपने मित्र के विश्वाश को चकनाचूर करके उससे गद्दारी की है, उससे उसकी आत्मा को जुदा किया है। चाहे पूरी दुनिया आपको माफ कर दे पापा, लेकिन मैं आपको जीते जी माफ नहीं कर पाऊँगी। कभी नहीं कर पाऊँगी आपको माफ ....!"
बिलखती हुई रजनी बेतहाशा खाँसने लगी थी। अचानक उसकी कलाइयों के ऊपर लगी सुई के निशान पर अमर की निगाह पड़ी। आगे बढ़कर उसे संभालते हुए उसने सहारा देकर उसे सामने ही बिछी खाट पर बिठा दिया लेकिन चौधरी जी और अन्य लोगों को खड़े देखकर वह स्वतः ही उठ खड़ी हुई।

अब तक ख़ामोश खड़े हतप्रभ से जमनादास की आँखें पश्चात्ताप के आँसुओं से छलक पड़ी थीं। नजरें नीचे झुकाए हुए ही उन्होंने धीरे से कहा, "तुम ठीक कह रही हो बेटी ! शायद मेरा गुनाह माफी के काबिल है भी नहीं लेकिन इतना अवश्य कहुँगा कि अपने जान से प्यारे दोस्त के साथ गद्दारी मुझसे भूलवश हो गई थी। उसके साथ ऐसा कुछ भी करने की मंशा कभी नहीं थी। उस दिन यदि मैं जरा भी अंदाजा लगा पाया होता गोपाल की माँ की मंशा के बारे में तो शायद मुझसे यह गुनाह नहीं होता। गोपाल को शहर ले जाने के पीछे मेरी मंशा सिर्फ इतनी ही थी कि उसकी बिमार माँ से उसे मिलवा दूँ ताकि उसकी तबियत सुधर जाए जैसा कि डॉक्टरों ने बताया था, लेकिन मुझे क्या पता था कि यह मेरे और मेरे यार गोपाल के साथ कितना बड़ा छल था। इस ठगी का अहसास तो मुझे तब हुआ जब गोपाल को इलाज के नाम पर अमेरिका भेज दिया गया और मेरे लाख पूछने पर भी मुझे उसके बारे में कुछ नहीं बताया गया। सच कहता हूँ हमारी दोस्ती एक मिसाल थी लोगों के लिए और उसके लिए मैं कितना तड़पा हूँ ये मेरा दिल ही जानता है लेकिन क्या कर सकता था ? गोपाल पूरी तरह से उनकी चंगुल में फँस चुका था और मैं बेबस लाचार महसूस कर रहा था खुद को बिना किसी जानकारी के।"
"तो आप कम से कम साधना जी को तो इस हालात के बारे में समझा सकते थे। उनसे मिलकर उन्हें दिलासा तो दे सकते थे। शायद मास्टरजी को वह सदमा नहीं लगता जिसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई थी।" रजनी ने बिफरते हुए सवाल किया।

"तुम ठीक कह रही हो बेटी ! मास्टर जी को गोपाल के अमेरिका शिफ्ट हो जाने की खबर मैंने ही दी थी, लेकिन तब मुझे यह अंदाजा नहीं था कि यह खबर उनके लिए जानलेवा साबित हो जाएगी। कई बार तैयार हुआ था मैं साधना से मिलने उसके गाँव जाने के लिए लेकिन हर बार मेरी हिम्मत जवाब दे गई। मैं खुद में इतनी हिम्मत नहीं जुटा सका कि उसकी नजरों का सामना कर सकूँ। इसी उहापोह में देखते ही देखते पाँच साल गुजर गए और फिर एक दिन मैं निकल पड़ा उसकी गाँव की तरफ। जब यहाँ पहुँचा था मैं वो जो चौराहे पर पीपल का पेड़ है वहाँ आकर मास्टरजी के घर का रास्ता भूल गया।
वहीं बगल में डॉक्टर बलराम के दवाखाने के सामने खड़े कुछ लोगों से मास्टर जी के घर का रास्ता पूछा तब पता चला कि मास्टर जी को गुजरे हुए तो लगभग पाँच वर्ष हो गए थे और पिछले कुछ दिनों से साधना भी अपने बेटे के साथ गायब थी। उन दोनों के बारे में किसी को कुछ नहीं पता था। वहीं चौराहे पर कई लोगों से पूछा था मास्टरजी के बारे में लेकिन सबने यही बताया, और फिर थक हार कर मैं लौट आया था वापस शहर। इतनी बड़ी दुनिया में मैं बिना पता ठिकाने के उसको कहाँ खोजता ? लेकिन ऊपर वाले का खेल भी कितना निराला है। उस दिन अमर के कमरे में साधना की फोटो दीवार से टंगी देखकर सच कहता हूँ, मुझे बड़ी निराशा हुई थी। मेरी एक आस टूट गई थी उस दिन, जो मैंने लगा रखी थी कि जीवन के किसी न किसी मोड़ पर साधना से मेरी मुलाकात अवश्य होगी।..क्योंकि तब तस्वीर देखकर मुझे यह गलतफहमी हो गई थी कि अब साधना शायद जीवित नहीं रही, लेकिन यहाँ पहुँचकर उसके बारे में जानकर मुझे बड़ी खुशी हो रही है कि वह अब भी हमारे बीच हैं और स्वस्थ है। सचमुच ईश्वर कितना दयालु है। कम से कम अब उस देवी के चरणों में अपना सिर रखकर मैं उससे अपने गुनाहों की माफी तो माँग लूँगा। मुझे नहीं लगता कि वह मुझे माफ कर पायेगी लेकिन फिर भी उससे मिलकर उससे माफी की दरकार मुझे वर्षों से है। मेरे दिल को सुकून मिल जाएगा उससे माफी माँगकर।"
तभी चौधरी रामलाल जी बीच में ही बोल पड़े, "जी छोटा न करो सेठ जी ! मैं साधना को अच्छी तरह जानता हूँ। वह कभी किसी को दुःखी नहीं देख सकती। आपको माफी माँगनी भी नहीं पड़ेगी क्योंकि वह सचमुच देवी है, त्याग और ईमान की देवी। आज उसके आश्रम में हजारों बेसहारा यतीम महिलाएं उसके स्नेह की छाया में सुखी व सुरक्षित हैं।"
जमनादास जी आगे बोल पड़े, "सही कह रहे हो भैया ! आप भले मुझे माफ़ न कर पाओ और सेठजी कहना न छोड़ पाओ लेकिन आपको चौधरी जी कहकर मैं आपको खुद से दूर नहीं कर सकता। मैं जानता हूँ साधना को ! हम दो साल सहपाठी रहे हैं और एक दूसरे को बड़े करीब से जाना समझा है। सचमुच वह लाखों में एक है। खैर, जो हुआ सो हुआ। बिते हुए वक्त को तो वापस नहीं लाया जा सकता लेकिन मेरा वादा है आपसे बहुत शीघ्र ही मैं साधना को उसका खोया हुआ मान सम्मान वापस दिलाऊँगा।"

"सचमुच ! क्या यह संभव है ?" चौधरी के चेहरे पर हैरानी मिश्रित खुशी छलक पड़ी।

"हाँ ! बिल्कुल संभव है और ये मैं करके रहूँगा।" जमनादास ने दृढ़ निश्चय के साथ चौधरी को जवाब दिया।

क्रमशः