डेफोड़िल्स ! - 6 - अंतिम भाग Pranava Bharti द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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डेफोड़िल्स ! - 6 - अंतिम भाग

66 - रुलाते क्यों ?

क्यों रुलाते हो

हँसते हुए चमन को

चमेली सी हँसी में

घोलते हो

दुष्ट काले इरादे

पकड़ते हो नहीं हो हाथ

जो काँपते हैं

विश्वास की

भूमि पर रोपते हो कंटक

क्या पाते हो

जीव ब्रह्मांड का कण

मन को कैसे बहलाते हो

तुरुप के इक्के पर

सारी दुनिया को

हाँक ले जाते हो !!

 

 

67 - जिजीविषा

हाँ,ज़िंदा हैं

सारे चाँद –तारे

ज़िंदा हैं मुहब्बत के कतरे

इधर-से उधर बहकती चाँदनी

गुमसुम से तुम

क्यों ?

हैं ज़िंदा तो

प्रमाण दे ज़िंदगी का

मुस्कुराते चेहरों के बीच

खिलते कमल सा

तुम्हारा मुखड़ा पुकारता है

बनाता है

एक ऐसी तस्वीर

पुकारती है

मुस्कुराते होठों से

देती है स्वाद

मीठी गोली का

जिसमें खटास भी है भरी !!

 

 

68 - हमसफर

जब से अवतरित हुई हूँ

कितने-कितने हमसफर

मिले हैं मुझे

सहलाया है

बांटा है प्यार

हरेक ऋतु में

दिया सब कुछ आवश्यकतानुसा

इसीलिए जी सके हैं

गाते रहे मल्हार

उम्र की इस कगार पर भी

बहुत हमसफर

बाँट रहे, नेह, स्नेह

भीग-भीग जाती हूँ

मन में उनके लिए

एक प्यारा सा कोना तो पाती हूँ !!

 

 

69 - प्यार तुम्हारा

पाला था एक

प्यारा सा तोता

प्यारी सी बिल्ली

जिसके एवज में

मिली थी मुस्कान

बड़ी थी नादान

साँपों का ज़हर

नहीं पाई पहचान

कैसी बनी रही

सरल और नादान

ज़माना कहता है

समझाता भी है

अच्छे-बुरे की

कर ले पहचान

महसूसती हूँ, सभी अच्छे तो हैं !!

 

70 - बीच में कहीं

आकांक्षाओं के बीच में कहीं

बंधी थी डोर

सहलाया था उसे

हर नई भोर

महके रहे फूल

तन्हाइयों के

बाज़ार में

इस बौखलाते संसार में

यदि कुछ था तो

वह था गुनगुनाना

ओ धरती ! वही है सबका खज़ाना !!

 

71 - वृक्षारोपण

मैंने

अपने मन के

आँगन में

रोप लिए कुछ वृक्ष

नाम था

क्रोध, ईर्ष्या,अभिमान,गुस्ताखी

हर रोज़ सींचा उन्हें

कटाई की,छंटाई की

वे बढ़ते ही तो गए –

एक और वृक्ष था

नन्हा सा,मुन्ना सा

छोटा सा

ध्यान ही नहीं गया उस पर

जब ध्यान गया

उसे सूखता पाया

वह प्यार का,स्नेह का था

अब मैं उसे पनपाने का

फैसला कर चुकी थी!!

 

72 - पहचान लूँ तो

बड़ा प्यार किया सबसे

पुचकारा, बहलाया

मैं सिर पर ही

चढ़ आया

छोड़ दी दोस्ती उनसे

कद मेरा ऊँचा और ऊँचा

होने लगा

मैं ताड़ के वृक्ष सा

अपने आपमें ही

जैसे खोने लगा

स्वयं को जैसे पहचानने

लगा,राजा बन गया हूँ

सबसे ऊँची गद्दी पर बैठ

दिखाने लगा नखरे

कुछ ही दिनों में

मैं हो गया था

एकाकी !!

 

73 - चमक-चमक

आँखों में थी चमक भरी

ज्यों देख के

किसी खिलौने को

भर जाती है

बच्चे की आँखों में

बढ़ते रहे पैर

अंधियारे में

चलते रहे

न जाने किस ओर

नन्ही थी

कुछ घबराई

फिर सकुचाई

“पापा ! वो क्या ?”

अचानक देख चमक कुछ

घबराई सी बोली

इतने में झुंड

आ गया उसके करीब

उछलने लगी वह

चमक-चमक

कभी होते अंधियारे

कभी उजियारे

कर देते रोशनी

जो भर देती

आँखों में आशा का दीप जला देती

“पटबीजना” पापा ने बताया

उसे गले से लगाया

भागने लगी वह जंगल में

पीछे-पीछे उसके

करती चमक-चमक !!

 

74 - रफ़्तार

सहलाते हुए उसके हाथ

अचानक हो गए कंपित

मशवरा करती

दो सीपियाँ

गाने लगीं भ्रमर-गीत कोई

प्रेम में बोए क्षणों ने

रेतीले सादर-तट पर

भींच ली मुट्ठियाँ

उसका था इंतज़ार

दिल पर होता रहा प्रहार

गा रहा था कोई

सजन रे झूठ मत बोलो

और लहर शांत हो गई!!

 

 

75 -

इन शब्दों में

मैं हूँ

तू भी इनमें

शब्दों का संसार

शब्द ब्रह्म हैं भीतर इनके

सारा ब्रह्म अपार

ब्रह्मांड ये मुझसे, तुझसे

इसको सदा सँभाल

न हो पाए बाल भी बाँका

ऐसी डगर निकाल

जब तक धरती और अंबर हैं

तब तक है ये जीवन

तब तक स्नेह,प्रेम फैला लें

यही सभी को अर्पण !!

 

डॉ’.प्रणव भारती

pranavabharti@gmail,com