36 - मेरे पारिजात !
पारिजात !
मैंने लगाया कितने जतन से तुम्हें
प्रतीक्षा की
और अचानक एक दिन
तुम्हें देखा, मुस्कुराते हुए
हरियाली के बीच
तुम बिना मेरे स्पर्श के बिछुड़ गए थे
डाल से
किस कमाल से !
मुझे मिले कुल चार
माया,ममता,स्नेह और प्यार
पता लगा धीमे-धीमे
सूरज के बाद उगते हो तुम
पूरी रात महकते, चहकते हो तुम
क्या सजनी से बातें करते हो ?
बाँटकर उसको प्यार
क्या करते हो मनुहार ?
पारिजात ! तुम करते हो उससे
अभ्यर्थना,आने वाली रात में मिलने की
इसीलिए जुदा होते हो शायद
टपक जाते हो डाल से
दुखी हो जाते हो, जाने न मिले हो
कितने साल से
पारिजात ! कुछ तो रखो विवेक !!
37 - समर्पण
एक परिचित संबंध का आगाज़
जिसका है जुदा अंदाज़
जो कानों में कोयल सी कूकता है
मिश्री सी घोलता है
बढ़ा देता है, धड़कनों की रफ्तार
सफ़र है
आदि से अंत
हो एक फकीर का इश्क या भगवंत
तेरी आगोश में
पनाह है
जीने-मरने की चाह है
आए हैं तो जाना है
तू ही अपना ठिकाना है
तेरी पनाहों में आने का बहाना हो
इस ब्रह्मांड का बस
एक ही ठिकाना हो -!!
38 - इश्क !
वो एक पगडंडी थी
जो फँसी थी बादलों के बीच
नीचे झाँकते हुए
घबराहट के मारे हम सब
नहीं,शायद मैं ही
गाड़ी में से झाँक
तलाश रही थी
मार्ग कहाँ है ?
अवरुद्ध था बादलों में
एक छूअन थी जो
जगा रही थी
कुछ ऐसे भाव
मानो पुकार रही थी
स्वर्ग के दरीचे से
ऊटी में थी
जागी थी या सोई थी
झटका सा लगा
ये अद्भुत संसार था
जैसे कोई मनुहार था
न कोई झंझावात था
न कोई प्रहार था
बस,इश्क था
प्रकृति का सुखद
संसार था !!
39 - सूरज से तुम!
ओ गुलमोहर !
तुम्हारी प्रतीक्षा में
कितने दिन,कितनी रातें
काटी हैं
आज जब तुम्हें देखा है
महसूस हुआ
बिखर गई है
सूरज की रोशनी
मेरे दिल के आँगन में
हो आई स्मृति
उस बचपन की
यकायक कौंध गए दिन
लोदी टोंब में बच्चों की टोली के साथ
साइकिलों को भगाते हुए जाना
न जाने कितनी संख्या में
लॉन की मिट्टी को कुछ ऊपर
उठाकर लगाया गया था तुम्हें
तुम्हारे मित्रों के साथ
मित्रों की संख्या
कितनी ज़्यादा थी तुम्हारी !!
कभी गिन तो नहीं पाई लेकिन
मेरे जैसे ही थे ढेरों
तुम्हारी जड़ों के स्थान से
एक ढलाव सा बनता था
साइकिलों को पटक
लॉन में भाग जाना
उस ढलवाँ मिट्टी से बने
कुछ ऊँचे स्थान पर
जाकर लेट जाना
और एक–दूसरे का हाथ पकड़कर
ढलान की हरी,भीनी घास पर से
फिसलते हुए ऊपर से तुम्हारा स्पर्श पा
वहीं थम जाना -
आज भी थमा हुआ है समय
लाल सूरज के स्पर्श की रोशनी से !!
40 - महकते तुम !
मेरे कमरे की खुली खिड़की से
तुम्हारे जिस्म की सुगंध
कुछ ऐसी मेरे भीतर
कर जाती है प्रवेश
जैसे हो कोई
दरवेश !
मेरे द्वार पर
कर रहा प्रतीक्षा
रहा पुकार
हतप्रभ रह जाती हूँ
कुछ सकुचाती हूँ
जीवन के इन लम्हों में
झूमने को करता है मन
डोलता,सिहरता तन
जब,तुम मेरे भीतर समाने लगते हो
ओ ! मेरी रातरानी के वृक्ष
तुम रात में गुनगुनाने लगते हो
मुझे बाध्य कर देते हो !!
मैं समाँ जाऊँ भीतर तुम्हारे
या
तुम मेरे
एक ही तो बात है !
अपनी कहाँ
पहली मुलाक़ात है !!
41 - सरूर तेरा
सरूर बनकर छा जाते हो
चुप हो जाऊँ कभी
घबरा जाते हो
कैसा प्रेम है
जो बोलता है चढ़कर
मेरी आँखों में
साँसों में
धड़कन में
कण-कण में
बसे हो तुम
सकुचाते हुए
लिखती हूँ
प्रेम भरी पाती
क्या तुमने
बाँची है कभी
या यूँ ही
करते रहते हो दिल्लगी
मैंने भिगोया है ख़ुद को
तुम्हारे इरादों में
जब नहीं आ पाते तुम
बसे रहते हो मेरी
फरियादों में
तलाशती रहती हूँ
तुम्हारी खुशबू को
अचानक पकड़ लेती हूँ
आँखों में मूँदकर
विश्वास दिलाती हूँ
ख़ुद को
बसी रहना मेरी साँसों में
ओ ! मेरी बरखा की
पहली खुशबू !!
42 - चोर कहीं के
आज तुम इधर से निकले हो ?
मेरी प्रतीक्षारत आँखों को धोखा देकर
निकल भागे हो
मानो या न मानो
एक अजीब सिहरन है
हाथों की ऊंगलियाँ
लगी हैं चटखने
जैसे दादी माँ
बैठी चटकाती रहती हैं
अपने हाथों की झुर्रीदार ऊंगलियों को
चट–चट
न चटकने पर पुकारती हैं
देखना, जरा चटका दे
कुछ भारी हो रही ऊंगलियाँ
चटकने लगे हैं अमलतास
मेरी ऊंगलियाँ चटका दे न
पा जाऊँ
पल भर को चैन !!
43 - क्यों बंजर ?
बादल मन के भीतर घुमड़ें
फिर भी लगता है मन बंजर
साँसें रुक-रुक चलतीं
चुभ जाता है कोई खंजर
रूप धरा का अति सुहाना
ले जाता मेरा मन खींच
उजड़ न जाए,आँधी से ये
ये ही तो है पहली प्रीत
हरियाली सी धारा
बहती रहे धरा पर
और सभी के चेहरों पर
बरसें मुसकानें
संबंधों की सुंदर पोटल
बंधी रहे और झूम
उठें ये मिलकर
धरती अंबर
चहक-महककर !!
44 - अस्तित्व
मुझे लगता है
मैं हूँ एक बरगद का विशाल वृक्ष
जिसके साए में न जाने कितने
पंछी बसेरा लेने के लिए आतुर हैं
पंछी ही नहीं
वो जो मज़दूर
तोड़ रहा है पत्थर
वो जो मज़दूरनी झुला रही है
अपने शिशु को
उन दो टहनियों के बीच
फटी सूती साड़ी से
बाँधकर कपड़े का झूला
वो जो राहगीर जा रहा था
सड़क पर
बैठ गया है कुछ क्षण
मेरी छांव तले
मैं उन सबका बन
पिता
अपने कर्तव्य का
कर लेता हूँ निर्वाह
मुझे, बचाए रखना- !!
45 - बोलती सी तू !
छूने चली हूँ उन घटाओं को
जो बिगाड़ रही हैं जुल्फें
उस हसीन चेहरे की
लुनाई से भरे चेहरे पर
मुस्कान है ताज़ी
ये घटाएँ लगती हैं, कुछ बोलती सी
कहती हैं जैसे आ रही हूँ
अपनी प्रेमिका से मिलने
मेरी धरती ! सूखी न रहना कभी
मैं तुझ पर अपनी मुहब्बत
बरसाती रहूँगी
तू, आने देना मुझे
समो लेना अपने अंक में
मेरे बिना तू कुछ नहीं
मैं कहाँ, किसके अंक में जाऊँगी
धिक्कारोगे मुझे तो
उड़ जाऊँगी फिर से
बदरी हूँ मैं, लुकती-छिपती सी !!
46 - ये खूबसूरत आवाज़ !!
खोली चिड़ियों की चहक ने नींद
मैं बौराई सी देखती रह गई
तुम्हें भी आभास हुआ क्या?
इनके बिना जीवन की
खूबसूरती छिपी हुई थी
न जाने कहाँ दुबकी हुई थी
भोर की लालिमा से लेकर
रात्रि के अंधकार तक
बहुत कठिन था समय
लेकिन उस समय में भी
तुम्हारी चहचहाहट ने
एक आस, एक विश्वास
एक प्रकाश का दर्पण
बचाए रखा था साबुत -
बचाए रखना होगा
मन में बहती
सुनहली झील को
तेरा मन दर्पण कहलाए!!
47 - देखो तो
उस नीले फूल ने
बहलाया मुझे
बहकाया भी
फुसलाया
बार-बार महकाया
मेरा अंग-अंग
फिर न जाने कहाँ जा छिपा
हरी पत्तियों के बीच
दिल की धड़कनों को
संभालते हुए
मैं तलाशती रही
उस नन्हें से जामुनी से
नीले से, कोमल फूल को
अचानक
दृष्टि पड़ी
पतियों के झुरमुट में
कर रहा था
नर्तन !!
48 - परिभाषा
दोस्त तो बहुत हैं मेरे
लगाव की भाषा दिलों ने जानी है
सामने वाली चिड़िया ने
सुनाई अपनी कहानी है
देखा,कितने-कितने मोटे आँसू से
नहा रहे थे उसके
नन्हें–नन्हें गाल
जैसे किसी गाने पर बज रही हो ताल
जहाँ भी जाती हूँ
चले आते हैं दोस्त
कहते हैं मैं प्यारी हूँ सबकी
दुलारी हूँ सबकी
ऐसा है यदि तो
नहीं रखता कोई क्यों कटोरे में पानी
कुछ दाना भी मेरे लिए ?
रखता भी होगा तो
सूरज दादा की गर्मी से
शायद सूख जाता है
तो फिर भर दो न-
हमारे कण्ठ पर
इतना उपकार कर दो न
क्या दिखावे का है प्यार
बताओ ! कैसे करें एतबार !!
49 - क्यों ??
गुनगुन करते
उस पनघट पर
प्यासा एक परिंदा आया
हरियाली थी वसुंधरा जब
पहले पहल इधर आया था
सभी मिली थीं
भाभी अम्मा, मौसी, चाची
जल जी भरकर पिलवाया
गीत-गज़ल सुनकर मुझसे फिर
सबने दिल को
बहलाया था
आज वही पनघट क्यों रीता
सारा चमन पड़ा है फीका
ऐसा क्या कर डाला तूने
मानव कुछ तो
मुझे बताओ
कैसे प्यास बुझे पनघट की
आओ ज़रा मुझे समझाओ !!
50 - बस,प्यार कर
इंतज़ार मत कर
बस, प्यार ही कर
सूखी पड़े बाग-बावड़ियाँ
सुबक सुबक कर रोते
आँसू आँखों में आते न
इतने सूख गए हैं मौसम
मनुहार कर
बस प्यार कर
देरी हो गई बहुत
फिर भी
कर विचार
छोड़ दे स्वार्थ
आने दे पवन के झौंके
रात कैसी घिर रही घनेरी
बदल जाएँगे मौसम
तू प्यार तो कर
मेरे हमदम !!