डेफोड़िल्स ! - 3 Pranava Bharti द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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डेफोड़िल्स ! - 3

21 - अमलतास

मैंने लिखा है तेरा नाम

सुबह की हथेली पर

सूरज की किरण से

मैंने छूआ है तेरा नाम

एक-एक कोमल फूल

जैसे चमन से

मैंने बोए हैं बीज

अमलतास के जिन पर फूले हैं गुच्छे

आशा, विश्वास के

धड़कनों ने की है सरगोशी भी

ओढ़ाया है दुपट्टा

शर्म का, लिहाज़ का

मेरी हथेली पर सजी है मेंहदी

तेरी मुहब्बत की झुकी पलकों में

छिपी है कोई कहानी भी

वो सब इसलिए कि ज़िंदा है तू मुझमें

प्रकृति

अपनी सारी संवेदनाओं के साथ !!

 

 

22 - खोखले क्यों ?

मुझे आभास होने दो

मुझे विश्वास होने दो

कहीं मैं डिग नहीं जाऊँ

मुझे तुम चाँद छूने दो

ये सूरज कर रहा रोशन

मेरी–तेरी कहानी को

ये चन्दा भी चमकता है

ये रूह की बात करता है

नहीं मैं जोगी कोई भी

मगर तेरा ही साया हूँ

हवाओं ने सँवारा है

दिया विश्वास और संबल

तो फिर मैं खोखला क्योंकर

में तेरा ही तो टुकड़ा हूँ -

ओ धरती माँ !

तेरे दम से यहाँ

अब तक मैं ज़िंदा हूँ

ये धरती आग–पानी है

तेरी-मेरी कहानी है

ये तेरा मेरा जीवन ही

मुहब्बत जो रूहानी है !!

 

 

23 - क्यों नहीं ?

न सूरज ने कभी जताया मुझे

अपनी रोशनी का अहसान

न मांगी

अपने उगने की कीमत

देता रहा जो ज़िंदगी भर

मुट्ठी खोल अपनी

फैलाता रहा मेरे मन-तन में

प्रकाश

बनकर विश्वास

झरोखा खोले रखा सदा

खो न जाऊँ कहीं

सचेत करता रहा मुझे

बचाता रहा गहरे अंधकार से

करता रहा,परवाह मेरी

जब भी होता रहा गर्म

मैं रही कोसती तुझे

सूरज ! तू इतना क्रूर

कैसे हो सकता है ?

तूने संभाला है सदा

की है राह रोशन !

क्यों नहीं कर पाई

विश्वास मैं तुझ पर ??

 

 

24 - समय

यह समय है

पिचहत्तर वर्ष का समय !

भर रहा है,बौखलाहट मुझमें

अविश्वास की डोरी बाँधे है पैरों में

मैं नाचती रहती हूँ

समय के साथ

न जाने कितना कुछ

बाँचती रहती हूँ

विश्वास देता है समय

न जाने कितने अवसर

देता है समय

मैं ठिठक क्यूँ जाती हूँ

स्वयं को क्षीण क्यों पाती हूँ ?

यह समय कहता है

कद्र करो उसकी - !!

 

25 - धुनके मेरे !

रूई के श्वेत धवल फाहों सी ज़िंदगी को

धुनका उड़ा रहा है

बहुत कुछ कहता जा रहा है

वह कबीर का साथी है

जाने कितनों का बाराती है

तार-तार में राम बुनता है

धुनक-धुनक तारों को गिनता है

सेंबल के फूल बोता है

विश्वास के पटल पर

रखकर उन्हें छांटता है

राम-रहीम के गुण गाता है

मन में जीने का विश्वास

जगाता है -!!

 

 

26 - सन्यासी सावन !!

उस घटना को याद करते हुए

आँखों से मेरी

सन्यासी सावन बरसने लगता है

गीली कोरों से आबू पर्वत की अंतिम पंक्ति में बने

उस आश्रम की गैलरी में

एक सन्यासी भाव उपजा मेरे मन में

भर दिया एक ऐसा सावन

जिसने मुझे बना दिया फकीर

मन से बिरह के गीतों की लड़ी निकल

पसर गई मेरे मस्तिष्क की

कंदराओं में

भीतर ही भीतर भीगते हुए

मेरे मन ने मुझे

सहसा पावन मार्ग दिखा दिया

मेरी स्मृति के कपाटों में भर दी

प्राणवायु और मैं वहाँ की पनीली सी

शीतल हवाओं में

करने लगी गुम होने की चेष्टा!!

 

 

27 - महसूसना

अपने इतने लंबे जीवन में

जाने कितने अनुभवों के

बीच से निकलते हुए

पाए मैंने कितने फूलों भरे रास्ते

काँटों भरे मार्ग

एहसास से भीगे नए-पुराने

सावन और होली के गीत

अद्भुत गीत मालाओं की यात्राओं में

साथ चलते हुए एक पावन एहसास

जो जीवन भर गुजरता रहा मेरे आसपास

मैंने महसूसा

शाख़ की गुनगुनाती

मस्ती की लहरों में भिगोते

अपने आपको!!

 

 

28 - लम्हों के बीच

स्वर्ण की धरा

कर दी कलुषित

बौराया मन

भीगता रहा जंजालों में

भीगते रहे ज़िंदगी के बेबस लम्हे

और तुमने

नहीं देखा

उठाकर दृष्टि अपनी

होते रहे भौंचक

सारे नज़ारे

और एक दिन

छोड़कर तुम्हें चले गए

बीच में, तन्हाई में

उस सूखे में जहाँ

टिड़कती साँसें थीं

और था

लम्हों के बीच की

चुप्पी का एहसास !!

 

 

29 - कैसे बंधूँ?

उस कविता ने कहा

मुझसे हँसकर

नहीं बंध सकती रस्सी से

डोरियों से

न ही बंध सकती हूँ

रेखाओं में, सीमाओं में

जाति में, धर्म में

न ही पूजा के कटघरे में

हो सकती हूँ खड़ी

मेरी पहुँच है

तुझ तक, मुझ तक

और उस तक

जिसने बो दिए हैं

स्नेह के बीज मुझमें

देखती हूँ उनमें प्रतिदिन

नन्ही नन्ही हरी कोपलें

और खुद बाग बन जाती हूँ !!

 

30 - श्वेत सोना !

ओ ! कपास के सफेद फूल !

मैं तुझे बहुत प्यार करती हूँ

तू क्यों आया होगा इस दुनिया में

कई बार प्रश्नों से भरती हूँ

शीत के थरथराते दिनों में जब

मैं सिकुड़ी रहती हूँ

याद आती है तेरी

कुनमुनाती है देह मेरी

तुझमें सिमट जाने के लिए

हो उठती हूँ उतावली

खोलती हूँ

छोटे-बड़े पोटले

बेतरतीबी से पड़ा होता है उनमें

न जाने क्या-क्या

ओ कपास !

ठंड दूर करने की

मेरी पूरी ज़िम्मेदारी

तूने उठा ली है

अपने कंधों पर

कौन लेता है

किसीकी ज़िम्मेदारी ऐसे ?

तूने ली है

काँपते शरीर में

भर गर्मी

जिला देता है तू

खुद से बने नए-नए वस्त्रों से

सजा देता है तू

ओ ! मेरे प्रकृति के अंग

श्वेत,सोने

मुझे पनाह देता है तू-!!

 

 

31 - दीवानगी !

मैं उसको जब से जानती हूँ

जब से अवतरित हुई थी वह

पहचानती हूँ

नस-नस को

वृत्त में उसे गोल-गोल घूमते हुए

देखती रही हूँ मैं उसे

खूब घेर वाले

श्वेत परिधान में

श्वेत गोल्डन बटन वाले सैंड्ल्स में

चुपके से फलांगकर किसीकी कोठी में

भीतर

पकड़ी गई थी वह

"चोरी गंदी बात है न ?"

उसने अपनी नन्ही सी गर्दन हिला दी थी

'हाँ ' में -और

प्रतिदिन के लिए

'बुक' करवा लिया था

एक गुलाब !

तू वही तो है उसकी

दीवानगी जो

आज भी कपाट खोले झाँकती है

चारों ओर –

हरियाली बनकर

स्वरूप बदल गया है बस

तू थोड़ी बड़ी हो गई है !!

 

 

32 - सोलह आने सच !

वह बोलता है

एकदम सच-सच

वह प्यार करता है

सचमुच

वह हवाओं का परिंदा है

कभी घटाओं में

तो कभी हवाओं के

उड़नखटोले पर बैठ

अचानक हो जाता है उड़नछू

बोलता है तो बहुत

नहीं बोलता तो एकदम शांत

ऐसा भी कोई होता है

हाँ, है न

वही जो अचानक

उग आता है और अचानक

बादलों में छिप भी जाता है

वह भरा है फूलों की मुस्कान से

इसीलिए

भरा रहता है अरमान से

वह पुस्तक है खुली

बंद पन्ना भी

आवारा है, फिर भी प्यारा है

प्रकृति संग गाता है

मन का तार बजाता है !!

 

 

33 - मेरे सूरजमुखी !

यूँ तो बरस में कई बार

दर्शन देते हो

फिर भी ग्रीष्म को

कुछ अधिक ही भाते हो

रोशनी से सूर्य की

खिल जाते हो

खूब नहाते हो उसमें

कैसे खिलखिला जाते हो

तपोबन से बन जाते हो

सुनहरे रंग से माहौल को नहलाते हो

फिर आपस में

मुँह फेरकर क्यों

खड़े हो जाते हो ?

क्या हम मनुष्यों से

दोस्ती करने का इरादा है ?

 

 

34 - कारीगरी

रजनीगंधा !

बस गई है तू मेरी साँसों में

मेरी धड़कन में

मेरे मन की क्यारी में

उस फुलवारी में से निकल

जहाँ से गुज़रती हूँ मैं

हर दिन-एक ही समय

तू,बात करती है मुझसे

भर देती है मेरी धड़कन में

एक नई मुहब्बत का शोर

चाहती हूँ मैं उसमें

डूब जाना

राजनीगंधा !

तू प्रेयसी है मेरी

भूल मत जाना कभी

मत छोड़ देना राह में

बसाकर रखना मुझे

अपनी निगाह में -!!

 

 

35 - तीसरा नेत्र

आशुतोष !

हिमालय की उत्तुंग चोटी पर बिराजे

तुम सदा भभूत रमाए

आकर्षित करते हो

मैं वरण करती हूँ तुम्हारा

तुम स्वयं एक नया सवेरा

लेकर आते हो

प्रकाश पुंज

पीठ पीछे से मुस्कुराते हुए

निकलते हो

तीसरे नेत्र से

कर देते घायल

क्या है यह तीसरा नेत्र ?

और यह भभूत ?

या चंद्रमा ?

ये सभी हैं तुम्हारे आभूषण

जिनको हम वरण करते हैं

अपनी आखों में, साँसों में

हृदय में

आशुतोष ! तुम ही रूप हो

शृंगार हो -

सच कहूँ तो

धरती-आसमान का प्यार हो!!