डेफोड़िल्स ! - 5 Pranava Bharti द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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डेफोड़िल्स ! - 5

51 - मैं, माँ–तुम सबकी

बिखरी चली जाती हूँ

जब दीवानगी छाती है

मेरी धड़कन

मेरी साँसें

ठिठक जाती हैं

मैं तुम्हारी माँ हूँ

तुम रूठ क्यों जाते हो मुझसे

सारे ही बंधन तोड़ जाते हो

मुझे रौंदने लगते हो

कैसी सिसकती हूँ

क्या देख नहीं पाते हो ?

महसूस करो

मेरी साँसों को

मेरी धड़कन को

मेरे तन-मन को

तुम्हारी माँ हूँ

जन्मे हो इस गर्भ से ही !!

 

52 - रोता क्यूँ है ?

सुबकी सी सिसकी है

आँखों में विश्वास नहीं

मैं तेरे साथ खड़ा हूँ

क्यों तुझको अहसास नहीं ?

तन-मन लगा दूँगा

तुझको बचा लूँगा

माँ ! मेरी तू है

सबको दिखा दूँगा

तेरी माटी से तिलक लगाता हूँ

तेरे ही तराने गाता हूँ

तेरे गर्भ से निकले हैं

सबको संदेश सुनाता हूँ

रो मत बादल !

बस, आजा माँ की कोख

बदल दूँगा तस्वीर धरा की

मत कर संकोच !!

 

 

53 - माली मेरे !

मन के अंगना टिहुका मोर

जाग गई है प्यारी धरती

माली मेरे !

मत कर देना देर

रंग सुनहला बिखराया है

सूरज की किरणें मुस्काईं

हौले से झाँका किरणों ने

फिर पीछे हट कुछ इठलाईं

शगुन हुआ है अब प्रभात का

सभी हो उठे यहाँ विभोर

माली मेरे !

आ भी जा अब

मौसम न बदले अब देख

टहुक रहा मोर संग मौसम

करता याद तेरी

बदलता भी है

कई-कई करवटें

आ,गले लगा !!

 

 

54 - इश्क है

तुझसे इश्क़ है

न हो तो अन्याय है

ज़मीन और आसमाँ

एक-दूसरे के पर्याय हैं

दोनों को है

एक दूसरे का सहारा

यह कुछ ऐसा ही है जैसे

जीवन–मरण के किनारे

धरती तेरे बिना कुछ भी नहीं

और आसमाँ

वो कैसे पूर्ण हो सकता है धरती बिन

जैसे शरीर और आत्मा

आत्मा, परमात्मा

इस दुनिया की हर चीज़

जुड़ी है, एक दूसरे से

इसीलिए सबको इश्क़ है

एक-दूसरे से !!

 

55 - संबंधों का पिटारा

एक पिटारा इधर खुला है

एक उधर भी खुला पिटारा

मैंने बंद किया था उसको

फिर भी कैसे खुला पिटारा

सपनों की झांकी बन आई

बारी-बारी झाँका सबने

किसी–किसी ने पाया उसमें

कुछ रोशन चन्दा–तारे थे

और किसी ने पाए उसमें

स्नेह–प्यार की बेहद दौलत

संबंधों की बात करें तो

मौसम का जीवंत पिटारा

धरती से संबंध बनाओ

तब जानोगे मर्म पिटारा !!

 

 

56 - बीती न बिताई

न गोरी है

न है काली

तू सदा

रहती है

मतवाली

संग मेरे

जीवंत बन

हँसाती है

रुलाती है

कभी मखौल भी उड़ाती है

जाने कौन है तू

याद बहुत आती है

स्मृति उभर आती है

जब देखती हूँ

स्नान करते हुए तुझे

उस बरसात में

मेरी मुक्त गगन की सखी !!

 

57 - स्वाति की बूंद

खोज रहा है

थका हुआ है

प्यासा है पर

डटा हुआ है

प्यार का वो

हरियाला टुकड़ा

बेचैनी को हर पल पीता

बूंद मगर मिल पाई अब तक

चौंच खुली रखी है उसने

भर लेने को

अपने मुँह में

ताक रहा आकाश

न जाने कब से

यही इश्क है !!

 

 

58 - हथेली भर उजास

क्यों बंद हैं मुट्ठियाँ

बंद, पलकें भी है

चाँद-सितारों का जीवन अपना

रोशनी और अंधियारे की

घुली-मिली तहज़ीब में

इशारे करता है

गुप-चुप

कभी तुझको

कभी उसको

इसीलिए

कभी अंधियारा छाता

कभी उजियारा निखर आता !!

 

 

59 - आँगन में मन के

कभी होती है सुबह

तो कभी शाम

मौसम कभी रूठ जाता है

कभी भेजता पैगाम

तू दरीचा ऋतुओं का

बिखेरता पल-पल हँसी

कभी गम भी

मन का आँगन महकता है

याद करके मोगरे तुझे

सुलगता भी है

देख फूले पलाश

स्थिर कभी नहीं रहता

यही सान्निध्य है !!

 

60 - किरण

अचानक –अचानक ही

रातरानी महकने लगी थी

और वह लगी थी बहकने

नींद न आई रात भर

वह कुनमुनाई रात भर

खिड़की पर बैठी

ताकती रही

जाने किसकी राह

ताकती रही

बिछौना सलबट विहीन था

सब कुछ था ठहरा हुआ

अचानक -अचानक ही

झाँकीं जब तुम

खिड़की की झिर्री से

श्यामल मुख गया खिल

ओ ! मेरी किरण !

तुझसे मिल !!

 

61 - उस पर

कच्चे आमों वाला पेड़

इसमें छिपकर बैठा स्वाद

खट्टी-खट्टी ली चटकार

फिर भी खाई मन ने मार

पूछ रहा था आम

ऐसी उम्र और ये चटकारा !

अब स्वाद जाए कैसे

अपना मन है माने कैसे

आखिर प्रकृति का उपहार

कैसे न हो उससे प्यार

कोयल ने भी तान सुनाई

बोली अंबिया

मुझको भाई

मैं तो हूँ

उस पर कुर्बान

सही कहा है

बातें मान !!

 

62 - जीवन, गीत

मधुरता है मौसम में

इस खिले-खुले दर्पण में

निहारती हूँ मुखड़ा

लगे, जैसे किसी ने लगा दिया पहरा

फूलों का आभास हूँ

प्रकृति का विश्वास हूँ

आदि से अंत तक

मिलन से विरह तक

मैं एक गीत हूँ

संगीत हूँ

सुरों से निकलता हुआ एक प्रगीत हूँ

जीवन की सरहदों

थम लो मुझे !!

 

63 - सबने

सबने की एक कोशिश

भरमाने की

ज़िंदगी के सिरहाने खड़े तुम्हें

मुझे, सबको ही

दिया लालच

बाँट डाले सबमें

क्रूर सपने

दिखाई न दे आदमी को

आदमी, की ऐसी कोशिशें

तूने दिखाई, राहें कितनी

संभाला

न माना आदमी का मन

ललचाता ही रहा

पशु-पक्षियों को

सताता ही रहा

और एक दिन

उनकी मीठी बोली से महरूम हो गए

क्यों तुम इतने क्रूर हो गए ?

 

 

64 - न जाने कौन ?

पुकारती है,दुलारती है

सँवारती है

छिप-छिप प्रेमी सी

देखती है

दूर से

पागल प्रेमी सी

उछलती है कभी

कभी हो जाती है स्थिर

जाने किस जन्म की

प्रेमी है

मन के आँगन में

मुसकानों की

सजा देती है टोकरी

जन्मों से जानूँ, पहचानूँ

‘जाएंट व्हील’ सी घुमा देती है

तेरी मुहब्बत में घूमती रह जाती हूँ

हे धरती ! सदा तेरे ही गीत गाती हूँ !!

 

65 - आखिर किसने ?

किसने तोड़े

ताल तलैया

किसने पनघट की चौखट पर

टेर लगाई जा-जाकर के

किसने रसवंती बोली में

खोल दिया है विष ला करके

कौन है जो चाहता है

रौंदना

पाकर जीवन की गगरी को

छ्लका क्यों सावन का पानी

कौन कर रहा है मनमानी

और वो भी जिसने

मचा दी है लूट

ब्रह्मांड के कारखाने में

होगा तलाशना

देनी होगी सजा

उस चोर को

सिपाही तैनात करो !!