सोई तकदीर की मलिकाएँ - 27 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 27

 

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

27

 

जयकौर हवेली के आँगन में हैरान परेशान खङी थी । भोला सिंह उसे हवेली का फाटक पार करा कर पता नहीं कहाँ लापता हो गया था । वह आदमी जो कार चलाकर उन्हें यहाँ लेकर आया था , वह भी हवेली में घुस कर कहीं खो गया था । अब वह यहाँ किसी को जानती पहचानती तो है नहीं तो किसी से बात करे । कहाँ बैठे या यों ही खङी रहे । अभी तक कोई द्वार चार के लिए आई नहीं थी और वह खुद ही आँगन तक चली आई थी । अब आगे कहाँ जाए । कोई सास जेठानी देवरानी कोई भी तो दिखाई नहीं दे रही । ले देकर एक औरत दीखी तो वह सवाल पर सवाल दागे जा रही है ।
यह सच है कि उसका ब्याह भाइयों ने इतनी जल्दबाजी में निपटाया था कि खुद उसे समझने में वक्त लग गया । यहाँ भी शायद किसी को उसकी शादी की बात पता नहीं है इसीलिए सवाल किये जा रहे हैं । पर उसका इस तरह से स्वागत होगा , यह तो बिल्कुल अप्रत्याशित हुआ । उसने चारपाई की ओर देखा , वहाँ बसंत कौर जोर जोर से हिचकियाँ ले लेकर रो रही थी ।
बसंत कौर जो इस हवेली की थोङी देर पहले तक एकछत्र सम्राज्ञी थी । घर के हर कोने में उसका हुकुम चलता था और आज यह औरत इस तरह आकर उसके सामने खङी हो गई थी ।
कि – इस हवेली के मालिक के साथ मेरा आज ब्याह हुआ है ।
उसे याद आया – पिछले दो तीन महीने से भोला सिंह को बच्चों की कमी बङी महसूस हो रही थी । बात बात में अपनी फसलों और हवेली का बखान करना शुरु कर देता । तब वह क्यों नहीं समझ पाई कि उसके दिमाग में यह सब चल रहा है । उसे अचानक औलाद का पिता बनने की ऐसी लगन लग गयी कि नया ब्याह करवाने पर आमादा हो गया । सिर्फ आमादा ही नहीं हुआ , उसे भनक तक नहीं लगी और वह एक लङकी को ब्याह कर घर भी ले आया ।
साथ के साथ उसने सोचा कि एक बार पहले भी उसने नसीबन को केसर का नाम देकर एक दिन अचानक हवेली में ला खङी किया था । केसर उस दिन से इस हवेली में ही रह रही थी और आज यह लङकी इस तरह दुल्हन बनी सुर्ख जोङे में सजी यहाँ आ खङी हुई है ।
वह बेबे को याद करके रोती रोती रही । विलाप करती रही । केसर हक्की बक्की हुई पङी थी । यह औरत जैसी दिखाई दे रही लङकी दुल्हन बन कर यहाँ क्या कर रही है । हमारी हवेली में अचानक कैसे आ गयी है , उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था । कुछ देर वह बुत बनी खङी रही फिर नौहरे की ओर बढ गयी । गेजे ने एक गाय का दूध निकाल लिया था । केसर ने उससे बाल्टी पकङते हुए पूछा – गेजे ये जो बाहर खङी है , कौन है ? यहाँ क्यों आई है ?
और कहाँ जाएगी ? अब आज से यहीं रहेगी हवेली में ।
केसर ने हैरानी से गेजे को देखा ।
आज इसके साथ सरदार ने ब्याह कर लिया । अब से ये दूसरी सरदारनी हुई इस हवेली की । सारे गाँव वालों के सामने महाराज की हजूरी में इनके लावां फेरे हुए । पाठी ने गुरबाणी पढकर इनका आनंदकारज कराया । सरदार साहब ने बीस पच्ची हजार की तो मिठाई बाँट दी वहाँ इनके गाँव में । वहाँ इसके घर की औरतों ने रीति रिवाज किये । सरदार ने बदले में सबको ग्यारह ग्यारह सौ रुपये शगण दिया ।
अपनी छोटी सरदारनी का अब क्या होगा ? बेचारी बेमौत मारी जाएगी । मुझे तो खुद बहुत रोना आ रहा है । सरदार जी ने बहुत गलत किया ।
तू कह सकेगी यह बात सरदार से ? तेरा तो उससे खास ही रिश्ता है ?
केसर ने अपनी नजरें झुका ली । सच तो यही है कि उसकी हालत इस हवेली मे किसी बांदी जैसी ही थी । इस घर में वह टिकी भी इसलिए हुई है कि वह अपनी सीमाएँ जानती थी । उसकी हद या तो नौहरा है या फिर वह कोठरी जहाँ वह सोती है । उसने कभी अंदर कमरों में जाकर नहीं देखा । सरदार का चौबारा कैसा है , यहाँ आने के इतने साल बीत जाने के बाद भी वह नहीं जानती । चौके में सरदारनी का राज चलता है । जो वह बनाती है , जब बनाती है , केसर को बुला कर थमा देती है । केसर बिना इच्छा अनिच्छा जाहिर किए चुपचाप जो मिलता है , आँगन में बिछी चारपाई पर बैठ कर खा लेती है । बदले में गाय भैंसों का सारा काम कर देती है । गोबर उठाकर पथकन में फेंक आती है । पाथियाँ पथ देती है । कपङे धो सुखा देती है । आँगन लीप देती है । जब सरदार का मन हो , वह उसकी कोठरी में आ जाता है तो वह उसके सामने बिछ जाती है .। बदले में सिर ढकने को यह कोठरी और दो वक्त की रोटी मिल जाती है । इससे ज्यादा की उसने कभी तमन्ना ही नहीं की । न ही कभी किसी ने उसका मन जानने की कोशिश की है ।
क्या सोच रही है केसर ? भई सबसे बङा सच यह है कि हम इस घर के नौकर हैं । काम करते हैं । बदले में रोटी और कपङा मिल जाता है । हम उनके मामले में दखल कैसे दे सकते हैं वे मालिक हैं जो उनके मन में आएगा , वही करेंगे ।
फिर भी आज अचानक एकदम से यह शादी ... ?
अचानक तो नहीं , कई दिन से सरदार को वारिस की जरूरत महसूस हो रही थी । शादी के इतने साल बीत गए । अब तक सरदारनी की गोद हरी नहीं हुई । इतनी जमीन है । इसलिए ...।
केसर को आज अपने माँ न बन पाने का बहुत अफसोस हुआ । काश वह माँ बन पाती तो अपने जाए को सरदारनी की गोद में डाल देती । हवेली में उसका जाया छम छम चलता । खेलता । सरदार और सरदारनी अपना सारा प्यार , सारी ममता उस पर लुटाते । वह दूर से ही उसे बङा होता देख कर निहाल हो जाती । साथ ही उसे उस दिन का बेबे जी और उनका संताप याद आया । तब उसे उनका उदास होना , उसे गले लगा कर रोना समझ में नहीं आया था । आज सारी बातें शीशे की तरह साफ हो गई ।
वह बाहर बसंत कौर के पास आ बैठी । बसंत कौर उसी तरह से विलाप किये जा रही थी । कभी अपने दिवंगत माता पिता को याद करती और कभी अपनी सास को । केसर उसका हाथ थामे चुपचाप उसे देखती रही । आखिर दोनों का दुख एक जैसा था । केसर की आँखें भी भीग गई । आधे घंटे से ज्यादा वे दोनों रोती रहीं । जयकौर दोनों को देख रही थी । जब खङे खङे थक गई तो आगे बढ कर दीवार के सहारे खङी चारपाई उठा लाई और उस पर बैठ गय़ी । परेशान तो वह दोपहर से थी , यहाँ आकर उसकी परेशानी दुगनी हो गई ।
आखिर बसंत कौर ने अपने आँसू पौंछे । चौके में रखा आटा सम्हाला । दाल सम्हाली । चूल्हे में लोटा भर पानी फेंका । जलती हुई आग भभक कर शांत हो गयी । बसंतकौर चौके से निकल कर चौबारे की सीढियाँ चढने ही वाली थी कि पङोस की अमरजीत चप्पन लेकर आग माँगने चली आई ।
बसंत कौरे , थोङी आग दे दे तो मैं चूल्हा तपाऊँ ।
बसंत कौर ने चिमटे से एक सुलगता हुआ उपले का टुकङा ढूंढा और उसकी चप्पनी में डाल कर उसके पैर छू लिए ।
सुहाग वंती हो , भागवंती हो । तेरे घर में हमेशा बरकत रहे । भाई भतीजे सुखी रहें । बहु तूने आज खाना बना भी लिया ।
जी भाभी जी ।
और ये कौन है जो बाहर चारपाई पर बैठी है
मैं क्या जानूं कौन है , तेरा देवर अभी आएगा तो पूछ लेना । वही लाकर छोङ गया इसे यहाँ – न चाहते हुए भी बसंत कौर की आवाज में गर्मी झलक गई ।
अमरजीत मौके की नजाकत को देखते हुए उठी और अपने घर की ओर बढ गयी । बसंत कौर भी छत पर चली गई ।

 

बाकी फिर ...