ममता की परीक्षा - 106 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 106



थाने पहुँचकर मुझे एक दरोगा के सामने पेश कर दिया उन दोनों सिपाहियों ने। अपने हाथ में पकड़ा हुआ पैकेट दरोगा की मेज पर रखते हुए उन दोनों सिपाहियों में से एक दरोगा की खुशामद करते हुए बोला, "साहब, सही से छानबीन कीजियेगा और हमारा भी नाम दर्ज कीजियेगा इस मामले में। ये पुलिस महकमे की बहुत बड़ी कामयाबी है। ये लड़की किसी अंतरराष्ट्रीय ड्रग तस्करों के गिरोह की सदस्य लगती है।"
दरोगा ने उनकी बातों की तरफ ध्यान न देते हुए मेज पर पड़े पैकेट को उलट पुलट कर देखा। पैकेट को ध्यान से देखते हुए उसने उन सिपाहियों को कुछ इशारा किया। दोनों तुरंत ही बाहर चले गए।

उनके जाने के बाद पैकेट मेज पर एक तरफ रखकर उस दरोगा ने मुझे कुछ यूँ घूर कर देखा कि मैं सिहर गई। भूख से बेहाल पहले ही हो रही थी। उसकी भूखी निगाहों का वार मेरे दिल को तार तार किये जा रहा था। एक बार मैंने उस कमरे से भागने का भी प्रयास किया लेकिन दरवाजे पे खड़ी दो महिला सिपाहियों ने मुझे पकड़कर फिर से कमरे में धकेल दिया था। कुछ देर घूरते रहने के बाद उसने सर्द लहजे में पूछा, "जानती हो इस पैकेट में क्या है ?"

मेरे इंकार में सिर हिलाते ही वह अट्ठाहस कर बैठा, " हा.. हा.. हा...व्हाट ए जोक ! ......बाकायदा तुम इस अंतरराष्ट्रीय गिरोह की एजेंट हो, ड्रग का धंदा करती हो, सामान के साथ रंगे हाथों तुम गिरफ्तार हुई हो और कहती हो तुम्हें पता नहीं ? खैर तुम्हारी गलती नहीं है। ये तो सभी जानते हैं कि पकड़ा जानेवाला हर अपराधी यही कहता है कि उसने कोई गुनाह नहीं किया है, लेकिन कानून अपना काम करता ही है। तुम्हारे साथ भी वही होगा और तुम्हें.. " आगे कुछ कहते हुए अचानक वह रुक गया।

दरवाजे से वही सिपाही, जिसने मुझे यहाँ लाया था, चार पाँच अन्य लोगों के साथ दाखिल हो रहा था। मैंने पलटकर बाहर देखा। बाहर भी कुछ कैमरे लिए पत्रकारों की भीड़ जुट गई थी। कमरे में दाखिल हुए पत्रकारों व कुछ सम्मानित नागरिकों सहित मीडिया के कैमरों के सामने उस पैकेट को खोला गया। पैकेट खोलते ही मेरी आँखें आश्चर्य से फ़टी रह गईं। पैकेट में सफेद पावडर जैसा गर्द मुझे मानो मुँह चिढ़ा रहा था। सबके सामने उस गर्द की बरामदगी मुझसे लिखवाई गई और पत्रकारों के साथ आये व्यक्तियों ने साक्ष्य के तौर पर अपने अपने हस्ताक्षर किए। मुझे बाद में पता चला कि ये एक कानूनी प्रक्रिया है जिसमें कुछ तटस्थ नागरिकों के सामने कार्रवाई होती है और उनके हस्ताक्षर के रूप में उनकी मंजूरी ली जाती है। इसे पंचनामा कहते हैं।

मैं बहुत चीखी, चिल्लाई, रोई, गिड़गिड़ाई और अपनी बेगुनाही समझानी चाही, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। कोई मेरी बात पर यकीन करने को तैयार ही नहीं था। मुझे अन्य कैदियों के साथ वहीं थाने के हवालात में धकेल दिया गया। चोर उचक्कों से घिरी मैं कुछ घंटे ही वहाँ रही थी कि मुझे कुछ अन्य अपराधियों के साथ गाड़ी में बैठाकर अदालत में पेश किया गया।

अदालत ने आसानी से मुझे तीन दिन के लिए पुलिस की हिरासत में भेज दिया। वापस थाने में लाकर जुर्म कबुलवाने के नाम पर जो हैवानियत पुलिस ने मेरे साथ की है कि मैं बता भी नहीं सकती। महिला सिपाहियों की मौजूदगी में पुरुष सिपाहियों द्वारा धृष्टता की सभी हदें पार की गईं मेरे साथ तब कहीं जाकर मुझे यकीन हुआ कि कानून द्वारा मूलभूत अधिकारों के नाम पर प्रदत्त सुविधाएं या तो ढकोसला हैं या फिर चंद प्रभावशाली लोगों के लिए हैं। गरीबों व सामान्य लोगों के पास इनके लिए एक ही डंडा है जिसे ये महिला या पुरुष में भेद किये बिना इस्तेमाल करते रहते हैं। लेकिन मुख्तार के अत्याचारों से मैं अब परिपक्व हो गई थी सो आखिर तक मैंने पुलिसिया जुल्म के आगे हथियार नहीं डाले।

तीन दिन बाद मुझे फिर से अदालत में पेश किया गया। उस दिन जज साहब काफी मेहरबान दिखे मुझपर। एक वकील का इंतजाम पहले ही करा दिया गया था और वकील के द्वारा प्रस्तुत मेरे पक्ष को उन्होंने सहानुभूति पूर्वक सुना और दुबारा पुलिस की हिरासत में भेजने से इंकार कर दिया। मेरे बयान के साथ ही पैकेट के मुझसे बरामद होने की स्थिति की समीक्षा करने के बाद जज साहब ने मुझे संदेह का लाभ देने का फैसला किया। इस फैसले के तहत मुझे रिहा न करते हुए महिला सुधार आश्रम में भेजने का आदेश दिया और पुलिस को मेरे खिलाफ और साक्ष्य प्रस्तुत करने का आदेश दिया।

अब मुझे उसी शहर के सरकारी महिला सुधार गृह में भेज दिया गया। कहने को तो ये एक महिला सुधार गृह था जिसमें आंशिक रूप से अपराधों में संलग्न अपराधी महिलाओं को मानसिक रूप से सुधारने का कार्य किया जाता है, लेकिन यह नाममात्र के लिए ही था। असल में यह भी एक बंदीगृह ही था जिसमें जेलर की जगह इस आश्रम की संचालिका ही मुख्य व सबसे बड़ी अधिकारी होती हैं।

यहाँ रहते अभी कुछ ही दिन हुए थे कि मैं सरकार की इस योजना की काली सच्चाई से भी रूबरू हुई। दरअसल मेरे बैरक में रहनेवाली रूबी उस दिन पेट दर्द से परेशान थी। पेटदर्द के साथ ही महसूस हो रही उल्टी के बारे में जानकर मेरा माथा ठनका। सहानुभूतिपूर्वक उससे पूछने पर वह सिसक पड़ी और फिर उसके बाद जो उसने मुझे बताया जानकर मुझे समस्त मानव समाज से घृणा हो गई।

उसके मुताबिक उस आश्रम की संचालिका मिसेस लूसी बेहद ही गिरी हुई और घटिया चरित्र की लालची औरत थी। कई बड़े अधिकारियों व नेताओं से उसके खुद के अवैध संबंध हैं। अपने आर्थिक फायदे के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है, और इसी फायदे के लिए वह अफसरों और नेताओं को खुश रखने के लिए इस आश्रम की किसी भी लड़की को उनके सामने परोस देती है। पिछले दिनों में कई बार रूबी को भी उस दुष्ट औरत ने अफसरों के सामने पेश किया था।

रूबी ने चेतावनी देते हुए मुझे समझाया भी कि 'किसी तरह से यहाँ से भागने या कहीं किसी और जेल में शिफ्ट होने की जुगत लगा लो, नहीं तो देर सवेर तुम्हें भी यही करना पड़ेगा।'

उसकी चेतावनी सुनकर मेरा कलेजा दहल गया था लेकिन क्या करती ? जेल बदली कर पाना अपने हाथ में था भी तो नहीं ? भागने की जुगत लगाना भी मेरे बस का नहीं था सो जो होगा देखा जाएगा ' सोचकर मैंने खुद को हालात के भरोसे छोड़ दिया। रूबी का दर्द मुझसे सहन नहीं हो रहा था। मैंने इस अन्याय व अत्याचार के खिलाफ लड़ने की ठान ली।
सभी लड़कियों को एकत्रित कर उन्हें इस अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए व आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया।

दो दिन शांति से गुजर गए।

तीन दिन के बाद उस रात सब लड़कियाँ अपनी अपनी जगह सोई हुई थीं कि अचानक संचालिका महोदय ने कमरे में प्रवेश किया। रूबी की बगल में मुझे सोते हुए देखकर बोली ,"चल, आ जा मेरे साथ।"

अलसाती हुई सी मैं उठी और जम्हाई लेते हुए बोल पड़ी, "क्या हुआ मैडम ? कहाँ जाना है ?"

मेरे इतना पूछते ही आँखें तरेरते हुए वह बोली, "सवाल पूछने का हक यहाँ किसी को नहीं है, मेरे अलावा किसी को नहीं ! समझीं तुम ? अब फटाफट तैयार हो जाओ।"
फिर स्वतः ही बुदबुदाने लगी "आज तो जायका बदलता देखकर नारंग साहब भी खुश जाएँगे। रोज रोज वही गोश्त मजा भी तो नहीं देता।"

मैं समझ गई थी मिसेस लूसी की मंशा सो आराम से अपनी जगह पर बैठते हुए बोली, " मैडम, आज मैं कहीं नहीं जानेवाली...और आप मुझसे जबरदस्ती नहीं कर सकती।
"
गुस्से में किसी नागिन सी फुफकारती हुई वह बोली, "अभी पता चल जाएगा मैं क्या कर सकती हूँ। आज तक यहाँ ऐसा कभी नहीं हुआ कि लूसी ने कुछ कहा हो और उसके हुक्म की तामील ना हुई हो.. और आगे भी नहीं होगा क्योंकि अपने मन की तो मैं हर हाल में करती ही हूँ।" कहते हुए उसने दो बार ताली बजाई।

अगले ही पल दो टपोरी जैसे दिखने वाले मुस्टंडे वहाँ हाजिर हो गए। लूसी का इशारा पाते ही दोनों मेरी तरफ बढ़े। परिस्थिति को भाँपकर मैंने सभी महिला कैदियों को अपनी मदद के लिए उन गुंडों से लड़ने के लिए उकसाया लेकिन अफसोस तो तब हुआ जब हमेशा साथ देने का वादा करने वाली उन महिलाओं में से किसी एक ने भी मेरा साथ नहीं दिया। मैंने रूबी की तरफ देखा, उसने भी नजर फेर ली थी। मैं अकेली क्या करती ? दोनों मुस्टंडों ने मुझे दबोच लिया और फिर वहीं उन लड़कियों के बीच में ही किसी भेड़िए सा नोचने खसोटने लगे।

इस दौरान कुर्सी पर बैठी लूसी ठहाके लगाती रही और अन्य लड़कियों को धमकाती रही कि जिसने भी उसके खिलाफ जाने की कोशिश की उसकी इससे भी बुरी हालत की जाएगी।

कुछ देर बाद दोनों गुंडे लूसी के साथ जा चुके थे, और मैं अस्तव्यस्त कपड़ों में कमरे में पड़ी हुई थी। मुझे चारों तरफ से घेरी हुई लड़कियाँ मुझसे सहानुभूति जता रही थीं तो उनमें से कोई सीख दे रही थी 'क्या जरूरत थी उनसे उलझने की ? यहाँ होगा वही जो ये लोग चाहेँगे। यहाँ हम लोग तो अपनी मर्जी से मर भी नहीं सकते।'

क्रमशः