ममता की परीक्षा - 107 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 107



अपनी करुण गाथा सुनाते हुए जूही एक बार फिर सिसक पड़ी थी। उसकी दास्तान सुनते हुए साधना व रमा की आँखें भी लगातार बरसती रहीं।

अपनी सिसकियों पर काबू पाते हुए जूही ने आगे बताना शुरू किया, "उस दिन बड़ी देर तक सब लड़कियाँ मुझे घेरे रहीं सहानुभूति जताते हुए। रात अधिक हो चुकी थी। एक एक कर सब गहरी नींद में सो गई थीं लेकिन नींद मेरी आँखों से कोसों दूर थी। जिसका तन और मन घायल हो बुरी तरह से उसे भला नींद आती भी कैसे ? दरवाजे पर पर किसी के कदमों की आहट से पलटकर उस तरफ देखा। दरवाजे पर उन्हीं दोनों बदमाशों के साथ लूसी खड़ी हुई खा जानेवाली निगाहों से मुझे ही देख रही थी।

मेरे नजदीक आकर मेरा उपहास उड़ाते हुए बोली, "क्या हाल हैं महारानी के ? अक्ल ठिकाने आई कि नहीं ?...या फिर अभी कोई कसर बाकी रह गई है ?"
मैं क्या जवाब देती ? एक भद्दी सी हँसी हँसते हुए वह बोली, "चल, तैयार हो जा। नारंग साहब को खुश कर दे। बहुत बड़े अफसर हैं। अगर खुश हो गए और उन्होंने चाहा तो तुझे इस नारकोटिक्स विभाग के चंगुल से साफ निकलवा देंगे।... समझी ? इसलिए कोई नाटक नहीं, कोई होशियारी नहीं।"

और उस दिन से शुरू हुआ यह घिनौना सिलसिला बदस्तूर जारी रहा तब तक, जब तक मैं वहाँ रही। अब जीने की इच्छा खत्म हो गई थी लेकिन मरना भी तो आसान नहीं था वहाँ। सारी लड़कियों का शोषण होता था। कभी कोई नेता,कोई अफसर, मंत्री या फिर कोई भी जो लूसी के समक्ष रसूख रखता था आकर अपनी मनपसंद लड़की को बाहर भी ले जा सकता था।

एक एक कर दिन बित रहे थे। उस दिन लूसी आई थी मेरे पास,मुझे समझाने कि मुझे एक बहुत बड़े अफसर हैं उनके साथ होटल में जाना है। बात मानने के अतिरिक्त मेरे पास और कोई चारा भी नहीं था। लूसी का एक गुंडा मुझे होटल के कमरे में छोड़ गया।

कमरे में बिल्कुल कृषकाय, दुबला पतला मरियल सा अधेड़ जिसकी आयु लगभग पचास साठ वर्ष रही होगी, बैठा हुआ था।

उसे देखते ही मेरे मन में लूसी के चंगुल से आजाद होने की इच्छा जोर मारने लगी। मेरे मन में एक खतरनाक योजना बन रही थी, लेकिन मैंने खुद को सामान्य बनाये रखा। उस व्यक्ति को भी उलझाए रखने के लिए उसे मुस्कुरा कर नमस्ते किया। नमस्ते का जवाब देने की बजाय उसने खींचकर मुझे अपनी गोद में बिठा लिया।

बिना कोई प्रतिरोध किये मेरी निगाहें कमरे का मुआयना कर रही थीं। कमरे में एक तरफ एक छोटी सी मेज थी जिस पर शराब की दो बोतलें रखी हुई थीं। मेरा दिमाग बड़ी तेजी से काम कर रहा था। अचानक उसकी गोद में से छिटकते हुए मैंने उसे एक उँगली दिखाकर टॉयलेट जाने का इशारा किया और टॉयलेट में घुस गई।

टॉयलेट में जाना मेरी योजना का ही एक हिस्सा था। लगभग दो मिनट टॉयलेट में बिताने के बाद मैंने हल्के से दरवाजा खोलकर देखा। वह मेरी तरफ पीठ किये शायद जाम की चुस्कियां ले रहा था। मेज पर रखी दो बोतलों में से एक अभी भी मेज पर ही रखी हुई थी।

दबे कदमों से चलते हुए मैंने मेज पर से शराब की बोतल अपने हाथ में मजबूती से पकड़ लिया और उस व्यक्ति की तरफ देखा। वह अभी भी मेरी तरफ पीठ किये हुए शायद अपनी शराब में ही मस्त था। मेरी तरफ से वह बिल्कुल बेफिक्र नजर आ रहा था। शायद उसे मुझसे इस दुस्साहस की उम्मीद नहीं रही होगी, लेकिन अब मैं जिस मुकाम पर थी वहाँ मेरे लिए करो या मरो जैसी ही स्थिति थी।

दबे कदमों से उसके बिल्कुल नजदीक पहुँच गई मैं और इससे पहले कि कदमों की आहट सुनकर वह पलटकर मेरी तरफ देखता, अपने हाथ में पकड़ी बोतल से एक भरपूर वार उसके सिर के पिछले हिस्से में कर दिया। एक घुटी हुई सी चीख उसके गले से निकली और फिर वह बैठे बैठे बेड पर ही गिर पड़ा।

सिर के पिछले हिस्से से रक्त की धार सी बहने लगी। वह निश्चल सा बेड पर पड़ा हुआ था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि वह जिंदा था या मर गया था। उसकी नाक के सामने हाथ ले जाकर देखा, साँसें चल रही थीं उसकी।

राहत की साँस ली मैंने। वक्त बहुत कम था मेरे पास। उसकी जेब में हाथ डाला। पर्स निकला, खोलकर देखा। उसमें कुछ बैंकों के डेबिट कार्ड्स व कुछ कागजों के अलावा कुछ भी नहीं था। मुझे कुछ पैसों की तलाश थी लेकिन इसके पास तो वो भी नहीं थे। शायद कमरे में ही कहीं अन्यत्र छिपा रखा हो लेकिन मेरे पास उन्हें तलाश करने का समय नहीं था। मुझे जल्द से जल्द वहाँ से दूर निकल जाना था। उसकी दूसरी जेब में सौ रुपये के कुछ नोट पड़े हुए थे। शायद तीन नोट थे जो यहाँ से निकल भागने के लिए मेरे काम आनेवाले थे, अतः उन्हें लेकर अपनी अंटी में खोंसने के बाद मैंने दरवाजे से बाहर झाँककर देखा। बाहर पूरा गलियारा सुनसान पड़ा था। इसका मतलब जो गुंडा मेरे साथ आया था वह यहाँ नहीं था। वह शायद बाहर हो, यही सोचकर दुपट्टे में अपना मुँह छिपाए मैंने तेजी से गलियारा पार किया और नीचे डाइनिंग हॉल में आ गई। तभी उस गुंडे पर नजर पड़ते ही मेरा कलेजा जोरों से धड़क उठा। डाइनिंग हॉल के एक कोनेवाली मेज पर वह कुछ खाने में व्यस्त था। उसका ध्यान मेरी तरफ नहीं था। शायद उसे यह लगा होगा कि अभी मुझे बाहर आने में काफी समय लगेगा।

मैं आराम से चलती हुई डाइनिंग हॉल से बाहर आई और फिर रिसेप्शन के सामने से होते हुए होटल से बाहर सड़क पर आ गई। होटल के बाहर कई ऑटोवाले थे। उनमें से एक में बैठकर शहर में सदर बाजार गई। ऐसा मैंने बाद में जाँच होनेपर पुलिस को गुमराह करने के लिए किया था।

सदर बाजार के दूसरे छोर पर से ऑटो लेकर मैं शहर के बस अड्डे पहुँच गई। अपने शहर की बस लगी हुई थी। आपकी बहुत याद आ रही थी। मैं मिलना चाहती थी आपसे। आपसे माफी माँगना चाहती थी। आपकी गोद में अपना सिर रखकर अपने सारे गम भूला देना चाहती थी, लेकिन वहाँ से बस द्वारा सीधे अपने शहर जाना भी मुझे खतरे से खाली नहीं लगा। लिहाजा अपने शहर न जाकर मैंने बिच के शहर रतनपुर तक का ही टिकट लिया। मेरा इरादा रुक रुक कर सफर करने का था। पुलिस से बचने के लिए यह आवश्यक था।

रतनपुर जब बस पहुँची रात के आठ बजे थे। बस से उतरकर मैंने सबसे पहले अपने शहर अनूपपुर के लिए बस की पूछताछ की। पता चला अनूपपुर के लिए अगली बस सुबह सात बजे की है। किराया भी पता कर लिया था और फिर अपनी जेब टटोली। ईश्वर का शुक्रिया अदा किया जब मेरे पास टिकट के पूरे पैसे बचे हुए दिखे। दस रुपये की एक नोट अतिरिक्त थी जिसे बचाये रखना आवश्यक लगा मुझे। भूख लगी तो थी लेकिन बस अड्डे के नल से पेट भर पानी पीकर मैं वहीं फर्श पर दुपट्टा बिछा कर सो गई।
मुसाफिरों की हलचल और शोर की वजह से सुबह पाँच बजे ही मेरी नींद खुल गई थी। अपनी आदत के मुताबिक बस अड्डे में बने सुलभ शौचालय गई और जब वहाँ बैठे एक मुच्छड़ ने अंदर जाने से पहले ही पाँच रुपये माँगे तो मेरे क्रोध की सीमा न रही, लेकिन क्या करती ? ऐसी सार्वजनिक जगहों पर भी सरकार कुछ ठेकेदारों को जनता को लूटने का ठेका जो दे देती है। खैर वहाँ से वापस आकर मैं मुसाफिर खाने में बैठ गई।

बगल में बैठे एक सज्जन शायद आज का अखबार पढ़ चुके थे। उनसे माँगकर धड़कते दिल से मैंने अखबार का पहला पन्ना खोला। अखबार का मुख्यपृष्ठ हमेशा की तरह राजनीतिक खबरों से ही भरा हुआ था। पन्ना पलटने पर अंदर एक कोने में बड़े बड़े अक्षरों में शीर्षक लिखा हुआ था 'शहर के पॉश इलाके के एक बड़े होटल के एक कमरे में एक राजनयिक की रहस्यमयी मृत्यु ! पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट का इंतजार : पुलिस टीम जाँच में जुटी '

उसके मृत्य की खबर सुनकर मेरे हाथ पाँव फूल गए। मेरी मंशा उसे मारने की नहीं थी और जब मैं आई वह जिंदा तो था। लगता है अधिक रक्त बह जाने से उसकी मृत्यु हो गई होगी।

अखबार उन सज्जन को वापस देकर मैं आत्ममंथन करने लगी । पिछले कुछ ही महीनों में मैं क्या से क्या हो गई थी। धोखाधड़ी और निर्मम बलात्कार की शिकार मैं उससे बचने के लिये भागी और मादक द्रव्यों की स्मगलिंग के जुर्म में जेल पहुँच गई। मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न से बचने की चाह में अब हत्या का दोष और अभी आगे सुधार गृह से फरार होने जैसे कई नए आरोप मेरा इंतजार कर रहे थे।

बस आ गई थी।
बस ने जब अनूपपुर में प्रवेश किया दिन के ग्यारह बजे थे। भूख के मारे मेरा बुरा हाल था। इस शहर में मेरे आने का मकसद ही यही था कि आप से मिलूँ, लेकिन मुझ पर लगे हत्या के आरोप से मैं सिहर गई थी, डर गई थी। मुझे लगा कि यदि मैं आपसे मिली तो जल्द ही गिरफ्तार कर ली जाऊँगी। अपने घर में छिपकर भला कोई कैसे रह सकता था ? यही सोचते हुए मैं बड़ी देर तक उस पहाड़ी के पीछे बने बगीचे में छिपी रही।
जब भूख असहनीय हो गई तो पहाड़ी चढ़कर मैं उस मंदिर तक पहुँच गई जहाँ आप गरीबों को भोजन बाँट रही थीं। उससे पहले मैंने अपने कपड़े खुद ही फाड़ कर उन्हें चिथड़े की शक्ल दे दी थी और खुद को भिखारी जैसा बना लिया था। इसके पीछे पुलिस से बचना ही मेरा एकमात्र मकसद था। मैं अभी यह तय नहीं कर पाई थी कि आपसे मिलना चाहिए या नहीं सो जैसे ही मुझे लगा कि आपने मुझे देख लिया है मैं भिखारियों की कतार से निकलकर ऊपर मंदिर की तरफ भाग गई जहाँ से दूसरी तरफ बने बगीचे में जाकर छिपना मेरे लिए मुश्किल नहीं था... लेकिन शायद यहीं मुझसे और एक गलती हो गई थी .." कहने के बाद जूही फिर सिसक पड़ी।

क्रमशः