ममता की परीक्षा - 105 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 105



उस दिन मैंने उस गुंडे जैसे इंसान और बिलाल के अब्बू के बीच होनेवाली खुसर फुसर को सुन लिया था और समझ गई थी कि ये आज रात कुछ न कुछ योजना बनाएंगे मुझसे पिछा छुड़ाने का, और मेरा कयास सही साबित हुआ जब मुँह अँधेरे सुबह चार बजे के लगभग मेरे कमरे का दरवाजा खुला।
वही शैतान कमरे में घुसा। दरवाजा खुलने की आहट सुनकर भी मैं गहरी नींद में होने का अभिनय करती रही। वह मेरे पास आकर मुझे नींद से जगाने का प्रयास करने लगा। जगाने के प्रयास में उसका मुझे बेवजह इधर उधर छूना बुरा तो लग रहा था लेकिन क्या करती ? आखिर उसने मुझे जबरदस्ती उठाकर खड़ा कर दिया। मैं फिरभी गहरी नींद में होने का शानदार अभिनय करती लड़खड़ाती हुई उंसके सहारे उसके साथ आगे बढ़ गई।

बाहर पोर्टिको में खड़ी कार का दरवाजा पहले ही खुला हुआ था। उसने प्रयास करके मुझे कार की पिछली सीट पर बैठा दिया, जहाँ बैठते ही मैं सीट पर पसर गई। मेरे बैठते ही कार बँगले से बाहर निकल कर सड़क पर आ गई थी।

वही शैतान कार ड्राइव कर रहा था जबकि बिलाल के अब्बू उसके बगल की सीट पर बैठे हुए थे। दोनों मेरी तरफ से बिल्कुल निश्चिंत थे। उन्हें पूरा यकीन था कि मैं गहरी नींद में थी। इसके अलावा उनकी नजर में मैं पागल भी तो थी। उनकी आपस में हुई बातचीत से मैं समझ गई थी कि ये पड़ोस के शहर में मुझे किसी गुफरान नाम के दरिंदे के हवाले करने जा रहे हैं। सुनकर एक बार तो मेरी रूह काँप गई थी लेकिन मैं बड़े धैर्य से नींद में होने का अभिनय करती रही। उनकी नजर बचाकर मैंने बाहर का जायजा लिया। कार किसी मुख्य सड़क पर तेजी से भागी जा रही थी।

सूर्योदय का वक्त करीब होने की वजह से अब बाहर हल्का उजाला फैलने लगा था, तभी वकील साहब की आवाज सुनाई पड़ी, "मुख्तार ! सुबह हो गई है। गाड़ी कहीं ढाबे पे खड़ी कर दे। चाय वाय पी लेते हैं, फिर आगे चलते हैं।"
ये बात सुनते ही मेरे दिमाग में उनसे बच निकलने की योजना बन गई।

कुछ देर बाद गाड़ी की गति कम हुई। मैं समझ गई थी कि यही मेरे लिए अंतिम मौका है इन दरिंदों के चंगुल से बच निकलने का और इसीलिए अपनी योजना के मुताबिक मैं पिछली सीट पर पूर्ववत गहरी नींद में होने का अभिनय करती रही।

गाड़ी खड़ी करके दोनों ने शायद मुझे ध्यान से देखा होगा लेकिन नींद में है यही सोच आश्वस्त होकर ढाबे में घुस गए थे। उनके जाने के कुछ देर बाद मैंने खिड़की में से झाँककर देखा। दोनों ढाबे में अंदर की तरफ बैठे हुए थे, शायद चाय का इंतजार था उन्हें। बड़ी सावधानी से नीचे से सरककर मैंने दूसरी तरफ से कार का दरवाजा खोल दिया। इधर उधर देखा। किसी का ध्यान इस तरफ न पाकर मैँ आराम से कार से बाहर आ गई और चहलकदमी करती हुई सड़क पर आकर शहर से विपरीत दिशा में तेजी से बढ़ने लगी।

मैं जानती थी कि शीघ्र ही वो मुझे खोजने का प्रयास करेंगे और सड़क पर अधिक देर तक रहना मेरे लिए खतरनाक साबित हो सकता था। अतः सड़क से नीचे की तरफ एक पगडंडी उतरती देखकर मैं सरपट उसपर दौड़ती हुई आगे बढ़ गई। कुछ ही देर में मैं सड़क से दूर एक छोटी सी पगडंडी पर चल रही थी जिसके चारों तरफ लहलहाती हुई फसलें झूम रही थीं। लगता था ये पगडंडी आगे किसी गाँव को इस शहर से जोड़ने का एकमात्र साधन रही होगी।

वकील और उस गुंडे की तरफ से मैं निश्चिंत थी लेकिन अब आगे क्या ? इस बारे में भी मैं कुछ निश्चय नहीं कर पा रही थी। क्या करूँ ? एक बार दिमाग ने कहा 'अपने घर वापस चली जा !' तभी दिल ने सरगोशी की 'क्या मुँह लेकर वापस जाएगी अपनी माँ के पास ? अब इतना जो हुआ है तेरे साथ सुनकर क्या उन्हें खुशी होगी ? अरे जब उन्हें कोई खुशी दे नहीं सकी, तो क्या हक बनता है तुम्हारा उन्हें दुःख देने का ?'
और मैंने तुरंत ही फैसला कर लिया था, अब चाहे जो हो मुझे अपने घर वापस नहीं जाना। एक सदमा तो उन्हें मेरे घर छोड़ने से लग ही चुका है। जैसे तैसे उन्होंने खुद को इस सदमे से उबार लिया होगा, लेकिन अब और सदमे शायद बरदाश्त न कर पाएं मेरे मम्मी और पापा !"

तभी तड़पते हुए रमा बिच में ही बोल पड़ीं, "ऐसा तूने सोचा भी कैसे मेरी बच्ची ? क्या एक संतान अपनी माँ पर कभी बोझ बनी है ? क्या मेरे पालन पोषण में कोई कमी रह गई थी जो तू मेरे बारे में इतना गलत अनुमान लगाने लगी थी ?"

रमा की तरफ देखते हुए जूही की आँखें लगातार आँसुओं का सैलाब बहाये जा रही थीं। धीमे स्वर में बोल पड़ी जूही, " सही कह रही हो मम्मी ! मैं तब भी गलत थी जब बिलाल का साथ पाकर अपना घर छोड़कर गई थी, आपके स्नेह व प्यार को ठुकरा कर गई थी, पप्पा की मानमर्यादा को ठेस लगाकर गई थी और गलत तब भी थी जब इतना कुछ होने के बाद भी घर से, आप से और अपने लोगों से मुँह मोड़े रही।... और इस आखरी गलती की ही सजा आज मैं भुगत रही हूँ।.. काश ! उस दिन मैंने अपने दिल की नहीं सुनी होती, अपने दिमाग की बात मान ली होती !.. लेकिन खैर ....होनी को कौन टाल सकता है ? .........! उस दिन शहर से विपरीत गाँव की दिशा में बढ़ते हुए मैं तनिक भी अपने भविष्य के बारे में नहीं सोच पाई थी।

उस खतरे की आहट भी नहीं सुन सकी थी मैं जो दबे पाँव लगातार मेरा पीछा कर रही थी। लगभग आधा घंटे तक मैं पगडंडी पर यूँ ही चलती रही। अब मुझे भूख और प्यास भी सताने लगी थी। अचानक मैं रुकी और मुड़कर वापस शहर की तरफ चल दी। काफी सावधानी बरतते हुए सुबह के लगभग दस बजे मैंने शहर में प्रवेश किया।

शहर के भीड़भाड़ वाले इलाके से होकर गुजरते हुए एक जगह नाश्ते की दुकान देखकर मेरी भूख और बढ़ गई। सड़क की दूसरी तरफ से मैं लालच भरी निगाह से नाश्ते की दुकान पर छन रही गरमागरम पुरी को देख रही थी, तभी मेरे नजदीक से गुजर रही किसी स्कूटी में से एक पैकेट गिरा। मैंने लपक कर वह पैकेट उठा लिया और आगे देखने लगी जिस तरफ वह स्कूटी गई थी।

वह स्कूटी तो नहीं आई वापस लेकिन कोई दूसरा आदमी आकर मुझसे वह पैकेट माँगने लगा।

मैंने कहा, "तुझे क्यों दे दूँ यह पैकेट ?"

"क्योंकि ये मेरा है।"

"अच्छा ! फिर बता, इसमें क्या है ?"

"मैं क्यों बताऊँ ? मैं बस इतना जानता हूँ कि ये पैकेट मेरा है।"

अब मुझे भी मजाक सूझी। मैं समझ गई थी कि यह झूठ बोल रहा है, सो मैंने भी उस पैकेट पर अपना दावा ठोंक दिया। हालाँकि मुझे इस पैकेट का कोई लालच नहीं था लेकिन चाहती थी कि उसके सही मालिक को उसका हक मिले। तभी नजदीक से गुजर रहे दो सिपाहियों को मैंने आवाज लगाई और उनसे उस आदमी की शिकायत करने ही वाली थी कि अचानक सिपाहियों में से एक की नजर मेरे हाथ में पड़े पैकेट पर पड़ी।

अपने साथी की तरफ देखते हुए उसके चेहरे पे मुस्कान गहरा गई। उसने मुझसे पूछा, "क्या हुआ मैडम ? ..बताइये !"

मैंने उससे आधा सच ही बताया, "ये पैकेट मेरा है और ये भाईसाहब कह रहे हैं कि यह पैकेट उनका है।"

उसने मुस्कुराते हुए फिर पूछा, "क्या आप निश्चित हो कि यह पैकेट आपका ही है ?"
खीझ कर मैंने कहा, "हाँ ..और क्या ? अब क्या लिखकर भी दूँ ?"

"लिखकर तो आपको देना ही होगा मैडम, लेकिन थाने में चलकर।" कहते हुए दूसरे सिपाही ने मेरी कलाई कसकर पकड़ ली।
मैं कसमसाई लेकिन उसकी पकड़ ढीली नहीं हुई। पास से गुजर रही एक ऑटो रुकवाकर उन दोनों सिपाहियों ने मुझे ऑटो में बिठाया और चल पड़े थाने की ओर। रास्ते भर मैं उनसे मिन्नतें करती रही, आखिर में सत्य बताने की भी कोशिश की कि वह पैकेट मेरा नहीं था। उन्हें असल बात भी समझानी चाही कि मेरी तो कोशिश यही थी कि वह पैकेट उसके असली मालिक को मिले जिसके स्कूटी से वह गिरा था, इसलिए उस आदमी से झूठ बोली थी, लेकिन उन दोनों को मुझ पे यकीन नहीं हुआ और न ही उनका दिल पसीजा। मैं अभी तक समझ नहीं पाई थी कि दोनों सिपाही आखिर ऐसा क्यों कर रहे हैं और उस पैकेट में ऐसा क्या है ?

क्रमश :