ममता की परीक्षा - 104 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 104



..........दरवाजे पर बिलाल की अम्मी खड़ी हुई नजर आईं। कल शाम को चेहरे पर मुस्कान लिए बिलाल का स्वागत करते देखा था, लेकिन फिलहाल उस समय तो उनके चेहरे पर ऐसा लग रहा था जैसे बारह बज रहे हों। उन्हें सलाम करते हुए मैंने पूछा, "बिलाल नजर नहीं आये, कहीं गए हैं क्या ?"

"हाँ !" संक्षिप्त सा जवाब दिया था उन्होंने।

"कहाँ ? अचानक ? मुझे कुछ बताया भी नहीं ?" किसी अनहोनी की आशंका से मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा था।

अभी वह मेरे प्रश्न के जवाब में कुछ कहने ही जा रही थी कि बगल के कमरे से वकील साहब यानी बिलाल के अब्बू निकलते हुए बोले, "अमां यार बेगम ! तुम भी गजब कर रही हो। सीधे सीधे उसे बता क्यों नहीं देती कि बिलाल उसको छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए अमेरिका अपनी ख़ाला के पास चला गया है। अब इसका इस घर में क्या काम ? कह दो जैसे आई है वैसे ही अपने अब्बू के घर चली जाए।"

उनकी बात सुनकर एक कुटिल मुस्कान बिलाल की अम्मी के चेहरे पर फैल गई। दिल को बेहिसाब तेज सदमा सा लगा लेकिन मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि बिलाल सच में मुझे छोड़कर जा चुका था। बात की तस्दीक के लिए मैंने बिलाल की अम्मी की नजरों में नजरें गड़ा दी।

निगाहों से अंगारे बरसाते हुए वह मुझपर बरस पड़ी, "बदजात, बेहया, बेशर्म ! इतना सुनकर भी अभी तक यहीं पड़ी हुई है कि इसका शौहर इसको छोड़ के जा चुका है।"

कुछ ही मिनटों में वह बिल्कुल बदल चुकी थी। बड़ी देर तक वह तरह तरह की गालियों से मुझे संबोधित करती रही। मैं सुनती रही,.. लेकिन कब तक सुनती ? आखिर मेरे सब्र का पैमाना भी भर गया और मैंने जब पलटकर उन्हें कोर्ट में देख लेने की धमकी दी तो उनकी बोलती बंद हो गई। मुझे वापस उसी कमरे में धकेलकर दरवाजा बंद कर दिया उन लोगों ने। मैं बड़ी देर तक दरवाजा थपथपाती रही, चीखती रही, चिल्लाती रही और आखिर में दरवाजा पकड़े पकड़े ही बिलख पड़ी। पता नहीं कितनी देर तक रोती रही थी मैं। इस बीच बाहर से कुछ खुसर फुसर की आवाज लगातार आती रही। ऐसा लग रहा था जैसे बिलाल की अम्मी और अब्बू आपस में कोई सलाह मशविरा कर रहे हों। भूख के मारे मुझसे रहा नहीं जा रहा था। घुटनों को पेट में दबा मैं बेड पर पड़ी रही। आँखों के कोरों से टपकते आँसू तकिए को भिगाते रहे। बिलाल से शादी करने के अपने फैसले पर सिवा पछताने के और किया भी क्या जा सकता था उस समय ? ...अब आप दोनों की बातें समझ में आ रही थी। अब समझ में आ रहा था कि माँ बाप की पुकार को अनसुना करके हम अपना कितना बड़ा नुकसान कर लेते हैं।" कहते हुए जूही की झुकी हुई पलकें रमा की तरफ उठ गईं। आँसू भरी निगाहों में पश्चात्ताप के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे। अगले कुछ मिनटों तक बस उसकी निगाहें बोलती रहीं, और लब खामोश रहे। उसकी दारुण गाथा सुनकर रमा और साधना के दिलों में भी दुःखों का ज्वालामुखी धधक उठा और उसका दहकता लावा आँखों के रास्ते आँसुओं के रूप में बाहर निकलने लगा।

रमा के स्नेहिल स्पर्श से आश्वस्त जूही ने कुछ देर की रुदन के बाद स्वयं को संयत करते हुए फिर से अपनी आपबीती सुनानी शुरू की।

"उसी अवस्था में मैं बड़ी देर तक पड़ी रही। शायद दोपहर बित चुका था। कमरे के बाहर किसी के भारीभरकम पैरों के पदचाप सुनाई पड़े। दरवाजा खुलने की आवाज सुनकर जब तक मैं मुड़कर देखती एक लंबा चौड़ा पठान जैसी शख्सियत व पहनावे वाला अधेड़ उम्र का व्यक्ति कमरे में प्रवेश कर दरवाजे की कुंडी लगा रहा था। पलंग से नीचे उतरकर मैं उसकी तरफ दौड़ी और उससे दरवाजा खोलने के लिए कहा, लेकिन उस शैतान ने मुझे जोर से पीछे की तरफ धकेल दिया।

उसके गले से गुर्राहट जैसी आवाज निकली, "बोल, तू यहाँ रहेगी कि जाएगी यहाँ से ?"

मेरे मुँह से बोल न निकले। डर गई थी मैं। उसने कसकर मेरे बालों को पकड़ लिया और खिंचते हुए बोला, " बोल, अब देगी धमकी बिलाल और उसके अम्मी अब्बू को ?"
क्रोध मुझपर हावी हो गया था।.. काश ! उस समय मैंने अपने गुस्से पर काबू रखा होता।

गुस्से से बिफरते हुए मैं बोली, "हाँ, मैं जाऊँगी यहाँ से और यहाँ से बाहर निकलते ही मैं देख लूँगी तुम सबको। एक एक को सजा दिलवाउंगी।"

इतना सुनते ही वह जोर से हँस पड़ा। एक भद्दी सी गाली उछालते हुए वह बोला, "सबको देख लेना बाद में, लेकिन यहाँ से निकलने के बाद पहले अपनी शक्ल तो देख लेना।"

तब मैं उसके इस कथन के मायने नहीं समझ पाई थी। अभी मैं कुछ और जवाब देती कि उसने उसी तरह मेरा बाल पकड़े हुए मुझे पलँग पर गिरा दिया अपने सिर पर बँधे साफे से मेरे दोनों हाथ पिछे की तरफ बाँध दिए और.. ...."
कहते हुए जूही फिर से फफक पड़ी। उसके चेहरे पर डर और खौफ के निशान स्पष्ट नजर आ रहे थे। अश्रुभरी नजरों से ही उसने आगे कहानी जारी रखी .....

कमर से बेल्ट निकालकर वह किसी वहशी के समान मुझपर टूट पड़ा। भूखी प्यासी कमजोर मैं उसके इस हमले को झेल न सकी। मार मार कर मुझे अधमरा कर दिया था उसने लेकिन मेरा आक्रोश कुछ कम नहीं हुआ था। मैं उसे देख लेने व सजा दिलाने की धमकी बराबर दिए जा रही थी। शायद मेरा यही आक्रोश मेरी दुर्गति का कारण बना। जब पिटाई से उसका मन भर गया तो उसने हैवानियत की सारी हदें पार कर दीं। मैं चाहकर भी उसका अधिक प्रतिरोध नहीं कर सकी। उस दिन पहली बार मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई थी अपने लड़की होने पर। सचमुच ! ऐसी दरिंदगी तो जानवर भी नहीं करते। कर ही नहीं सकते ! फ़िर ऊपरवाले ने क्या सोचकर मर्दों को यह ताकत दे दी है कि वह किसी भी लड़की पर जब चाहें, जैसे चाहें, अपनी मर्दानगी दिखा सकते हैं। लडक़ी को इतना कमजोर और मजबूर क्यों बनाया है यह बात मैं भगवान से पूछूँगी अवश्य ! बहुत जल्द ही मेरी भगवान से मुलाकात होनेवाली है और मैं ये पूछना कभी नहीं भूलूँगी।" ....कहते हुए उसका सब्र जवाब दे गया था। फिर से सुबक पड़ी थी वह रमा की गोद में अपना मुखड़ा छिपाकर।

रमा और साधना भी उसकी करुण कहानी सुनकर तड़प उठी थीं। जैसे ही उसने जल्द ही भगवान से मिलने की बात कही रमा एकदम से तड़प उठी, "नहीं नहीं मेरी बच्ची ! ऐसा नहीं कहते। अभी मैं जिंदा हूँ। तुझे कुछ नहीं होने दूँगी।"
"अब कुछ नहीं हो सकता माँ !.. ये शायद मेरे गुनाहों की सजा ही है जो अब तक पूरी नहीं हुई और मैं जिंदा हूँ। जिस दिन ये सजा पूरी हो जाएगी, मुझे इस दुनिया से मुक्ति मिल जाएगी, ये पंछी ये पिंजरा छोड़कर उड़ जाएगा। वो दिन आने वाला है माँ, बहुत जल्द मैं इस जीवन से मुक्ति पा जाऊँगी।"

"नहीं ..नहीं ! ऐसा नहीं कहते। मैं तुझे कुछ नहीं होने दूँगी। अभी तो तुझे उन सभी दरिंदों से बदला लेना है। उन्हें भी इसी तरह तड़पते हुए देखना है।" समझाते हुए रमा भी सिसक पड़ी।
कुछ देर की खामोशी के बाद जूही ने फिर आगे कहना शुरू किया ...

अपनी मर्दानगी दिखाकर वह कमरे से बाहर चला गया। मैं अपनी हालत पर आँसू बहाती पलंग पर पड़ी रही। रात होने को थी। दरवाजा खोलकर नौकर बाबू ने खाने की थाली व पानी का जग कमरे में सरका दिया और कमरा बाहर से बंद कर दिया था।
भूखी प्यासी मैं खाना देखकर उसपर टूट पड़ी। भोजन करके मैं अभी बैठी ही थी कि एक बार फिर दरवाजा खुलने की आवाज आई। इस बार कोई दूसरा व्यक्ति था, लेकिन कदकाठी और पहनावा बिल्कुल वैसी ही। शक्ल से ही कोई गुंडा लग रहा था वह। धीरे धीरे वह मेरी तरफ बढ़ा। मैं रोइ, गिड़गिड़ाई, चीखी, चिल्लाई लेकिन उस शैतान पर कोई असर नहीं पड़ना था सो नहीं पड़ा। अपनी मनमानी कर वह कमरे से बाहर निकल गया। अब यही मेरी नियति बन गई थी। हर एक दो घंटे में कोई न कोई नया गुंडा पहुँच आता ! अपनी मर्दानगी दिखाता और फ़िर गायब हो जाता। हैवानियत का यह खेल चार दिनों तक चला।

मैं अंदर से टूट चुकी थी। एक दिन दरवाजा खुला देखकर मैंने बाहर निकल भागने की कोशिश भी की लेकिन घर के नौकर बाबू ने मुझे पकड़कर इस कमरे में फिर से बंद कर दिया। कहना जरूरी नहीं कि उस इंसान ने भी बहती गंगा में हाथ धोने से बिल्कुल भी परहेज नहीं किया जिसे मैं अपने संस्कार के मुताबिक नौकर नहीं काका समझती थी।

उसके जाने के बाद इंसान और इंसानियत से मेरा भरोसा उठ चुका था। बाहर खुसर फुसर सुनकर मैं दरवाजे के करीब आ गई। बाहर वकील साहब और उस गुंडे की बातचीत सुनकर मैं सन्न रह गई। उनकी बातें सुनकर मैं समझ गई थी कि मुझको मानसिक रूप से विक्षिप्त बनाने के लिए ही मुझपर लगातार ये अत्याचार किये जा रहे थे। कुछ सोचकर उसी क्षण से मैंने पागलों जैसी हरकतें करनी शुरू कर दी .........

क्रमशः