ममता की परीक्षा - 102 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

ममता की परीक्षा - 102



आसपास के गाँवों में कोई ढंग की स्कूल न होने की वजह से नया स्कूल खुलने की खबर पाते ही लगभग पचास विद्यार्थियों ने साधना की स्कूल में दाखिला ले लिया।

जून से शैक्षणिक सत्र शुरू होते ही महिला आश्रम के ही एक कमरे में पहली और एकमात्र कक्षा की पढ़ाई शुरू हो गई।
साधना के मधुर व्यवहार ने उसे जल्द ही बच्चों में खासा लोकप्रिय बना दिया। अमर भी उन बच्चों के साथ ही बैठकर शिक्षा ग्रहण करने लगा।

दिन भर बच्चों को पढ़ाने के बाद साधना महिलाओं को पढ़ाने का कार्य यथावत जारी रखे हुए थी। बच्चों के माध्यम से साधना की लोकप्रियता उनके अभिभावकों व गाँववालों के बीच लगातार बढ़ रही थी। रमा साधना की लगन व मेहनत तथा उसके अच्छे परिणामों से बेहद खुश थी।

समय अपनी गति से गुजरता रहा। साधना को इस महिला आश्रम में आये हुए लगभग दस वर्ष हो चुके थे। इन दस वर्षों में पहली कक्षा से शुरू हुई प्राथमिक पाठशाला आज हाइस्कूल में तब्दील हो गई थी। हर शैक्षणिक वर्ष में एक नई कक्षा की शुरुआत करने की नीति का अनुसरण करते हुए इस साल दसवीं कक्षा की पढ़ाई भी शुरू हो गई थी।

साधना ने रमा से कहकर आवश्यकता के अनुरूप सभी कक्षाओं के लिए महिला शिक्षकों की भी नियुक्ति करवा ली थी।

कक्षा दर कक्षा अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होता हुआ अमर भी अब दसवीं कक्षा का विद्यार्थी था। अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल नंबरों से उत्तीर्ण होता था अमर। दस वर्षों में साधना में भी काफी बदलाव आ गया था। फूल सी कोमल साधना वक्त के बेरहम थपेड़ों की मार झेलते झेलते मात्र पैंतीस वर्ष की अवस्था में ही वृद्धावस्था के करीब पहुँच रही किसी अधेड़ महिला जैसी लग रही थी।

साधना को वहाँ किसी तरह की कोई कमी नहीं थी, लेकिन इन भौतिक चीजों से मन में व्याप्त खालीपन को तो नहीं भरा जा सकता न,..उसकी सेहत पर मन के इन्हीं विचारों व तनावों का साफ साफ असर दिख रहा था।

पिछले कुछ दिनों की अस्वस्थता की वजह से रमा भंडारी का अधिकांश समय आराम करने में ही बीत रहा था। विद्यालय के साथ ही अब महिला आश्रम की भी पूरी जिम्मेदारी साधना के नाजुक कंधों पर आ गई थी। आती भी क्यों नहीं ? अब वह रमा की विश्वासपात्र जो बन गई थी।

साधना ने भी सभी जिम्मेदारियों को एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर लिया। साधना के द्वारा सभी जिम्मेदारियाँ उठा लेने और उसके काम से संतुष्ट रमा अब धीरे धीरे सभी कामों से विमुख होने लगी थी।

हमेशा की तरह उस दिन भी रमा और साधना दोनों साथ में ही मॉर्निंग वॉक के लिए उसी बगीचे में गए थे जहाँ उनकी पहली मुलाकात हुई थी। जून का पहला सप्ताह था। रात हल्की बूंदाबांदी के साथ ही वर्षा रानी के आगमन का संकेत मिल चुका था। आसमान में बादलों की सेना तेजी से इधर से उधर भागती हुई अपने मोर्चेबंदी में व्यस्त थी। बादलों की एकजुटता के आगे आज सूर्यदेव भी विवश हो गए थे। बादलों की सरगर्मियां देख कर ही शायद हवाएँ भी बहना भूल चुकी थीं लिहाजा वातावरण में काफी उमस पैदा हो गई थी। मॉर्निंग वॉक से आते हुए साधना पसीने से तरबतर थकी हुई लग रही थी, जबकि रमा बिल्कुल तरोताजा लग रही थी। थकान का कोई निशान उनके चेहरे पर नजर नहीं आ रहा था। पिछले कुछ दिनों की अस्वस्थता भी उनके जिस्म पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई थी।

इन दस वर्षों में आसपास के इलाके में भी काफी तब्दीली आ गई थी। आश्रम के आसपास खाली पड़े जमीन के टुकड़े अब घरों, दफ्तरों व कारखानों में तब्दील हो गए थे। आसपास कई नई कॉलोनियां बन गई थीं जहाँ हजारों की संख्या में लोग रहने के लिए आ गए थे।

आश्रम के नजदीक पहुँचकर रमा हमेशा की तरह मुख्य सड़क से हटकर बायीं तरफ जानेवाली सड़क की तरफ मुड़ गईं जबकि साधना ने सीधे चलते हुए आश्रम की तरफ रुख कर लिया था। दरअसल बायीं तरफ जानेवाली सड़क वहाँ से दूर बनी एक नई बस्ती को मुख्य सड़क से जोड़ती थी। इसी रास्ते पर एक समाजसेवी संस्था ने हनुमान जी का एक भव्य मंदिर बनवाया था। अनेकों समाजोपयोगी कार्यक्रम इस मंदिर के संचालकों द्वारा चलाये जाते थे।

आज मंगलवार था। हर मंगलवार को मंदिर में विशेष भजन व कीर्तन होता और तत्पश्चात भंडारे का आयोजन किया जाता था ।
सभी जिम्मेदारियों से मुक्त रमा ने अब धर्म कर्म में अपना मन लगाने का फैसला कर लिया था। रमा अक्सर इस भजन कीर्तन में शामिल होतीं और कुछ समय के लिए प्रभु स्मरण में पूरी दुनिया को भुला बैठतीं।

रमा जब मंदिर परिसर में पहुँची भजन प्रारंभ हो चुका था। महिलाओं की भीड़ में शामिल होकर रमा भी भजन की मधुर स्वर लहरी में खो गईं। भजन का कार्यक्रम अब समाप्ति की ओर था। मंदिर प्रांगण में दूसरी तरफ भंडारे की तैयारी भी हो गई थी। पता नहीं कहाँ कहाँ के लोग आये हुए थे भंडारे के महाप्रसाद का लाभ लेने के लिए।

अव्यवस्था से बचने के लिए भंडारे के लिए कतार की व्यवस्था की गई थी। रमा का भी जी चाह रहा था कि वह भी भंडारे के महाप्रसाद का लाभ लें लेकिन उसके लिए लगी लंबी कतार देखकर उनका इरादा बदल गया। लेकिन इसी प्रयास में उनकी निगाहों ने कुछ ऐसा देख लिया जिसकी तलाश उन्हें वर्षों से थी। दरअसल भंडारे की लंबी कतार की तरफ देखती रमा को इस बार जो दिखा उन्हें यकीन नहीं हुआ। उन्होंने दोनों हाथों से अपनी आँखें मसलकर पुनः देखा। फिर वही दृश्य देखकर उनकी खुशी का पारावार न रहा। खुशी के मारे उनकी निगाहें छलक पड़ी थीं। उनकी निगाहें जूही पर से हट ही नहीं रही थीं। जी हाँ ! वह जूही ही थी जिसे उन्होंने पहली निगाह में ही पहचान लिया था लेकिन तसल्ली हुई थी कई बार आँखें मलने के बाद !

भोजन की कतार में एक दीवार के सहारे पीठ टिकाकर बैठ गई थी वह। शायद अब उसमें खड़ा रहने का भी सामर्थ्य नहीं था। बेतरतीब गंदले बालों के साथ ही कपड़े के नाम पर एक गंदी सी साड़ी और ढीलाढाला ब्लाउज उसके जिस्म पे झूल रहा था। एकबारगी तो उसका मन किया कि दौड़कर जाकर उसे गले लगा ले लेकिन पिछला अनुभव याद आते ही उसने अपने कदम पीछे खींच लिए।

पिछली बार रमा पर नजर पड़ते ही वह गायब हो गई थी। रमा वही गलती फिर से नहीं दोहराना चाहती था। वह फिर से उसे खोना नहीं चाहती थी।

उसने छिपते छिपाते घूमकर प्रांगण में भंडारे की तैयारी का जायजा लिया। भंडारा शुरू होने में अभी दस पंद्रह मिनट की देर थी। उसे पूरा यकीन था कि जूही भोजन लिए बिना वहाँ से कहीं नहीं जाएगी।

रमा ने पलटकर एक नजर फिर से जूही की तरफ देखा। वह अभी भी आँखें बंद किए हुए दीवार से पीठ टिकाए बैठी हुई थी। सपाट भावहीन चेहरा देखकर रमा की तड़प और बढ़ गई। कुछ सोचते हुए तेज कदमों से वह आश्रम की तरफ बढ़ने लगी।

लगभग पंद्रह मिनट बाद रमा साधना के साथ तेजी से मंदिर तक पहुँची। उनके साथ सात और महिलाएँ भी थीं जो अपेक्षाकृत मजबूत कदकाठी की थीं। साधना ने चलते हुए रास्ते में ही उन्हें सबकुछ समझा दिया था।

रमा और साधना कतार के पिछले सिरे से जूही की तरफ बढ़ीं, जबकि उनके साथ की महिलाएँ खामोशी से आगे बढ़ गईं थीं कतार के उस सिरे की तरफ जहाँ से भंडारे का भोजन मिलने की शुरुआत होनी थी। तभी कतार में एक हलचल सी हुई, शायद भंडारे का भोजन बँटना शुरू हो गया था।

शोर सुनकर जूही ने भी अपनी आँखें खोलीं और फिर उठने का प्रयास करने लगी। उठ कर खड़ा होने में उसे हो रही परेशानी देखकर रमा खुदपर काबू नहीं रख सकी और बिना कुछ सोचे समझे जाकर खड़ी हो गई जूही के सामने। उसका चेहरा आँसुओं से भीग चुका था। कतार में खड़े लोगों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर माजरा क्या है ? कुछ लोग जो रमा को पहचानते थे उसके रोने की वजह जानना चाहते थे और आश्चर्य चकित होकर जूही को देखे जा रहे थे।

उठने की कोशिश करते हुए जूही की नजर जैसे ही रमा पर पड़ी वह फफककर रो पड़ी और उनसे दूर भागने के प्रयास में गिर पड़ी। साधना ने दौड़कर उसे संभालना चाहा, लेकिन सफल नहीं हुई। जूही गिर कर फिर संभलने का प्रयास करते हुए उठकर खड़ी होना चाहती थी कि तभी रमा के सब्र का पैमाना छलक पड़ा।

उसने जूही को कंधों से पकड़कर सहारा देते हुए उठाकर अपने सीने से लगा लिया। अबकी जूही ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। रमा का स्पर्श पाते ही वह किसी अबोध बालिका की तरह उसके गले से लिपट गई और फूटफूटकर रो पड़ी। साधना की आँखों से भी गंगा जमुना की धार फुट पड़ी थी।

क्रमशः