एक अमूल्य संध्या 'हिडिम्बा' की लेखिका डॉ. नताशा अरोरा के साथ Pranava Bharti द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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एक अमूल्य संध्या 'हिडिम्बा' की लेखिका डॉ. नताशा अरोरा के साथ

एक अमूल्य संध्या 'हिडिम्बा' की लेखिका; डॉ. नताशा अरोरा के साथ

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पहली बार 'अस्मिता' नारी मंच पर जिस शख्सियत से परिचय हुआ उससे प्रभावित न हो पाना कठिन था, कुछ उनका सरल अपनत्व भरा व्यवहार और कुछ इसलिए भी कि उन्होंने मुझे सीधे पूछ लिया ;

" प्रणव जी आप हिडिम्बा' की समीक्षा करेंगी?"

पुस्तक से पूर्व में प्रकाशित उनकी इसी विषय पर कहानी मेरे मस्तिष्क पर छाई हुई थी, यह कहानी 'वर्तमान साहित्य'की श्रेष्ठ कहानियों में से थी । उस दिन 'अस्मिता' की बैठक में उन्होंने उस कहानी का पाठ भी किया था।मैं उसके पात्रों के साथ मानसिक विचरण कर रही थी कि उन्होंने उपरोक्त प्रश्न मेरे समक्ष रख दिया । उनका मीठा सा अनुरोध मुझे भीतर तक आलोड़ित कर गया । इतनी महान पुस्तक की समीक्षा? महान इसलिए कि हिडिम्बा के लिए अभी तक हमारे मन में राक्षसी कुल की एक स्त्री का नाम हिडिम्बा था । उत्सुकतावश तथा नताशा जी के प्रेमळ, सरल आग्रहवश मैंने समीक्षा करने का साहस जुटाया व इससे पूर्व 'हिडिम्बा' का तीन बार पठन मुझे उनके व पुस्तक के समीप ले गया ।यह समीक्षा 'वर्तमान साहित्य' में प्रकाशित हुई ।

मई माह में मुझे नोएडा जाने का अवसर प्राप्त हुआ, नताशा जी से संपर्क हुआ और फिर उनके घर पर चाय पर मुलाकात भी। इस सहज, प्रेमळ परिवार से मिलने के साथ ही उनसे एक साक्षात्कार की मेरी इच्छा को उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया । इसके लिए मैं उनकी ह्रदय से आभारी हूँ ।डॉ. नताशा अरोरा जी का यह साक्षात्कार मैं आप सबसे बांटना चाहती हूँ ;

प्र - नताशा जी जब मैंने पहली बार 'हिडिम्बा' पुस्तक के दर्शन किए मुझे लगा ही नहीं कि मैं उस चरित्र के बारे में पढ़ रही हूँ जिसके बारे में बचपन से एक राक्षसी के अतरिक्त कुछ जाना ही नहीं । हिडिम्बा पर आपका उपन्यास पढ़कर सबसे प्रथम जो मन में उगा वह प्रश्न यह था कि 'आखिर ऐसा क्या कारण था जो आपने इतने नगण्य चरित्र पर अपना लेखन किया ?

उ-(नताशा जी हौले से मुस्कुराईं और बोलीं)--जानती हैं प्रणव जी जिसने भी इस पुस्तक के बारे में सुना अथवा इसे देखा उसका पहला प्रश्न यही था । जबकि महाभारत-कथा में द्रौपदी एक ऎसी प्रखर नायिका है जिस पर जो लिखा जा चुका है उससे इतर भी अभी और बहुत कुछ लिखा जा सकता है । आपके प्रश्न का उत्तर मैं दो भागों में देना चाहूँगी ----

-पहला यह कि हिडिम्बा ही क्योंकर मेरे दिमाग में आई?--- और

-दूसरा यह कि उस पर लिखने का विचार कब और क्यों आया?

'दो वर्ष पूर्व मैं हिमाचल मनाली भ्रमण के लिए गई थी । वहाँ पहुंचते ही मैंने महसूस किया कि मैं 'हिडिम्बा' से घिरी हुई हूँ । 'हिडिम्बा टूर्स एंड ट्रैवल्स ', 'हिडिम्बा फोटो शॉप' यानि जहाँ दृष्टि पड़ी वहीँ हिडिम्बा दिखाई दी। हम लोगों का निवास भी 'हिडिम्बा-कॉटेज' में था । उसके सामने ही डूंगरी पर्वत पर देवदार के घने जंगल के बीच पत्थर की एक बहुत बड़ी शिला पर पैगोडा शैली का काष्ठ का बना विशाल भव्य हिडिम्बा देवी का मंदिर ! हिडिम्बा के बारे में बालपन से ही दादी-नानी से कहानियों में सुनती आई थी जैसे कि आपने कहा कि वह भयानक राक्षसी थी तथा भीम की पत्नी व घटोत्कच की माता थी। मैं क्या संभवत:अधिकांशत:लोग उसके बारे में इससे अधिक कुछ नहीं जानते । महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास ने भी तो उसके बारे में अधिक कुछ नहीं लिखा है । मनाली में हिडिम्बा एक देवी की भाँति पूजी जाती है, यह जानकार मन में स्वाभाविक उत्कंठा  ने जन्म लिया । मंदिर में लगे भारतीय पुरातत्व विभाग के सूचना-पट्ट ने कुछ जानकारियां दीं तो कुछ पुजारी जी तथा कुछ वहां के स्थानीय निवासियों से जो जानकारियां प्राप्त हुईं उन्होंने मेरे मन को और भी अधिक आश्चर्य से भर दिया । कुल्लू का राज-परिवार उसे दादी का सम्मान देता है, हिमाचली माताएँ अपने बच्चों की रक्षा तथा स्वास्थ्य के लिए हिडिम्बा माँ का आशीष लेती हैं । और तो और कुल्लू का प्रसिद्ध दशहरा उत्सव हिडिम्बा देवी की शोभा-यात्रा से प्रारंभ होता है ।

हिडिम्बा के बारे में एक यह कथा भी प्रचलित है कि अपने जीवन की प्रौढ़ावस्था में अपने पुत्र घटोतक्च को राज्य सौंपकर राजमाता हिडिम्बा तपस्विनी बनकर यहां बर्फीली पहाड़ियों के क्षेत्र में प्रजाहित को समर्पित हो गई थी। उसी विशाल शिला पर जहाँ आज मंदिर है वहीं वह तपस्यारत होकर आत्मशक्ति से विलीन हो गईं थीं । वहीं एक नन्हे से विचार ने जन्म लिया कि हिडिम्बा पर कुछ लिखा जाए --लेकिन क्या लिखूँ? यह तो दूर-दूर तक भी विचार नहीं आया था कि इस चरित्र पर उपन्यास भी लिखा जा सकता है।

मनाली से लौटने के पश्चात भी मेरे मनोमस्तिष्क पर 'हिडिम्बा' छाई रही । मैंने महाभारत में हिडिम्बा संबंधी अंश पढ़े । घटोतक्च बारे में पढ़ते समय जिस प्रकार के प्रश्न मेरे मानस में उभरे उनसे हिडिम्बा पर खोज मेरे लिए अनिवार्य बन गया ।

प्र ;नताशा जी आखिर घटोतक्च के बारे में आपने ऐसा क्या जाना जिससे आपके लिए यह एक खोज का विषय बन गई ?

उ-प्रणव जी, महाभारत एक विलक्षण ग्रन्थ है । विस्तार में न जाकर केवल इतना कहूँगी कि हज़ारों सालों से महाभारत पर न जाने कितनी लेखनियां उठी हैं, परन्तु प्रत्येक प्रांत की महाभारत में मुझे कुछ भिन्न कलेवर प्राप्त हुअ। हाँ, व्यास कृत महाभारत लगभग इन सभी का मूल आधार है । मेरी जिज्ञासा मुझे दिल्ली के विभिन्न पुस्तकालयों में खींचकर ले गई । मैंने दिल्ली में होने वाले 'सेमिनार्स' में पढ़े जाने वाले कुछ व्याख्यानों का भी अध्ययन किया ।

प्र --ज़ाहिर है, आपको अपने इस शोध -कार्य में कुछ ऐसा प्राप्त हो गया होगा जो आम तौर पर अन्य कथाओं में नहीं था?

उ--सच तो यह है कि प्रथम दृष्टया मुझे ऐसा कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ । यदि व्यास जी ने हिडिम्बा के चरित्र को कोई विस्तार नहीं दिया तो अन्य किसी ने भी नहीं दिया है । वह नगण्य ही रही, केवल एक उपेक्षित राक्षसी भर ---बस!। अब मैंने अपनी खोज भारत की समृद्ध संस्कृति की ओर मोड़ी जहाँ पर महाभारत छाई हुई है। वहां पर मुझे अनेक आश्चर्यजनक कथाएँ प्राप्त हुईं । वास्तव में भारत की वाचिक परम्परा ने इस कथा को इतना विस्तारित व प्रचारित किया है कि हम चकित रह जाते हैं । यह कथा विश्व कथा बन गई है उपरान्त हिडिम्बा पर कोई प्रकाश नहीं पड़ा है । हाँ, यह तथ्य अवश्य स्थापित है कि हिडिम्बा के पतिव्रता स्वरूप को सभी ने स्वीकार किया है । न जाने क्यों मुझे बारंबार अहसास हो रहा था कि महाभारत का पुनर्पठन आवश्यक है । मुझे उस अनकही को सुनाने का प्रयास करना ही होगा जो व्यास न लिखकर भी इंगित कर रहे हैं ।

प्र --अच्छा ! तो आपको इस शोध से क्या कुछ सफलता प्राप्त हुई ?

उ-जी हाँ, एक दिशा मिली, प्रश्न भी उठे, कुछेक विवरण तो भौंचक कर गए । आपको आश्चर्य होगा कि मैं खुद को रोक नहीं सकी और पुन: मनाली गई?

प्र --पुन : मनाली ! लेकिन क्यों?

उ-(नताशा जी मानो कहीं और ही पहुँच गई थीं, उनके चेहरे पर एक मुस्कराहट गुनगुनाने लगी थी)सच कहूँ, हिडिम्बा ने जैसे मुझे जकड़ लिया था । वह बारंबार मुझे झकझोर रही थी 'उठाओ अपनी लेखनी और लिखो मेरी व्यथा-कथा ।' उसके साथ बहुत अन्याय हुआ था, मैं उसकी आत्मा को महसूस करना चाहती थी । स्वयं उस परिवेश में डूबकर सोचना चाहती थी और मेरे आवास के बंद लेखन-कक्ष में यह संभव नहीं था । पुन :वहां जाने के लिए मैं विवश थी।

प्र --बहुत रोमांचक लग रही है आपकी यह शोध यात्रा, फिर ( मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।)

उ-पुन: मनाली जाकर मैं पुजारी रोहित शर्मा जी से मिली, उनसे बहुत सी बातों की जानकारी प्राप्त हुई, दस्तावेज़ देखे और देखी वह मूर्ति जो हर साल दशहरे की शोभा-यात्रा की अगुआई करती है --एक कमनीय आदिवासी वनबेला की नववधु श्रृंगार से सजी मूर्ती ! मैं घंटों मंदिर के प्रांगण में बैठकर देवदार के घने जंगल को निहारती रही, उस चट्टान को देखती रही. तस्वीरें खिंचवाते समय पर्यटकों के हाथों में फेन समान श्वेत कोमल खरगोश ध्यान खींचते रहे और कब वे खरगोश पर्यटकों के हाथों से कूदकर जंगल में लुप्त हो गए -कब वह वन अतीत का चित्र खींच बैठा --कब उस चट्टान पर नववधू हिडिम्बा मुस्कुराती आ बैठी, पता ही नहीं चला और कथा बुनती चली गई ।उसी रात होटल के कमरे में 'प्रश्न' कहानी लिखी गई जो उपन्यास का आधार बन गई ।

प्र --नताशा जी आपके 'प्रश्न' से मेरे मस्तिष्क में भी एक प्रश्न उभरा है। हिडिम्बा का पठन करते समय मेरे मस्तिष्क में भी अनेकों प्रश्नों ने खलबली मचाई थी। इस उपन्यास में आपने जो हिडिम्बा के प्रश्न भीष्म पितामह के समक्ष प्रस्तुत किये हैं, वे मन में बहुत गहन हलचल मचाते हैं । क्या भीष्म पितामह तथा हिडिम्बा के गहन संवाद मूल कथा में भी ऐसे ही कुछ हैं?

उ-प्रणव ! जब कोई विषय लेखक को उद्वेलित करता है तब निश्चय ही उसके पीछे कुछ कारण होते हैं । ये कारण कई बार वर्तमान से भी जुड़ जाते हैं । सत्य तो यह है कि अतीत की ये कथाएँ कहीं न कहीं हमारे 'आज' से जुड़ी होती हैं । सुनने में ये बातें बड़ी-बड़ी लग सकती हैं फिर भी मैं कहना चाहूँगी कि अतीत कोई निर्जीव कालखण्ड नहीं होता । अतीत और वर्तमान का संबंध नदी की धरा है, अटूट है। हम माँ के गर्भ के साथ-साथ एक संस्कृति के गर्भ से भी जन्म लेते हैन। स्वाभाविक है कि आज की समस्याओं का मूल यहीं मिलेगा तभी हम उनके निदान खोज पाएंगे । इस प्रक्रिया में लेखक को मूल कथा रखते हुए भी आज को सोच की आवश्यकतानुसार काल्पनिकता का सहारा लेना ही पड़ता है।

प्र -जी, वैसे भी यह इतिहास तो है नहीं, इतिहास इसका आधार भर है, इसलिए आज के परिवेश की बात करना तो आवश्यक है।

उ-जी हाँ, यदि कथा सामयिक संदेश प्रसृत नहीं करती तब वह रचना अर्थहीन होकर केवल मनोरंजन का माध्यम भर बनकर रह जाती ।हिडिम्बा में मैंने आज की उस आदिवासी बाला को देखा जिसे आज भी समाज केवल भोग्य मानता है-हिकारत से पेश आता है ।हज़ारों सालों से वह यही त्रासदपूर्ण जीवन जीती आ रही है जैसे बीच का यह लम्बा अंतराल है ही नहीं । प्रणव जी, मुझे तो हिडिम्बा के मिस आज की आदिवासी बाला और केवल वही क्यों, सभी दलित -अन्त्यज बालाओं की ओर से प्रश्न उठाने ही थे । इन प्रश्नों के लिए भीष्म पितामह से संवाद की कल्पना मुझे औचित्यपूर्ण लगी । भीष्म भी तो आज की व्यवस्था के प्रतीक ही हैं । आपने तो पुस्तक पढ़ी है!

प्र -जी, मैंने पुस्तक एक बार नहीं, तीन बार पढ़ी है और आपसे मिलने के पूर्व भी एक बार पुस्तक का अंतिम अंश पढ़ा । उसके आवरण पृष्ठ पर तो मेरी दृष्टि चिपक सी गईथी ।

उ-(नताशा जी पर फिर से एक खो जाने का भाव उभर आता है)जहां हिडिम्बा भीष्म पितामह से प्रश्न करती है, वास्तव में वे प्रश्न आज के कानूनविदों, विधि-निर्माताओं, राजनेताओं, धर्माधिकारियों, वरिष्ठों , यहां तक की आज की शिक्षिता स्त्री से भी कर रही है ।

प्र -ये ही प्रश्न पाठक को झकझोरते हैं, कुछ सोचने को विवश करते हैं, संवाद निःसंदेह बहुत सशक्त हैं।

उ- -सही कहा आपने, 'सोचने को विवश करते हैं', यही तो लेखन का उद्देश्य है। जहाँ यह सच है कि राष्ट्र की अस्मिता-सम्मान हमारे व्यक्तिगत सम्मान से बड़ा है तो क्या यह भी सच नहीं कि जिस देश में स्त्री का सम्मान नहीं होता वहाँ क्या राष्ट्र की गरिमा दांव पर नहीं लगती?

प्र.- -सही है, नारी की गरिमा स्थापित होनी ही चाहिए। इस पहलू से हटकर एक और प्रश्न मेरे मस्तिष्क में आया है, क्या आपके भीतर की इतिहास की छात्रा ने 'हिडिंबा' का विषय चयन करने में कोई भूमिका निभाई है?

उ-(हंसकर )नहीं, चयन में तो नहीं---जैसा मैं पहले बता चुकी हूँ, इसका चयन तो एक रोमांचक यात्रा से हुआ । हाँ, यह ज़रूर कह सकती हूँ कि मुझे जो प्रश्न उद्वेलित कर रहे थे, वे शायद इतिहास की छात्रा के थे । पहले अध्ययन के दौरान फिर रचना प्रक्रिया में वह इतिहास की छात्रा भीतर से उभरकर आ गई जो निष्पक्ष रूप से तार्किकता की कसौटी पर हर बिंदु-हर प्रश्न की परख करती रही। हर पहलू की गहराई में उतरना और प्रामाणिकता पर बल देना इतिहास का विद्यार्थी शायद कुछ अधिक ही करता है, लेकिन हाँ, इतिहास का विद्यार्थी काल्पनिक कथा नहीं कहता (मुस्कुराकर)यह उड़ान लेखक की होती है ।

प्र ;'हिडिम्बा ' की रचना के दौरान और कौनसे विचार आपके मन में घुमड़ते रहे?

उ-केवल यह कि सार्थक रचना हो,  मूल्यों से रहित लेखन साहित्य की श्रेणी में नहीं आता । प्रेमचंद जी की यह बात मुझे सदा स्मरण रहती है ।यदि रचना हमारी अंतरात्मा को छूती नहीं तो कहीं कमी समझिए । लेखक को अपनी वैचारिकता, अपनी कल्पना व लेखनी से ऐसा कुछ प्रस्तुत करना होगा कि वह मानवता व समाज के लिए हितकर हो। साहित्य हमारे अंत:करण की आवाज़ बने जहाँ जीवन मूल्य-मानवीय संवेदनाएं हमें आलोड़ित करती रहें ।

प्र--नताशा जी, एक आखिरी प्रश्न:-आपके विचार में लेखन में वह कौनसा बिंदु है जिसका होना आप अनिवार्य मानती हैं?

उ-एक शब्द में कहूँ तो 'मानवीय मूल्य'।

मैं नताशा जी को धन्यवाद देकर खडी हो गई लेकिन हिडिम्बा की भाँति लेखिका भी मेरे मस्तिष्क पर छाई रहीं । जीवन में मानवीय मूल्यों की पक्षधर डॉ. नताशा अरोरा अपने व्यवहारिक जीवन में भी बिलकुल, सरल, सहज, प्रेमिल हैं, इस बात का प्रमाण सहज रूप में मुझे उनके परिवार के सदस्यों से मिलकर हो गया था । रिश्तों की ममतामयी नाज़ुक पकड़ कितनी महत्वपूर्ण है 'हिडिम्बा' में भी बार-बार प्रश्नों के माध्यम से अनेकों प्रश्न मन को मथते हैं । हिडिम्बा के माध्यम से प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तर आज की न केवल स्त्री के भीतर वरन पुरुष के भीतर भी कोलाहल मचा रहे हैं, यह उपन्यास की सबसे बड़ी सार्थकता है।'हिडिम्बा' का अंग्रेज़ी अनुवाद भी प्रगति में है ।

 

साक्षात्कार - डॉ. प्रणव भारती