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उम्मीद बाकी है

शीत ऋतु की एक संध्या थी |मैं छत पर खड़ी क्षितिज की ओर ,जहां अभी-अभी सूर्यास्त हुआ था ,आकाश को निहार रही थी |सुदूर पश्चिमी क्षितिज पर ढलने वाली रात के भूरे साये बचे-खुचे दिन के गुलाबी अवशेषों पर हावी हो रहे थे |ऐसा लगता था कि दिन -भर की थकी हुई धूल शाम के बदमिजाज धुएँ से यूं मिन्नत कर रही है कि ‘’आओ,दोनों एक साथ आराम के कुछ पल बिता लें |’’ ठंडी हवा के झोंकों से मुझे कंपकपी आ गयी ,जिसने मुझे वह दिन याद दिला दिए ,जब जाड़े की दुपहरी में दादी धूप सेंका करतीं और मैं उनकी गोद में लेटी रहती और रात को उनकी रज़ाई में घुसकर उनसे कहानियाँ सुनती |तनावमुक्त बचपन की याद ने मुझे जकड़ लिया और मैं आनंद से भर उठी |

दो वर्ष पूर्व मैं एक हाथ में डिग्री और मन में दुविधा लिए विश्वविद्यालय से निकली थी और तब से अब तक बेरोजगार थी |मुझे करने को कुछ न था और समय मुझ पर बहुत भारी था |दिन की बेचैनी ,शाम की हताशा और रात का अकेलापन मुझे बहुत अखरता था |हर शाम को आकर छत पर खड़ी हो जाती |यह बात मैं समझ नहीं पाती थी कि छत से मेरा क्या रिश्ता है ?छत से दिखते पेड़ों ,मकानों व सुदूर सीधी अकड़ी गर्दन वाली ऊंची-ऊंची चिमनियों में ऐसा कोई सौंदर्य भी तो नहीं था |हाँ,दूर तक फैले खेतों व सड़क पर भागती जिंदगी देखकर मुझे एक अजीब -सी कलात्मक संतुष्टि मिलती |

परिवार में बस पिताजी कमाने वाले थे और आठ भाई-बहनों का बड़ा परिवार |मेरी समस्याओं ने भी परिवार की परेशानियाँ बढ़ाई ही थीं |मैं अपने पति का घर छोड़ आई थी |उसने एक दूसरी स्त्री घर में ला छोड़ी थी और चाहता था मैं इसे स्वीकार कर लूँ |मैं यह कैसे स्वीकार करती ? मैंने उसे ही छोड़ दिया।पहले तो मेरे घरवालों ने मेरा साथ दिया पर कुछ वक्त बीतते ही मैं बोझ समझी जाने लगी थी |

अंधेरा हो चला था पर नीचे उतरने का मन नहीं हो रहा था कि कहीं माँ से अप्रिय बहस न हो जाए |माँ मुझसे अधीर हो चली थीं ,इसलिए नीचे उतरकर मैं अपनी सहेली मीना के घर जाने का विचार करने लगी |फिर ख्याल आया कि वहाँ मीना की माँ भी पुराना भाषण शुरू कर देंगी –मीना की तरह तुम भी कोई छोटी-मोटी नौकरी ही कर लो |बेकार बैठने तो अच्छा है |[इस तरह मेरी बेकारी का ताना देंगी |यह सोचकर मैंने इरादा बदल दिया |जहां जाओ वहीं निष्ठुर वाकपटुता!हर कोई सलाह-मशवरा ही देता है |आगे बढ़ाकर मदद करने वाला कोई नहीं |किसी ने कोशिश करके नौकरी नहीं दिलवाई |

इस तरह की अपमान-जनक स्थिति से बचने के लिए मैंने पास-पड़ोस तक में जाना छोड़ दिया था पर खाली बैठना मुझे भीतर ही भीतर खा रहा था |

इस समय तक मुझे डिप्रेशन होने लगा था |हाँ,न जाने कब से ,जो मेरे जीवन की सबसे दुखद त्रासदी थी ,परिवार में किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया |जहां परिवार में बच्चों का पेट पालना मुश्किल हो रहा था,वहाँ मन की इस बीमारी की ओर किसका ध्यान जाता ?जी घबरा रहा था ,इसलिए नीचे उतरकर मैं बिस्तर में घुस गयी |इस दौर में मेरी भूख-प्यास और नींद गायब हो जाती थी |बस मर जाने को जी करता था|इस दौर से गुजरना बहुत कठिन था मेरे लिए ...|माँ ने मुझे बिस्तर में लेटे देखा तो आग-बबूला हो उठी |गालियां सुनाने लगी |बहनें भी उसमें शामिल हो गईं |मेरे दोष गिनाए जाने लगे और मैं चुपचाप तकिये में चेहरा छिपाए रोती रही ...बस रोती रही |खुद को संभालना बड़ा कठिन हो रहा था |मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगी ---‘मुझे बचा लो ...बचा लो भगवान ...मैं मरना नहीं चाहती...मेरे लिए कोई रास्ता निकालो |इस दयनीय स्थिति ...इस असहनीय पीड़ा से छुटकारा दिलवाओ |’मैं खामोशी से रोती रही और रात -भर सो नहीं पाई |


दूसरे दिन मैं एक प्राइवेट स्कूल की प्रधानाध्यापिका से मिली |वे मेरे आकर्षक व्यक्तित्व और योग्यता से प्रभावित हो गईं |शर्माते हुए बोलीं –मेरा छोटा -सा स्कूल है |बस दो सौ रूपए दे पाऊँगी ...जो आपके योग्य नहीं ...अगर आप चाहें तो ...|

यहाँ भी शोषण ....|इतनी बड़ी डिग्री और सिर्फ दो -सौ रूपए.... !प्राइवेट स्कूल वाले चारों तरफ से पैसे कमाते हैं |बच्चों की फीस भी ज्यादा लेंगे ,ऊपर से किताब-कापियाँ ,ड्रेस बेल्ट,टाई सबमें कमीशन की कमाई | टीचर्स को नाममात्र का पैसा देकर कसकर काम लेंगे |इस स्कूल ने एक कमरे से यात्रा कर बड़ी बिल्डिंग में जगह यूं ही तो नहीं बनाई है |जी तो चाहा की मना कर दे,पर मजबूरी थी |मैंने हामी भर दी |सोचा,कुछ ट्यूशन कर लूँगी ...|कम से कम व्यस्तता से इस डिप्रेशन से तो छुटकारा मिलर्गा ...|

जिंदगी एक ढर्रे पर आ गयी |प्रात: छह बजे तैयार होकर मैं ट्यूशन पढ़ने निकल जाती |नौ बजे तक तीन ट्यूशनें समाप्त कर विद्यालय और विद्यालय से छूटते ही फिर ट्यूशनें ...|इस तरह प्रात: छह से सायं सात बजे तक मैं व्यस्त रहती और जब घर लौटती थककर चूर होती |घर के कामों में सहयोग न देने के कारण बहनें मुझसे नाराज रहतीं | माँ भी जैसे यह सोचती कि बाहर मुझे सिर्फ आराम करना होता है ,इसलिए खाने के लिए मुझे तानों के साथ रोटियाँ और अपमान के साथ सब्जी मिलती |जो कुछ भी मिलता,मैं आंसुओं के साथ निगल लेती और ईश्वर से फरियाद करते सो जाती |महीने में सात-आठ सौ रूपए की आय होने लगी थी |इस तरह आर्थिक परवशता समाप्त हो गयी थी |

उस दिन मैं छत पर खड़ी आकाश देख रही थी तो मुझे लगा कि क्षितिज के बदलते रंगों के साथ –साथ आसमानी शक्तियों में भी बदलाव आ रहा है ,क्योंकि मैंने महसूस किया कि धीरे-धीरे काले पड़ते दिन के गुलाबी अवशेषों के बीच आशा की एक किरण भी है |

उसके दूसरे ही दिन जब मैं काम से थक कर घर पहुंची तो देखा माँ मेरा इंतजार कर रही है |उसके हाथ में मेरा ‘नियक्ति –पत्र' है |मुझे याद आया कि कुछ रक साल पहले मैंने विश्व विद्यालय में प्रवक्ता पद के लिए इंटरव्यू दिया था |मैं खुशी से उछल पड़ी ---‘’नौकरी ...!इतनी ठोकरों के बाद !...बिना किसी सोर्स-सिफ़ारिश के ...रिश्वत के !’’

लो...अब तो सचमुच ही मौसम बदल रहा था |शीत- ऋतु जा रही थी ...बसंत आ रहा था |सब कुछ बदलता है –जैसे संध्या को पश्चिम में आकाश रंग बदलता है ,जैसे ही रातो-रात नाकारा संतान भी होनहार हो जाती है ,उसी तरह पूरे परिवार का रवैया मेरे प्रति बदल गया था |

और वह दिन आ गया ,जब मुझे ज्वाइन करना था |भगवान गणेश का स्मरण कर मैं विश्वविद्यालय पहुंची ,तो देखा वह बंद है |सोचा प्रशासनिक भवन में जाकर पता कर लूँ |मैं प्रशासनिक भवन में दाखिल हुई और अपनी उत्तेजना- भरी खुशी में मैंने उन दुर्गन्धों की ओर ध्यान नहीं दिया ,जो दफ्तरों की पहचान बनी हुई है |पान-तंबाकू की दुर्गंध ,ऊंची-ऊंची छतों की दुर्गंध,उनमें लटके बहुत पुराने पंखों की दुर्गंध ,आंतरिक राजनीति ,भ्रष्टाचार ,बुराइयों और बेईमानियों की दुर्गंध ,किन्तु बहुत कम अच्छाइयों और इंसानियत की खुशबू |

बाबू से पूछताछ करने पर पता चला कि विश्वविद्यालय में कुल दस लोग पोस्ट हुए हैं |मेरे विषय के लिए एक स्थान रिक्त था और उस स्थान पर एक आदमी पोस्ट हो चुका है |आप विभागाध्यक्ष से मिल लें |मैं विभागाध्यक्ष से मिलने भागी ,तो पता चला कि वे भी अनुपस्थित हैं |वहाँ से मैं पुन: प्रशासनिक भवन पहुंची ,तो देखा वह बंद हो चुका है |ऊंची छतों के कमरों की दुर्गंध भी अंदर ही बंद हो चुकी है |अब मुझे कल का इंतजार करना था |

घर पहुँचने पर देखा कि सभी मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं |प्रत्येक व्यक्ति नौकरी के पहले दिन का अनुभव सुनना चाहता था |मैं कैसे बताती कि मुझ पर क्या गुजरी ?मैं इतनी परेशान थी कि किसी से बात नहीं करना चाहती थी इसलिए मैंने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया |सब समझ गए कि मेरी नौकरी चली गयी |

दूसरे दिन मैंने जाकर विभागाध्यक्ष से बात की |मामला कुलपति तक गया |थोड़ी देर में मैं उनके सामने थी |वहाँ पहुँचकर मैंने देखा कि वहाँ पहले से ही एक युवक बैठा हुआ है |उसके आधे-अधूरे वाक्यों और उड़ते-उड़ते शब्दों से ही मैंने समझ लिया कि वह युवक भी मेरी ही तरह शिकायत लेकर आया है |

कुलपति ने कहा –‘गलती से हमारे यहाँ दस की जगह ग्यारह लेटर्स चले गए |चिंता न करें |जो जिम्मेदार है ,उसके विरूद्ध कार्यवाही की जाएगी |आप दोनों में से जिसका मेरिट ज्यादा हो,वह ज्वाइन कर ले |बड़े बाबू कृपया मेरिट लिस्ट दिखाइए|’

जब मेरिट लिस्ट के पन्ने पलटे जा रहे थे ,मोती भद्दी –सी अंगुलियाँ ऊपर से नीचे जा रही थी और मोटे-मोटे शीशों के चश्में उन्हें घूर रहे थे ,तो हम दोनों ऐसा महसूस कर रहे थे ,मानो दुर्गंधयुक्त लोगों द्वारा उछले गए पासे हों और जब पासे नीचे आ गिरे और मोटी भद्दी अंगुली दसवें क्रमांक पर आकर रूकी तो उस क्रमांक पर रमेश का नाम था |

‘तो यह रहा ....| रमेश आप ज्वाइन कर लें |’कुलपति ने अपना फैसला सुनाया और मेरी तरफ ध्यान से देखते हुए कहा –‘आपको भी निराश नहीं होना चाहिए ....आपके लिए भी हम कुछ करेंगे |’

यह खिलवाड़ देखकर मैं स्तब्ध रह गयी और चुपचाप बाहर की ओर चल पड़ी |मैं अभी बरामदे की खुली हवा में उदास –सी खड़ी हुई ही थी कि किसी ने मेरे कंधे को छुआ |मैंने मुड़कर देखा,वह रमेश था |

‘यदि आपको नौकरी की ज्यादा जरूरत हो तो मैं आपके लिए इसे छोड़ सकता हूँ |’

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ |

‘चलिए ,कहीं चल कर बैठते हैं |’वह बोला और मैं चुपचाप उसके साथ चल पड़ी |थोड़ी दूर पर एक छोटी-सी चाय की दुकान थी |चाय पीते हुए हम दोनों ने जल्दी-जल्दी अपनी- अपनी रामकहानी सुना डाली और नतीजा यह निकला कि दोनों के हालात एक-दूसरे से अच्छे नहीं थे |

‘देखो रमेश ,मैं तुम्हारा अधिकार छीनना नहीं चाहती|यह इंसाफ का तकाजा है |मैं तुम्हारी यह सहृदयता कभी नहीं भूलूँगी |’

और इस तरह एक प्रसंग समाप्त हुआ और एक नयी कहानी शुरू हुई |जब मैं घर पहुंची तो किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया |सब सच्चाई भाँप गए थे |मैं हाथ-मुंह धो रही थी ,तभी पिताजी को कहते सुना –‘अरे,नौकरी मिलना इतना आसान थोड़े है |बड़े-बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं ...|’

इसके पूर्व कि वे कुछ कहते ,मैंने उन्हें बीच में टोक दिया –यह सच है कि मुझे नौकरी नहीं मिली पर आज मुझे अलौकिक अनुभव हुआ |मैंने इंसानियत की महक देखी |आशा की सुगंध बाकी है ,भले ही व्यवस्था कितनी भी बदबूदार हो गयी हो |

दूसरे दिन मैं प्रात: ही छत पर जा पहुँची और केवल पश्चिम की ओर देखने के बजाय मैंने सोचा कि अब दूसरी दिशाओं का क्षितिज भी देखना चाहिए |पूरब की ओर रेलवे स्टेशन था |जिसके भवन के गर्वीले और शानदार गुंबदों के पीछे से उगते सूरज की किरणें छनकर छत तक तक पहुँच रही थीं और गुंबद मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा रहे थे |उत्तर की ओर घंटाघर ने जब छह बजाए तो बड़े ही हर्ष के साथ मुड़कर मैंने उस तरफ देखा |तभी नीचे से माँ के पुकारने की आवाज आई |मैंने ऊपर से झाँककर नीचे देखा रमेश नवजीवन का संदेश लिए दरवाजे पर खड़ा था |

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