अपंग - 71 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपंग - 71

71

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शुरू से ही कहाँ मंदिरों में जाती थी भानु लेकिन कोई विरोध नहीं था उसे ! विरोध था तो ऐसे लोगों से जो मुँह में राम बगल में छुरी दबाए घूमते थे | कैसे माँ को अपने शब्दों से बाँध लेता था वह बंदा जिससे वह किशोरावस्था से चिढ़ती रही थी |

ऐसे ही लोग होते हैं अपंग जो तन से नहीं मन से अपंग होते हैं | यह मन की अपंगता ही वास्तव में मनुष्य को बेचारा बनाती है, तन की अपंगता होना ब्रह्मांड का खेल है लेकिन मन की अपंगता मनुष्य के स्वयं की बुनी हुई होती है जिसको वह उधेड़ता भी नहीं, बुनता ही रहता है और एक ऐसा कम्बल तैयार कर लेता है जिसमें छिपकर समझता है, उसे कोई नहीं देखता, वह बहुत सुरक्षित है |

'क्या मज़ाक है !' भानु ने सोचा और उसके चेहरे पर व्यंग्य पसर गया |

न जाने क्यों आज उसका मन वास्तव में था कि आज भगवान शिव की सज्जा के दर्शन करके आएगी यद्धपि वह जानती थी कि शिव जी के दर्शनों के बाद उसका विचलित मन और आँखें सदाचारी को तो तलाशेंगी ही ! लेकिन दृष्टि को तो कष्ट करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी | जो सज्जा वह देखने गई थी, उसके दर्शन तो वह कर नहीं पाई उसके दर्शन अवश्य हो गए जिसके बारे में सोच रही थी कि उसको तलाशना पड़ेगा | कमाल का बंदा बनाया है ईश्वर ने भी !

लाखी जानती थी, एक दिन तो यह सब होने  ही वाला था  ! कितनी कोशिश की थी दीदी को मनाने की लेकिन दीदी कहाँ रुकी थीं ? उनको जो करना होता, वह करती ही थीं | उसे भानु की यह स्थिति देखकर तकलीफ़ हो रही थी | अक्सर भानु अंदर से टूटती और भानु उसका सम्बल बन जाती | लाखी का सम्बल भानु होती | अरस-परस का मामला था |

लाखी ने ड्राइवर अंकल को इशारे से कह दिया था कि वह छोटे को एक बार फिर से घुमाने ले जाए | थोड़ा ठुनकने के बाद बच्चा जाने के लिए आख़िर तैयार हो गया था | सुबह-सवेरे फूलों की, खिलौनों की, खाने-पीने की दुकानें खुल जाती थीं, वहीं घूमकर तो आया था अभी बच्चा फिर से ड्राइवर अंकल उसे उससे आगे ले जाने का वायदा करके ले गए थे |

न जाने क्यों आज भानु लाखी को अपने पास बैठने नहीं देना चाह रही थी| लाखी को पता तो था ही कि उसकी दीदी पीड़ा में है फिर उसे अपने पास न बैठने देने का एक ही अर्थ उसकी बुद्धि में आता था कि शायद दीदी कुछ लिखेंगी | अपने मन की सारी पीड़ा वह शब्दों के माध्यम से ही तो उंडेलकर हलकी हो जाती थी |

कहीं दूर 'भजनावली' कार्यक्रम में 'तोरा मन दर्पण कहलाए रे !' बज रहा था जो भानु को और भी असहज कर रहा था | भला अपंग मन दर्पण भी हो तो क्या----!! भानु के मन में मंदिर में चिल्लाए जाने वाला भजन के नाम पर शोर पसर रहा था |

पता नहीं, कब तक वह यूँ ही बैठी रही, उसका मन भारी नहीं, अपंग जैसा हो रहा था | उसका चेहरा पसीने से तर-बतर होने लगा | लाखी ने जल्दी से जाकर पास रखे हुए नैपकिन से उसका चेहरा पोंछने के लिए हाथ बढ़ाया |

"अरे मेरी माँ, मैं ठीक हूँ --तू जा यहाँ से ---" भानु को सच में ही कभी लगता कि वह उसकी माँ से भी अधिक उसका ध्यान रखती थी लेकिन कभी वह खीज भी जाती | उसका अपना 'स्पेस' जैसे गुम हो जाता |

भानु सदा से मानती आई थी कि मनुष्य को सदा वही काम करना चाहिए जो उसकी 'कॉंशस'  करे लेकिन ऐसे लोग किस मिट्टी के बने होते हैं जिनकी कोई अंतरात्मा होती ही नहीं या होती भी

भी होगी तो मर जाती होगी | लेकिन उसका दिमाग़ यह सोचकर चक्कर खा रहा था कि इतने नाटक करके, इतने सारे कर्मों को करने के बाद भी कोई कैसे इतना बिंदास रह सकता है ? यह सब वास्तविक परिवर्तन नहीं, नाटकीय परिवर्तन था जिसे वह और भी चिढ़ रही थी |

उसने लाखी को तो वहाँ से भेज दिया था लेकिन स्वयं को संभाल नहीं पा रही थी |क्या

सदाचारी की चिल्लाने की आवाज़ उन शिव जी के कानों तक पहुँच रही होगी जो स्वयं सत्य, शिव, सुन्दर हैं, जो सबका मंगल करने वाले हैं, जो जन्म भी देते हैं और संहार भी करते हैं |

लाखी कई बार वहाँ चक्कर लगा गई थी लेकिन भानु थकी-टूटी सी अभी तक वहीं बैठी थीं | उससे उठा ही नहीं जा रहा था |

"चलिए न दीदी, देखिए कितनी धूप घिर आई है ---" ख़ासी ठंडी हवा पत्तों के बीच से गुज़रती बगीचे में पसर रही थी लेकिन उन्हीं बड़े पेड़ों के पत्तों में से झाँकते हुए सूर्य की किरणें इधर-उधर दौड़ भागकर जैसे छोटे बच्चों सी आँख-मिचौनी खेल रही थीं |

"चलिए न अंदर, बहुत देर हो गई अब तो ---" लाखी फिर आ पहुँची थी |

"तू जा न बाबा, मैं आ जाऊँगी ----" भानु ने कहा और अपनी थकी हुई कमर पीछे टिका दी |

"मुझे तो पता ही था, ऐसा ही होगा, आप दुखी होंगी पर आप किसी की मानें तब न ---!"

"पता तो था लेकिन पता होने में और सहने में बड़ा फ़र्क होता है न !"उसकी आँखों में आँसू और प्राणों में भयंकर हलचल थी |

"पर क्यों?" लाखी ने पूछा |

"पता नहीं ---" कई बार इंसान के साथ जो कुछ भी घटित होता है, वह उसे ख़ुद भी नहीं पता होता क्यों हो रहा है ? क्या हो रहा है ? इसके पीछे आख़िर क्या है ?कहाँ इतना समझदार और विवेकी होता है इंसान !

लाखी उसे ज़बरदस्ती उठाकर ले गई तो उसे ऊपर अपने कमरे में जाना ही पड़ा | रिश्तों का बनना, टूटना उसके सामने नाच रहा था | जैसे कोई परछाईं सी थिरकती रहती है, मन के झरोखे में से !

दिन व्यतीत होते जा रहे थे और पुनीत ऐसे ही लखी के समीप होता जा रहा था जैसे जैनी के समीप था | यह अच्छी बात थी, भानु भी चाहती थी कि बच्चा उससे थोड़ी दूरी बनाकर रखे जिससे उसके मन की व्यथा से उपजे उसके थके हुए मन का, उसके व्यवहार का प्रभाव बेटे पर न पड़े| कोमल मन पर प्रभाव पड़ने पर बच्चे का व्यक्तित्व ही पूरा बदल जाता है |

"कैसी लड़की है वो जो किसीका घर-परिवार बिगाड़कर आराम से घूम रही है !"लाखी भानु के सिर में तेल मलते हुए बोली |

"नहीं, कोई किसीका घर नहीं बिगाड़ सकता जब तक कोई अपने आप ही न चाहे ---" भानु ने धीरे से कहा |

"अब भी उस औरत की तरफ़दारी ले रही हो दीदी ?" लाखी को भानु पर नाराज़गी हो आई |

'पता नहीं कैसी हैं ये दीदी भी--'भानु ने भुनभुन की |

सच बात तो यह थी कि भानु इतनी परेशान शायद तब भी नहीं थी जब राजेश रुक के साथ रहता था |शुरु-शुरु में ज़रूर वह चौंककर एक सदमे में ज़रूर आ गई थी लेकिन धीरे-धीरे सब आदत में परिवर्तित हो गया था | इसका श्रेय रिचार्ड को जाता था जिसने उसकी गर्भावस्था से ही उसका और उसके बच्चे का ध्यान रखा था और बदले में कभी कोई इच्छा ज़ाहिर नहीं की थी |